एम जे अकबर ने पहली बार हिंदी की रिपोर्ट को अंग्रेजी में अनुवाद कर छापा. उन्होंने अंग्रेजी पत्रकारिता के उस पाखंड को तोड़ दिया, जिसमें कोई भी दम न होने के बाद भी सर्वोत्तम का दंभ रहता था. एम जे ने स्थापित किया कि अच्छी रिपोर्ट यदि हिंदी में लिखी हो, तो उसे अंग्रेजी में छपना चाहिए. अकबर ने विषयवस्तु को प्रमुख माना, भाषा को नहीं. रविवार में छपी अच्छी रिपोर्ट को एम जे संडे में छाप देते थे. आज भी लगता है कि शायद यह एम जे अकबर ही कर सकते थे. कमाल यह था कि एम जे का प्रस्तुतीकरण कुछ ऐसा होता था कि यह रिपोर्ट पहले रविवार में छप चुकी है, इसका पता ही नहीं चलता था.
एम जे अकबर ने पहली बार एक ही संस्थान से निकलने वाले दो साप्ताहिकों में प्रतियोगिता का माहौल बना दिया था. यह ऐसी अद्भुत प्रतियोगिता थी, जिसमें कुछ हथियार तो दोनों के एक ही थे, यानी हम कुछ संवाददाता. अगर एम जे पहले स्टोरी करने के लिए कहते थे, तो वह पहले संडे में जाती थी. अक्सर इस होड़ में जीत रविवार की होती थी, पर अकबर को हमेशा श्रेय मिलता था. यह प्रतियोगिता खूब चली, पर एस पी और एम जे में कभी वैमनस्य हुआ ही नहीं. यह भावना या भ्रम कई लोगों में बना रहा कि रविवार संडे का अनुवाद है. अक्सर एम जे संडे के रिपोर्टरों को भेजते थे, पर उनकी मदद के लिए वह रविवार के लोगों से कह देते थे. एम जे का एक फोन हमारे लिए आदेश हो जाता था. एम जे को शायद इस बात का भरोसा था कि अंदरूनी कहानी रविवार के लोगों के ही पास होगी.
एम जे में बातचीत के दौरान ख़बरें निकालने की अद्भुत क्षमता है. अक्सर ऐसा होता था कि एस पी, एम जे, मैं या कोई और खाना खाते-खाते बातें करते जाते थे. मैं कई ऐसी बातें उनको बताता था, जिनका उपयोग अपनी रिपोर्ट में नहीं कर रहा होता था. अचानक धीरे से मेरी मुट्ठी में कागज का एक छोटा पर्चा एम जे चुपचाप पकड़ा देते थे. इसमें ताकीद होती थी कि रात में इसे लिखकर सुबह उनके हवाई जहाज में बैठने से पहले उन्हें रिपोर्ट दे दी जाए. वही होता था, रात में रिपोर्ट लिखी जाती थी. ऐसा मेरे अलावा कइयों के साथ हुआ.
एम जे और एस पी में अंतर था. जहां एम जे को रिपोर्ट खुद करने का हद दर्जे का जुनून था, वहीं एस पी ने गिनी-चुनी रिपोर्ट लिखीं. एस पी का मानना था कि संपादक को रिपोर्ट करानी ज़्यादा चाहिए, करनी कम चाहिए. जबकि एम जे का मानना था कि न केवल करनी चाहिए, बल्कि करानी भी चाहिए. शायद दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं, पर एक बात में दोनों एक मत थे कि कभी रिपोर्ट का खंडन नहीं आना चाहिए. जिस संवाददाता की रिपोर्ट का खंडन आ जाता था, उससे दोनों ही सावधान हो जाते थे. शायद इस अनुशासन ने ही हम में से कुछ को इस लायक बनाया कि हमारी रिपोर्ट का खंडन कभी नहीं आया.
