madarsaउत्तर प्रदेश के ज्यादातर मदरसों की हालत बेहद खराब है. वे आज भी घिसे-पिटे तौर-तरीकों और बाबा आदम के जमाने की पद्धति से चल रहे हैं. मदरसों के संचालन की व्यवस्था देख रहे लोग संविधान के अनुच्छेद-30 को हथियार बनाकर इसे कामधेनु की तरह दुह रहे हैं और बच्चे सार्थक इल्म से वंचित हो रहे हैं. नदवां जैसे दर्जनभर मदरसों को अलग कर दें, तो बाकी के सारे मदरसे बदहाल ही हैं.

लखनउ में संचालित दारुल उलूम नदवातुल उल्मा, आजमगढ़ में दीनी व दुनियाबी शिक्षा की कमान संभाले दारुल उलूम अशरफिया मिस्बाहुल उलूम एवं जामियातुल फलाह ठीक काम कर रहे हैं. इसके साथ ही सहारनपुर, बनारस, बरेली, सिद्धार्थनगर और बलरामपुर में लोगों को फायदा पहुंचा रहे क्रमशः मदरसा मज़ाहिर उलूम, दारुल उलूम देवबंद, जामियां सलफिया रिवारी तलब, जामिया मंज़र इस्लाम, दारुल उलूम फैज़ुर रसूल, दारुल हुदा यूसुफपुर और मदरसा सिराजुल उलूम सार्थक कोशिशों का नतीजा हैं.

प्रदेश में ऐसे मदरसों की संख्या अत्यंत कम है, जिन्हें पूर्णता की श्रेणी में रखा जाए. सूबे में मात्र दर्जनभर मदरसों पर इतराने के बजाय शासन को उन मदरसों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जो कस्बाई और ग्रामीण स्तर पर खोल तो दिए गए हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता रत्तीभर भी नहीं है. यहां तक कि जमीन पर उनकी मौजूदगी भी नहीं है. प्रदेश में ऐसे बेमानी के मदरसों की संख्या सौ पचास नहीं बल्कि हजारों में है. दस्तावेज बताते हैं कि अम्बेडनगर में 269, आजमगढ़ में 233, इलाहाबाद में 132, आगरा में 17 और अलीगढ़ में 16 ऐसी संस्थाएं पंजीकृत हैं, जो मदरसों के संचालन का दावा करती हैं.

ऐसी स्थिति कमोबेश प्रदेश के हर जिले की है. बुंदेलखंड तो ऐसे काम चलाऊ मदरसों का बड़ा गढ़ बन चुका है. रिकार्ड बताते हैं कि यहां संयुक्त रूप से लगभग पांच सौ संस्थाएं रजिस्टर्ड हैं. निजी स्वार्थों के चलते लोग तेजी से ऐसे मदरसे खोल रहे हैं. इनका मुख्य मकसद होता है, महज कागजों पर या फिर एक कमरे से मदरसा संचालित कर सरकारी योजनाओं को हड़पना या ज़कात और फितरे के माध्यम से अपनी जेबें भरना. हालांकि इसके लिए ये मदरसा संचालक ही दोषी नहीं हैं, बल्कि अल्पसंख्यक विभाग के अधिकारी और मुलाज़िम भी उतने ही कसूरवार हैं.

सत्ताधारी दल से लेकर विपक्ष सहित सूबे की राजनीति में सक्रिय अधिकांश दलों को इसकी जानकारी है, लेकिन कहीं न कहीं उनकी राजनीतिक लिप्सा ने उनके मुंह पर ताला डाल रखा है. यही वजह है कि मदरसों पर मठाधीश हावी हैं.

ये मठाधीश मनमाने ढंग से मदरसों का संचालन कर रहे हैं. कुछ लोग मान्यता लेकर सरकारी मदद के बूते ऐश कर रहे है. कुछ मदरसे जनता के चंदे से चांदी काट रहे हैं. मदरसों से पढ़े हुए बच्चों का भविष्य संकट में है. विशुद्ध दीनी तालीम देने वाले इदारों से पढ़कर निकले हाफिज, कारी व आलिम रोजगार को मोहताज़ हैं. इन मदरसों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे ग्रामीण परिवेश और गरीब परिवारों से आते हैं. कहा जाता है कि फीस के नाम पर इनसे घरों से लाया हुआ चावल, अनाज व दलहन लिया जाता है.

