राकेश टिकैत अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत से अलग निकले। महेंद्र सिंह टिकैत का अपना जलवा था। उनके हुक्के की गड़गड़ाहट से सत्ता कांपती थी। राकेश टिकैत को रोना पड़ा। लेकिन उनका रोना रंग जमाएगा। ऐसा लगने लगा है। पश्चिम उप्र के लोगों की खासियत है वे गिरती बाल को हवा में उछालने की कला जानते हैं। लेकिन इसी पश्चिम उप्र के लोगों में एक खामी भी है ये बड़बोले खूब होते हैं।

टिकैत का बड़बोलापन हम कई दिनों से देख भी रहे थे। लग रहा था जैसे टिकैत संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं से अलग अपनी धुरी बनाना चाहते हैं। पत्रकार अजीत अंजुम ने टिकैत को खूब कवरेज दी। टिकैत का मसखरा अंदाज भी लोगों को पसंद आया हो, संभव है। लेकिन योगेन्द्र यादव, दर्शन पाल सिंह और राजेवाल जैसे नेताओं की गम्भीरता जितनी मायने रखती थी, टिकैत उतने ही अ- गम्भीर लगे। बहरहाल, इस सरकार की रची साजिश पर टिकैत ने रोकर ऐसा पानी फेरा कि अब सरकार को फूंक फूंक कर कदम रखना पड़ेगा।

इस बात में कोई शक नहीं कि यह सिरे से एक ‘फूहड़’ सरकार है। मूर्ख, जिद्दी, अनुभवहीन, तानाशाह और कई बातों के संदर्भ में एकदम नंगी सरकार। टुच्चापन तो जैसे इसकी तासीर में हो। कांग्रेस सरकार भी इतनी नंगी कभी नहीं रही। ऐसे लोग जब जाते हैं तो बहुत पिट कर जाते हैं। इस सरकार का कमीनापन और नंगई हमने 26 जनवरी को देखा। अगर दीप सिद्धू की मोदी और अमित शाह के साथ तस्वीर न होती तो हम इतनी स्पष्टता के साथ न कह पाते न लिख पाते।
अब सब कुछ सबके सामने है। लेकिन एक प्रश्न अभी भी दिमाग में तैर रहा है क्या 26 जनवरी की किसान परेड का फैसला सही था। बढ़ चढ़ कर बोला जा रहा था कि एक लाख ट्रेक्टर आएंगे उसमें पांच लाख लोग होंगे।

मतभेदों से भरे मोर्चे के नेताओं के नेतृत्व में क्या इतनी दूरंदेशी थी कि भीड़ उनके काबू में रहती। इनमें गांधी कोई नहीं था। गांधी के आंदोलन में भी हिंसा हुई पर गांधी ने फिर भी देश को कंधों पर उठा कर रखा। सरकार, उसका समूचा अमला और गोदी मीडिया जब बदनाम करने और बांटने की नीति पर काम कर रहे हों तो कोई भी निर्णय उसी के परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए। हिंसा किसी भी पक्ष ने की हो या रची हो पर इसका दाग किसान आंदोलन पर लगा। उसके बाद सोशल मीडिया में हुई चर्चाओं और बहसों पर गौर किया जाना चाहिए।

सबसे बेहतरीन वीडियो ‘वायर’ का आया। अपूर्वानंद से वायर के अजय आशीरवाद ने बात की। अपूर्वानंद की सुलझी बातें सब तरफ सुनी गयीं। कई लोगों ने मुझे बताया और कुछ ने तो वीडियो ही भेज दिया। अच्छा लगा। आशुतोष वगैरह ने भी ‘सत्य हिंदी’ पर अपने चुनिंदा पैनल के साथ अलग अलग चर्चाएं कीं। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय का मंतव्य निराला ही है। बहुत सरलता से समझाते हुए, बहुत कुछ ज्ञानपरक भी रहता है। जिसको बोलचाल की भाषा में हम कह सकते हैं ‘क्लीयरकट बात’। लेकिन एक पेंच भी है।

