यह कहानी है लोक बनाम तंत्र के बीच जिद की. लोक की जिद है कि वह तंत्र से मिलकर ही रहेगा, उधर तंत्र भी कमर कस चुका है कि चाहे जो हो जाए, लेकिन लोक को अपने भव्य महल में घुसने नहीं देंगे. थोड़ा ग़ौर करें, तो यह कहानी जिद के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र में छिपे षड्यंत्र की भी है.
अगर आप देश के राष्ट्रपति से मिलना चाहते हैं, तो क्या करेंगे? पत्र लिखेंगे, ई-मेल भेजेंगे और मुलाकात का समय मांगेंगे. बावजूद इसके आपको मुलाकात का समय न मिले, तो राष्ट्रपति कार्यालय को रिमाइंडर भेजेंगे. कुल मिलाकर यह कि इस तरह आप महीने-दो महीने तक अपनी कोशिशें जारी रखेंगे. और, फिर भी कुछ नहीं हुआ, तो थक-हार कर घर बैठ जाएंगे. लेकिन, यह कहानी दो ऐसे भाइयों की है, जो पिछले दस सालों के दौरान राष्ट्रपति को 3500 पत्र लिख चुके हैं, आरटीआई दायर कर चुके हैं, इसके बावजूद उन्हें अब तक राष्ट्रपति से मिलने का समय नहीं मिल सका है. ऐसा भी नहीं है कि वे अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए राष्ट्रपति से मिलना चाहते हैं, बल्कि वे अपने इलाके में क़रीब एक दशक से महामारी बन चुके काला ज्वर के संबंध में राष्ट्रपति से मिलना चाहते हैं.
बिहार के सीतामढ़ी ज़िले के तेम्हुआ गांव के रहने वाले हैं दिलीप कुमार और अरुण कुमार. दोनों सगे भाई हैं. वे पिछले दस सालों से राष्ट्रपति को पत्र लिख रहे हैं. उनके गांव और इलाके में काला ज्वर महामारी बन चुका है. इसी बीमारी के बारे में दोनों भाई राष्ट्रपति को सूचित कर रहे हैं. दरअसल, 2005 से 2008 के बीच इस गांव में 44 से ज़्यादा लोगों की मौत काला ज्वर के चलते हुई. एक ही परिवार के कई सदस्य काला ज्वर की चपेट में आकर जान गंवा बैठे. यह सब देखकर गांव के दो भाइयों दिलीप और अरुण ने कुछ करने की ठानी. इन दोनों भाइयों ने हर दरवाजा खटखटाया, लेकिन कहीं से कोई आशा की किरण नज़र नहीं आई. तब उन्होंने अपना करियर दांव पर लगाकर इस महामारी से लड़ने का संकल्प लिया. 24 सितंबर, 2004 को दोनों भाइयों ने राष्ट्रपति को अपना पहला पत्र भेजा और इलाके को इस महामारी के कहर से बचाने के लिए गुहार लगाई. तबसे लेकर अब तक पत्र लिखने का सिलसिला बराबर जारी है, क्योंकि राष्ट्रपति भवन से अब तक न तो उन्हें मिलने का समय दिया गया और न ऐसी कोई कार्यवाही की गई, जिससे यह लगे कि काला ज्वर को जड़ से मिटाने के लिए कोई कारगर क़दम उठाया गया है, सिवाय इसके कि उनके आवेदन (पत्र) को राष्ट्रपति सचिवालय ने भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग को मई 2012 में उचित कार्रवाई के लिए भेज दिया. दिलीप कुमार से बात करने पर पता चलता है कि अब तक सरकार की तरफ़ से ऐसी कोई कार्यवाही होती नहीं दिखी, जिससे संतुष्ट हुआ जा सके.
शुभकामना लीजिए, मिलने का समय नहीं है
यह जानना काफी दिलचस्प है कि क़रीब 3500 पत्र लिखने का जवाब राष्ट्रपति भवन ने क्या दिया. 25 जुलाई, 2014 को दिलीप एवं अरुण को राष्ट्रपति भवन से एक पत्र मिला, जिसमें भारत के राष्ट्रपति के निजी सचिव कहते हैं, आपने राष्ट्रपति से मिलने का समय देने का अनुरोध किया है. इस संबंध में मुझे यह कहने का निर्देश हुआ है कि राष्ट्रपति जी की अन्य कार्यक्रमों में व्यस्तता के कारण आपका अनुरोध स्वीकृत नहीं हुआ है. राष्ट्रपति जी आपको शुभकामनाएं प्रेषित करते हैं. किसी भी आम आदमी के लिए यह जवाब किसी मजाक से कम नहीं हो सकता. कोई शख्स दस सालों से लगातार पत्र लिखकर राष्ट्रपति भवन को अपने इलाके की समस्या बता रहा है और बता रहा है कि कैसे ग़रीब लोग काला ज्वर नामक महामारी से मर गए. उसके लिए इस शुभकामना का क्या अर्थ है?
