isisssssssssssभारतीय मीडिया ग्रुप, जिसमें प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार शामिल थे, को हज़रत इमाम हुसैन बोर्ड की ओर से इराक़ की सही तस्वीर जानने के लिए आमंत्रित किया गया था. नज़फ एयरपोर्ट पर विभिन्न देशों के कई ग्रुप हज़रत इमाम हुसैन एवं हज़रत अली के रौज़े की ज़ियारत के लिए मौजूद थे. किसी के चेहरे पर कोई डर या खौ़फ नहीं था, जबकि इस वक्त इराक़ के नाम से पूरी दुनिया भयभीत हो जाती है. नज़फ से लेकर कर्बला तक के रास्ते में आबादी का कोई नामोनिशान नहीं था. हां, तक़रीबन प्रत्येक दो किलोमीटर पर जबरदस्त चेकिंग हो रही थी. वहां मौजूद इराक़ी सैनिक अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे. इस समय आईएसआईएस की वजह से पूरे इराक़ में सघन जांच-पड़ताल हो रही है. आबादी थी, दुकानें थीं, लेकिन लोग नहीं थे. हाई अलर्ट के चलते सड़कों पर चहल-पहल नज़र नहीं आ रही थी. लेकिन, नज़फ से कर्बला में दा़खिल होते ही लोग दिखने लगे.

बड़ी संख्या में महिलाएं काला बुर्क़ा पहने इमाम हुसैन के रौज़े की तऱफ जा रही थी. कर्बला की लगभग पूरी आबादी शिया है, लेकिन सुन्नी भी इमाम हुसैन के रौज़े पर हाज़िरी देते है. भारतीय मीडिया ग्रुप की पहली मुलाकात रौज़े इमाम हुसैन ट्रस्ट के प्रमुख शेख अब्दुल मेंहदी कर्बलाई से हुई, जिन्होंने बड़ी गर्मजोशी से हम सबका स्वागत किया. उन्होंने भारतीय भाईचारे एवं मेलजोल की तारी़फ करते हुए कहा कि कभी इराक़ के लोग भी मिलजुल कर रहते थे, लेकिन आईएसआईएस ने सब बर्बाद कर दिया. कर्बलाई ने भारतीय मीडिया से बार-बार कहा कि इराक में शिया और सुन्नी के बीच कोई जंग नहीं है. अगर भारतीय मीडिया हमारी यह बात पूरी दुनिया तक पहुंचा सके, तो इराक़ पर उसका एहसान होगा. उन्होंने कहा कि दुनिया भर में ग़लत तस्वीर पेश की जा रही है कि इराक़ में शिया और सुन्नी के बीच जबरदस्त लड़ाई चल रही है. अगर ऐसा होता, तो आईएसआईएस के ़िखला़फ लड़ने वालों में सुन्नी और ईसाई शामिल न होते. आईएसआईएस ने न स़िर्फ शिया, बल्कि दूसरे पंथ-मजहब के केंद्रों को भी तबाह किया और सभी का खून बहाया. भारतीय मीडिया ग्रुप को रौज़े इमाम हुसैन, टीला-ए-ज़ैनब, खेमागाह और रौज़ा-ए-अब्बास का भी दौरा कराया गया.

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जुमेरात (गुरुवार) का दिन था और शायद हर जुमेरात के दिन इमाम हुसैन के रौज़े पर बड़ी संख्या में ज़ायरीन पहुंचते हैं. वहां बड़े-बड़े दालानों में काले बुर्क़े पहने महिलाएं बैठी थीं और पुरुष भी. कुछ महिलाओं से बड़ी मुश्किल से बातचीत हुई. भाषा की समस्या थी, लेकिन इशारों की भाषा भी बेहतरीन भाषा है. इसलिए इशारों में उनसे इराक़ के हालात जानने की कोशिश की, तो पता चला कि 11-12 वर्षीय बच्ची से लेकर वृद्ध महिलाएं तक आईएसआईएस से ब़खूबी वाक़ि़फ थीं और उसके लिए दुश्मन शब्द का इस्तेमाल कर रही थीं. पाकिस्तानी महिला सकीना, जिनके पति कर्बला में कार्यरत हैं, ने ज़ुबान समझी और बताया कि आईएसआईएस के आने से पहले इराक बेहतर स्थिति में था, लेकिन आज पूरे मुल्क में हर घर का कम से कम एक युवक आईएसआईएस के ़िखला़फ किसी न किसी पैरा मिलिट्री फोर्स में शामिल है. कर्बला में सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे. आबादी में जनजीवन सामान्य था. बाज़ारों में रौनक़ थी. दुकानों में रंग-बिरंगी मिठाइयां सजी हुई थीं. जगह-जगह बुर्क़े बिक रहे थे और गहने भी. किसी के चेहरे पर कोई ़खौ़फ नहीं था. बताते हैं कि आईएसआईएस के आने के बाद ज़ियारत करने वालों की तादाद में वृद्धि हुई है. इस बार चेहल्लुम (मोहर्रम का चालीसवां दिन) के मौक़े पर तक़रीबन 22 मिलियन ज़ायरीन कर्बला आए.