मैं चाहता हूं कि अपने उन तमाम लोगों को उनके और अपूर्वानंद के वीडियो भेजूं जो गोदी मीडिया के आगोश में जी रहे हैं। मैं भेज भी रहा हूं पर लाभ नहीं हो रहा। भाषा की बात तो है ही, लंबे वीडियो भी एक दिक्कत है। लोग हैं जो बहसों में कहते हैं कि हमें दूसरा पक्ष भी बताइए। संतोष जी इस बात को समझें तो बेहतर हो। बाकी आरफा खानम और भाषा सिंह के वीडियो भी मैं लोगों को भेजता हूं। इन लोगों के वीडियो मुझे मिलते हैं और मैं उन्हें फारवर्ड करता हूं। पुण्य प्रसून वाजपेयी का सब कुछ वैसा ही चल रहा है। वे प्रासंगिक होते हुए भी अप्रासंगिक से लगते हैं।

भाषा, शैली, जल्दबाजी और लंबाई। इस गर्म माहौल में लोगों का मूड कुछ होता है और उनका बखान कुछ होता है। इसीलिए कहा प्रासंगिक होते हुए भी अप्रासंगिक। वाजपेयी में भरपूर विश्वास के साथ मैं यह लिख रहा हूं। उर्मिलेश जी की ओर से भी कुछ नयापन नहीं दिखाई दे रहा। जब चौतरफा बात कही गई कि सनी देओल के चुनाव प्रचार में दीप सिद्धू बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा था तब उर्मिलेश जी सनी देओल का नाम लेने से डर रहे थे शायद। यूं ही इस प्रसंग की चर्चा की मैंने। ठंडापन आया है उनके विश्लेषणों में। वे अडिग हैं नमस्कार, आदाब, सतश्री अकाल में।

जैसे एक ‘नमस्कार’ में सारी बात नहीं आती। बहरहाल, यह वैसा ही कुछ है जैसे प्रभाष जोशी कहते थे मुझे मेरे क्रिकेट प्रेम पर कोई सीख न दे। उर्मिलेश जी को यह भी देखना चाहिए कि जो कुछ उनका कंटेंट होता है वह सब सारी जगह आ चुका होता है।इसलिए बहुत कुछ नयापन नहीं होता। पर असल बात एक तो यह कि जिस ‘औरे’ में हम रहते हैं उससे बाहर देखने की इच्छा नहीं होती और दूसरा यह कि अपने प्रशंसकों से हमें इतना मोह हो जाता है कि उससे बाहर की आलोचना ही हमें व्यर्थ सी लगने लगती है। कभी कभी सोचता हूं ये बातें रवीश कुमार जैसों के साथ क्यों नहीं होतीं। रवीश में भी कभी कभी ‘फ्रस्ट्रेशन’ सा नज़र आता है पर उससे बाहर निकलना भी रवीश को खूब आता है।

फिलहाल तो आज के माहौल में रवीश कुमार की तारीफ तो हर चौखट पर हो रही है। यह भी एनडीटीवी ने ही बताया कि छ: करोड़ की संख्या वाला चैनल हो गया है वह। या 26 जनवरी को इतने लोगों द्वारा देखा गया। बधाई। दुनिया जान रही है कि सत्य क्या है। इसी सत्य और किसान आंदोलन की पवित्रता के चलते टुच्ची सरकार भी भीतर से हिली हुई दिखती है। इसीलिए कल रात जो दल बल के साथ पुलिस फोर्स गाजीपुर बार्डर पर तैनात हो रहा था वह सुबह तक सिरे से गायब हो गया और गोदी चैनल वाले भी भाग उठे।

फिर भी चैनलों पर सरकार का डर छाया हुआ है इसी के आलोक में पूछा जाना चाहिए कि राजदीप सरदेसाई को इस्तीफा देने के लिए क्यों मजबूर किया गया। बहरहाल, किसान आंदोलन फिर जमेगा। आंदोलन में भारी संख्या में आयीं माताएं और बहनें कड़कती ठंड में एक विश्वास के साथ बैठी हैं उनका विश्वास ही आंदोलन की उम्र लंबी करेगा। किसान रीढ़ है इस देश की। इससे कौन अनजान है। जो अनजान होने का नाटक करे उसका गर्त में जाना निश्चित है। इसीलिए दुआ है इस आंदोलन की उम्र लंबी हो जब तक किसान जीत न जाएं।

बसंत पांडे

 

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