ऐसा कर के ये दीनी तालीम हासिल तो कर लेते हैं, लेकिन ये ही जब मदरसों में शिक्षक की नौकरी के लिए आवेदन करते हैं, तो इनसे भारी भरकम रिश्वत की मांग की जाती है. सरकार आधुनिक शिक्षा के लिए मान्यता प्राप्त मदरसों को तीन अध्यापकों का मानदेय देती है, जबकि इन पदों के लिए शिक्षक चयन का अधिकार प्रबंधक के पास होता है और वे इसका खूब फायदा उठाते हैं. आवेदनकर्ताओं से नियुक्ति के बदले मोटी रकम ली जाती है. इस रिश्वत का दायरा उन मदरसों में और अधिक बढ़ जाता है, जो मान्यता प्राप्त होते हैं.

बुंदेलखंड के महोबा जनपद में संचालित मदरसा दारुल उलूम समदिया मकनियांपुरा इस बात की बेहतर नज़ीर है, जहां कुछ वर्षों पहले इसी तरह के एक मामले से बवाल मच गया था. कुछ प्रबंधक शिक्षक के पदों पर अपने ही परिवार के सदस्यों को नियुक्त कर लेते हैं और सरकारी मदद डकार जाते हैं. ऐसी स्थिति में इदारों से पढ़कर निकले हाफिज, कारी व आलिम डिग्रीधारकों के पास सिर्फ दो ही विकल्प शेष रह जाते हैं. पहला ये कि वे आजीविका के लिए मेहनत-मजदूरी करें या फिर वे भी एक कमरे का मदरसा खोलकर इसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं.

मदरसों में चल रही मठाधीशों की मनमानी के खिलाफ मुस्लिम समुदाय में बेहद नाराजगी है. मोटा पैसा लेकर मदरसा संचालकों को लूट की मान्यता देने में डीआईओएस और बीएसए कार्यालय भी पीछे छूट गए हैं. भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे अल्पसंख्यक विभाग की स्थिति का अंदाजा बुंदेलखंड के जनपदों से बखूबी लगाया जा सकता है. बुंदेलखंड के अधिकांश जिलों में अल्पसंख्यक अधिकारी का कार्य समाज कल्याण अधिकारियों के जिम्मे है. कुछ जनपद ही ऐसे हैं, जिनमें अल्पसंख्यक अधिकारी की तैनाती की गई है. महोबा उन्हीं जिलों में से एक है. यहां के अल्पसंख्यक अधिकारी सिंह प्रताप देव ने तो मनमानी के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. खुद को सूबे के एक कद्दावर मंत्री का कृपापात्र बताने वाले इस अधिकारी के सामने वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी बौने साबित हो रहे हैं.

मदरसों की मान्यता के मामले में मनमानी पर उतारू इस अधिकारी को न तो नियमों से कोई मतलब है और न कायदे-कानून से कोई सरोकार! ‘दाम दो और काम लो’ के इकलौते फॉर्मूले पर चलने के कारण ही ये अधिकारी दलालों और चापलूसों का प्रिय बने हुए हैं. इनके दफ्तर में हर समय मदरसा मान्यता के धंधे से जुड़े दलालों का जमघट इस बात की पुष्टि करता है. अभी हाल ही में इस बेलगाम अफसर ने जिलाधिकारी कैम्प कार्यालय में जिलाधिकारी से ही बदसलूकी कर दी. जिलाधिकारी ने किसी योजना की जानकारी लेने के लिए उक्त अधिकारी को बुलाया था. सही जानकारी न देने पर जब जिलाधिकारी ने उन्हें डांटा, तो वे बदसलूकी पर उतर आए. इससे समझा जा सकता है कि भ्रष्ट अधिकारियों के हौसले कितने बुलंद हैं.

कंगाल थे, मदरसों के बूते कोठियों के मालिक हो गए

मदरसों से मुस्लिम आवाम का भला हुआ हो या नहीं पर इसका लाभ उठाकर मदरसा संचालक कंगाली से कोठियों तक जरूर पहुंच गए. कंगाली से कोठी तक का सफर सरकारी योजनाओं के धन के साथ-साथ जकात और फितरा ने भी पूरा कराया. शिक्षा की इस पाक खिदमत को व्यवसाय का रूप देने वाले लोग आज करोड़ों के वारे-न्यारे कर रहे हैं. बांदा जनपद में संचालित हथौरा मदरसे के सरपरस्त हों या महोबा जिले के पनवाड़ी कस्बे में चल रहे रहमानियां कॉलेज के प्रबंधक या फिर दारुल उलूम गौसिया रिज़विया और मदरसा दारुल उलूम समदिया के कर्ताधर्ता, सब इस फर्जीवाड़े में शामिल हैं. कुलपहाड़ स्थित जीबी इस्लामियां के अजीज खान और जनपद मुख्यालय के समदनगर में नौनिहालों को फैज़याब करने का दावा कर रहे मदरसा अल्फलाह मुजद्ददिया के कथित प्रधान भी इस मामले में हम्माम के नंगे-साझेदार हैं.

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