15भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, इसलिए निश्चित रूप से भरतीय आम चुनाव की प्रक्रिया दुनिया के किसी भी देश में होने वाली सब से बड़ी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया को निष्पक्ष और कारगार तारीके से सम्पन्न कराने की ज़िम्मेदारी निर्वाचन आयोग की है, जो एक संवैधानिक संस्था है. भारतीय संविधान ने निर्वाचन आयोग को संसद, प्रत्येक राज्य के विधानमंडल और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के चुनाव कराने और चुनावी प्रक्रिया के नियंत्रण की सम्पूर्ण जिम्मेदारी दे रखी है. आयोग 25 जनवरी 1950 को वजूद में आया था, और तब से लेकर आज तक इसी संस्था की देख-रेख में भारत में चुनाव होते आये हैं. अगर आज भारत खुद को दुनिया के राजनितिक मानचित्र पर एक जीवंत लोकतंत्र के रूप में स्थापित करने में कामयाब हुआ है तो इस में इस संस्था का भी कुछ न कुछ योगदान ज़रूर है. लेकिन ऐसा नहीं है कि आयोग (खास तौर पर चुनावों के दौरान) काम काज और चुनाव के सञ्चालन और इसकी व्यवस्था पर ऊँगली नहीं उठती. हालिया आम चुनाव में भी यह संस्था विवादों में घिरा रहा.
16 जून को आम चुनाव के नतीजों की घोषणा के साथ ही दो महीने 10 दिन तक चलने वाली सोलहवीं लोक सभा चुनाव की प्रक्रिया समाप्त हो गई. यदि एक-दो  छिट-फुट अप्रिय घटनाओं और कुछ बूथों पर गड़बड़ी के आरोपों को छोड़ दिया जाये तो हिंसा की कोई बड़ी वारदात नहीं हुई और मतदान की प्रक्रिया शान्ति पूर्वक संपन्न हो गई, जिसका श्रेय भारतीय मतदाताओं के साथ-साथ निश्चित रूप से निर्वाचन आयोग को देना चाहिए. बहरहाल, चुनावों के मौसम में सियासी पारा इतना ऊपर चढ़ जाता है की सियासी पार्टियों के लिए चुनाव आयोग द्वारा जारी दिशानिर्देश और आदर्श आचार संहिता चुनाव प्रचार में बाधा प्रतीत होने लगते हैं, लिहाज़ा राजनितिक दल और उम्मीदवार बेरोक-टोक इनकी की धज्जियॉं उड़ने में संकोच नहीं करते.
इस आम चुनाव में आदर्श आचार संहिता के उलंघन के इतने मामले सामने आए कि ऐसा लगने लगा कि जैसे हर राजनेता अपने वोटरों को लुभाने के लिये सिर्फ़ आचार संहिता ही नहीं बल्कि मर्यादा की सभी सीमाओं को भी लांघ सकते हैं. आयोग ने इन मामलों में कई उम्मीदवारों को नोटिस भी दिया, लेकिन उन राजनेताओं के तेवर देख कर ऐसा नहीं लगा कि किसी नोटिस का उन पर कोइ खास असर हुआ हो. कई मामलों में आयोग पर विभिन्न दलों द्वारा पक्षपात कर आरोप भी लगा. मिसाल के तौर पर आज़म खान और उनकी पार्टी को शिकायत हो सकती है कि भड़काऊ भाषण देने के आरोप में उनके चुनव प्रचार पर पाबन्दी लगा दी गई, जबकि अमित शाह को इसी तरह के आरोपों के बावजूद छूट दे दी गई. जहॉं मतदान केन्द्र पर चुनाव के दिन चुनाव चिन्ह के साथ सेल्फ़ी (मोबाइल से फोटो) तैयार करने और प्रेस कांफ्रेंस करने पर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एफ आई आर दर्ज की गई, वहीँ राहुल गांधी को चुनाव के दिन मतदान केन्द्र में दाखिल होने और इ. वि. एम. का पास जाने के बाद भी क्लीन चिट दे दि गई्। बहरहाल, पहली नज़र में आदर्श आचार संहिता के बेअसर होने का कारण जो कारण समझ में आता है वह है पिछले चुनाओं में दर्ज मामलों पर करवाई का आभाव.
इसका कारण जानने के लिये भारतीय निर्वाचन आयोग में इस साल अप्रैल में आर टी आई कार्यकर्त्ता अनिल गलगली ने एक आर टी आई आवेदन दाखिल करके जवाब तलब किया था कि पिछले तीन आम चुनाव में आचार संहिता के उलंघन के कितने मामले दर्ज किये गए और दोषी उम्मीदवारों पर क्या करवाई हुई? उन्होंने यह भी पूछा था कि क्या इन मामलों की सुनवाई की कोई समय सीमा तय है? इन सवालों का जवाब देने से आयोग ने यह कह कर इंकार कर दिया कि इस सम्बन्ध में दंड निर्धारित करने की समय सीमा, और इन सभी मामलों के रिकॉर्ड को एक साथ संकलित करने की कोई साफ़ नीति नहीं  है, जिसकी वजह से इस सम्बन्ध में जानकारी नहीं दी जा सकती। इस तरह, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सारे क़ानून दंतविहीन और अप्रभावी क्यों हैं?