एम जे अकबर ने पहली बार एक ही संस्थान से निकलने वाले दो साप्ताहिकों में प्रतियोगिता का माहौल बना दिया था. यह ऐसी अद्भुत प्रतियोगिता थी, जिसमें कुछ हथियार तो दोनों के एक ही थे, यानी हम कुछ संवाददाता. अगर एम जे पहले स्टोरी करने के लिए कहते थे, तो वह पहले संडे में जाती थी. अक्सर इस होड़ में जीत रविवार की होती थी, पर अकबर को हमेशा श्रेय मिलता था. यह प्रतियोगिता खूब चली, पर एस पी और एम जे में कभी वैमनस्य हुआ ही नहीं.
एस पी व्यवहार में उस साधु की तरह थे, जो नदी में नहा रहा था और जिसने डूबते बिच्छू को अपनी हथेली पर सहारा दिया, पर बिच्छू ने उसे ही डंक मार दिया. एस पी डंक खाते रहे, पर कभी भी अपने किसी सहयोगी पर पलट वार नहीं किया. दर्द सहना और दर्द सहन न होने पर कहीं अकेले निकल जाना एस पी ने अपनी आदत बना ली थी. मैं जब भी कलकत्ता जाता था, मुझे वह अपने साथ ही ठहराते थे. शाम को दफ्तर बंद होने के बाद ड्राइवर को घर भेज देते थे तथा कहते थे, गाड़ी चलाओ.अजीब-अजीब जगहों पर साथ ले जाते थे. दुनिया जहान की बातें करते थे. बाद में जब उन्हें समझ पाया, तब पता चला कि वह अपना गम भुलाने के लिए यह सब करते थे. उनके निजी जीवन में जब भी परेशानी का लम्हा आता था, वह अक्सर जंगलों, पहाड़ों की ओर भागते थे. एक बार तो एक महीने तक दुधवा और बुंदेलखंड के जंगलों में मुझे साथ लिए घूमते रहे. उसी दौरान उन्होंने कोल आदिवासियों की ज़िंदगी को बहुत नज़दीक से देखा. रात-रात भर कोल ठेठ जाड़े की रात में क्यों नाचते हैं, इसका कारण जाना. मानिकपुर का लोकतंत्र सी बी सिंह से समझा. पर रहे वह हमेशा औघड़ साधु जैसे, किसी पर वार नहीं किया, किसी से लिया नहीं, दिया ही दिया.
आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं, बदल रहे हैं अथवा बदल दिए गए हैं, नतीजतन, उन पत्रकारों के सामने भटकाव जैसी स्थिति आ गई है, जो पत्रकारिता को मनसा-वाचा-कर्मणा अपना धर्म-कर्तव्य और कमज़ोर-बेसहारा लोगों की आवाज़ उठाने का माध्यम मानकर इस क्षेत्र में आए और हमेशा मानते रहे. और, वे नवांकुर तो और भी ज़्यादा असमंजस में हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में सोचकर कुछ आए थे और देख कुछ और रहे हैं. ऐसे में, 2005 में प्रकाशित संतोष भारतीय की पुस्तक-पत्रकारिता: नया दौर, नए प्रतिमान हमारा मार्गदर्शन करती और बताती है कि हमारे समक्ष क्या चुनौतियां हैं और हमें उनका सामना किस तरह करना चाहिए. चार दशक से भी ज़्यादा समय हिंदी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले संतोष भारतीय देश के उन पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं, जो देश और समाज से जुड़े प्रत्येक मुद्दे पर निर्भीक, सटीक, निष्पक्ष टिप्पणी करते हैं.
एम जे और एस पी में अंतर था. जहां एम जे को रिपोर्ट खुद करने का हद दर्जे का जुनून था, वहीं एस पी ने गिनी-चुनी रिपोर्ट लिखीं. एस पी का मानना था कि संपादक को रिपोर्ट करानी ज़्यादा चाहिए, करनी कम चाहिए. जबकि एम जे का मानना था कि न केवल करनी चाहिए, बल्कि करानी भी चाहिए. शायद दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं, पर एक बात में दोनों एक मत थे कि कभी रिपोर्ट का खंडन नहीं आना चाहिए.