दरअसल, 2005 से 2008 के बीच तेम्हुआ गांव में काला ज्वर के 211 मरीज थे, जिनमें से 44 की मौत हो गई. इस गांव की आबादी क़रीब दो हज़ार है. बीमार लोग इतने ग़रीब थे कि उन्हें इलाज के लिए अपने खेत एवं गहने बेचने पड़े, कर्ज लेना पड़ा. बावजूद इसके, इस बीमारी से एक ही परिवार के कई लोगों की मौत हो गई. इनमें ज़्यादातर समाज के वंचित तबके के लोग थे. कहीं से कोई उम्मीद की किरण न दिखने के बाद दोनों भाइयों ने 2011 में लोक स्वातंत्र्य संगठन यानी पीयूसीएल से संपर्क किया. पीयूसीएल ने 5 सदस्यों का एक जांच दल गठित किया. जून 2011 में यह टीम तेम्हुआ गांव पहुंची. टीम ने वहां के विभिन्न टोलों में जाकर लोगों से बातचीत की. टीम ने दिलीप एवं अरुण द्वारा बनाई गई काला ज्वर पीड़ितों की सूची जांची, जो बिल्कुल सही थी. 211 पीड़ितों में से 44 की मौत हो गई थी. टीम ने अपनी जांच में पाया कि इस बीमारी की वजह से लोग आर्थिक बदहाली के शिकार हो गए. ज़्यादातर लोग दलित समुदाय के थे. आर्थिक बदहाली की वजह से बड़ी संख्या में स्थानीय युवाओं को नौकरी के लिए दिल्ली, पंजाब जैसे राज्यों की ओर पलायन करना पड़ा. सरकारी अस्पतालों की हालत बहुत खराब थी. ग़रीब लोगों को दवाइयां बाहर से खरीदनी पड़ती थीं. टीम ने जब पुपरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का निरीक्षण किया, तो पाया कि डॉक्टर नदारद थे. बुलाने पर जब डॉक्टर आए, तो उन्होंने गांव वालों के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया.
चौथी दुनिया से बातचीत के दौरान दिलीप कुमार ने कहा कि हम दोनों भाई राष्ट्रपति जी को इसलिए लगातार पत्र लिख रहे थे और अभी भी लिख रहे हैं, ताकि हमारा क्षेत्र काला ज्वर से मुक्त हो सके और भविष्य में ग़रीबों की जान न जाए, पीड़ितों को मदद मिल सके, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अभी भी दो साल पहले इस बीमारी से एक आदमी की मौत हो गई. वह कहते हैं कि मौजूदा समय में इस बीमारी का कहर थोड़ा कम ज़रूर हुआ है, लेकिन फिर भी इसका ख़तरा हमेशा बना हुआ है. ऐसे में हम यह उम्मीद करते हैं कि अगर राष्ट्रपति महोदय इस मामले में हस्तक्षेप करें, तो शायद हमारे इलाके की तस्वीर बदल जाए और इस बीमारी का नामोनिशान मिट जाए. दिलीप कुमार ने इस संवाददाता से जो एक लाइन कही, वह हमारे लोकतंत्र के एक स्याह पक्ष को भी सामने लाती है. दिलीप कहते हैं कि यह हमारा कैसा लोकतंत्र है, जहां 3500 पत्र लिखने के बाद भी राष्ट्रपति से मिलने का समय नहीं मिलता. इससे अच्छा तो जहांगीर का राज था कि महल के बाहर घंटा बजाने भर से कोई आदमी अपनी फरियाद लेकर शहंशाह के पास पहुंच जाता था.
बहरहाल, यह अच्छी बात है कि मौजूदा वक्त में काला ज्वर की महामारी अपना कहर नहीं ढा रही है, लेकिन बिहार के कई ज़िलों में यह समय-समय पर अपना कहर ढाती है. इससे यह साफ़ है कि अभी तक इस महामारी पर पूरी तरह से काबू पाने के लिए सरकार द्वारा कोई ठोस कार्यक्रम नहीं चलाया गया है. ऐसे में सीतामढ़ी के भाइयों दिलीप एवं अरुण का प्रयास न सिर्फ सराहनीय है, बल्कि उनके प्रयास से हमारे महान लोकतंत्र की कुछ अलग तस्वीर भी देखने को मिल रही है. सवाल है कि इस लोकतंत्र में तंत्र को लोक से मिलने, उसकी समस्या सुनने में दिक्कत क्या है? या फिर सचमुच इस देश के आम आदमी के लिए लोकतंत्र वही है, जिसके दरवाजे लोक के लिए हमेशा बंद रहते हैं.