चुनावों में भी पक्षपातपूर्ण कवरेज और पेड न्यूज़ प्रसारित/प्रकाशित करने का आरोप मेनस्ट्रीम मीडिया पर लगे. और अगर टेलीविज़न चैनलों की चुनाव कवरेज का जायज़ा लिया तो मालूम होगा इन चुनावों में सिर्फ भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ही चुनाव मैदान में थे, और किसी अन्य दल का कोई वजूद ही नहीं था. मीडिया  लोकतंत्र के चौथे सतम्भ के रूप जाना जाता है. यह सिर्फ ख़बरों के प्रसार का माध्यम ही नहीं है बल्कि किस भी मुद्दे पर जनमत तैयार करने का एक महत्वपूर्ण जरिया भी है. हालॉंकि यह मुश्किल काम है, लेकिन फिर भी  चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग को मीडिया कवरेज पर भी नज़र रखने पर विचार करना चाहिए ताकि हर एक पार्टी को बराबर का कवरेज मिल सके. साथ ही सुचना क्रांति के इस दौर में चरणवध मतदान की एक और खामी नज़र आई कि किसी एक क्षेत्र में चुनाव प्रचार की समय सीमा की समाप्ति के बाद भी टेलीविज़न पर बड़ी बड़ी रैलियां, पार्टियों घोषणापत्र और प्रेस कांफ्रेंस का प्रसारण जारी रहा. इस सम्बन्ध में कुछ ठोस, स्पष्ट और व्यापक क़ानून बनाने की ज़रुरत है.
चुनाव में जनता की भागीदारी
कुछ दशक पहले तक देश में चुनाव के मौसम का एक सामाजिक पहलु भी था, जिसमें चुनावों को न सिर्फ सरकार बनाने की क़वायद की तरह देखता जाता था बल्कि इससे एक उत्सव की तरह भी मनया जाता था. बूढ़े, जवान, बच्चे, महिलाऐं सभी में एक तरह का उत्साह. हर मतदान केन्द्र पर मेले के जैसा माहौल होता था. पोस्टरों, बैनरों और पर्चों पर कोई पाबन्दी नहीं थी. लेकिन धीरे धीरे चुनाव में हिंसा और अपराधी तत्व शामिल होने लगे बूथ कैपचरिंग, मतदान केन्द्रों पर हिंसा आम होने लगी।  इस के साथ ही आम लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी भी काम होने लगी. समय कुछ और आगे बढ़ा और बूथ लूटरे जो दुसरे नेताओँ के लिये बूथ लूटते थे अब खुद के लिये बूथ लूटने लगे. इस तरह भारतीय राजनीती में बाहुबलियों क प्रवेश प्रारम्भ हुआ. इस अवधि में शायद ही कोई  चूनाव हूआ हो जिस मैं खून-खराबा न हुआ हो.
इसी पृष्टभूमि में चुनाव आयोग को सक्रियता दिखानी पड़ी और कूछ ऐसे कदम उठाने पड़े जिनकी आवश्यकता थी. चुनावों को चरणबद्ध तरीके से करवाना वैसा ही एक क़दम था. नतीजा यह हुआ कि जो मतदान एक दिन में समाप्त हो जाता था और पूरी चुनावी प्रक्रीया दस से पन्द्रह दिन में पूरी हो जाती थी अब उसमें दो से ढाई महीने का समय लागने लगा. सोलहवीं लोक सभा के लिये हालिया आम चुनाव नव चरणों में और दो महीने दस दिन की अवधी में संपन्न हुए. ज़ाहिर है इतनी लम्बी अवधी थका देने वाली और बहुत सरे प्रशासनिक समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं.  इसलिए इस अवधी को ज़रुरत से सीमित रखने की ज़रुरत है.
चुनाव खर्च
इस चुनाव में आयोग ने एक उम्मीदवार के द्वारा अधितम् खर्च की सीमा 40 लाख से बढ़ा कर 70 लाख रुपया कर दिया, जबकि आयोग द्वारा 2009 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ज़यादातर उम्मीदवारों ने  तय शुदा राशि का आधा ही खर्च किया था। अलबत्ता राजनितिक दलों की खर्च की कोई सीमा नहीं है (देखिये पैसा चुनाव जीत रहा है, मुद्दा नहीं चौथी दुनिया, 5 मई 2014), जो चुनाव में स्टेट फंडिंग की सिफारिश को मज़बूत करता है. क्योंकि छोटी पार्टियों को बराबरी का मौक़ा नहीं मिल पता.
चुनाव आयोग और नव निर्वाचित संसद से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि ये न केवल राजनीती के अपराधीकरण पर अंकुश लगाएंगे बल्कि वह उत्सव क महौल जो भारतीय चुनावों की खासियत थी उससे भी बहाल कर के जम्हूरियत के इस त्योहार को और खूबसूरत, समावेशी और सहभागितापूर्ण बनाएंगे, और अनिवार्य मतदान के प्रस्ताव पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए, ताकि लोकतंत्र में आम लोगों के विश्वास को एक बर फिर से ज़िंदा किय जसके और देश जिस बुलंदियों पर पहुँचने के सपने देख रह है उन सपनों को पूरा किया जा सके.

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