कर्बला में मिले अल-हसन नामक शख्स का कहना था कि ज़ायरीन की लगातार बढ़ती तादाद साबित करती है कि लोग आईएसआईएस से नहीं डरते. कर्बला में हमने शहीदों के जनाज़े भी निकलते देखे. आईएसआईएस के ़िखला़फ लड़ते हुए जब कोई शिया मारा जाता है, तो उसका जनाज़ा जुलूस की शक्ल में बड़ी इज्ज़त के साथ लाया जाता है, जिसमें हज़ारों लोग शिरकत करते हैं. अल-हसन ने बताया कि सद्दाम हुसैन के बाद फौज में किसी की अनिवार्य रूप से भर्ती नहीं होती थी, लेकिन शिया धर्मगुरु अयातुल्लाह सिस्तानी के ़फतवे के बाद इराक़ के हर घर से पंद्रह से पचपन साल तक का कोई न कोई पुरुष ़फौज में शामिल हुआ है. कर्बला से बग़दाद तक सौ किलोमीटर का स़फर यूं तो ज़्यादा लंबा नहीं था, लेकिन पूरे रास्ते बड़ी-बड़ी तोपों और टैंकों के साथ इराक़ी सैनिक नज़र आए. कड़ी

जांच-पड़ताल के बाद जब हम दजला के किनारे बसे बग़दाद पहुंचे, तो नज़ारा देखकर दंग रह गए. वह बग़दाद, जो अब्बासी ़िखला़फत का केंद्र था, जो पूरी दुनिया में तिजारती शहर क़ाहिरा के बाद दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक शहर माना जाता था, जिस बग़दाद की तस्वीर हम अपने ज़ेहन में लेकर गए थे, बिल्कुल बदला हुआ था. गगनचुंबी इमारतें, जिन पर कभी सद्दाम हुसैन की तस्वीर लगी होती थी, उन पर गोलियों के निशान नज़र आ रहे थे. दजला नदी के पुल से हशद अल शाबी (अर्द्धसैनिक बल) के वाहन ग़ुजर रहे थे. सैनिकों में कम उम्र के युवक भी शामिल थे. सड़क पर भीख मांगती ग़रीब एवं वृद्ध महिलाएं भी नज़र आईं. शे़ख अब्दुल क़ादिर जिलानी के रा़ैजे के क़रीब एक धूल-मिट्टी से अटा बाज़ार था, जहां ज़ायरीन अपनी पसंद की चीजें ़खरीद रहे थे. लेकिन, ़खुशहाल बग़दाद कहीं खो गया था.

इराक़ी मुद्रा, जिसका कभी दुनिया में जलवा था, आज अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है. एक हज़ार भारतीय रुपये के बदले 17 हज़ार इराक़ी दीनार मिल रहे थे. शे़ख अब्दुल क़ादिर के रौज़े पर ़खानकाह-ए-क़ादरिया के सज्जादानशीन शे़ख अब्दुल हमीद मोहम्मद से मुलाक़ात हुई, जिनके बेटे चार मार्च, 2014 को बग़दाद के नज़दीक एक हमले में मारे गए थे. उनका कहना था कि इस वक्त इराक़ का असल दुश्मन आईएसआईएस है और उसके ़िखला़फ जंग में सुन्नी भी शामिल हैं. बग़दाद में 20 मिनट रुकने के बाद एक जगह हम भोजन के लिए रेस्टोरेंट में गए, जहां युवकों के साथ-साथ छोटे-छोटे बच्चे भी काम करते नज़र आए. जब उनसे बातचीत हुई, तो उन्होंने कहा कि सद्दाम के वक्त खाने को था, बोलने की आज़ादी नहीं थी. अब बोलने की आज़ादी है, तो खाने को नहीं है.

पूरा बग़दाद देखना तो संभव नहीं था, लेकिन सद्दाम हुसैन के महल के सामने से ग़ुजरते हुए महसूस हुआ कि जहां कभी पानी के नलों की टोटियां तक सोने की होती थीं, बड़े-बड़े खूबसूरत क़ालीन बिछे रहते थे, वहां आज धूल उड़ रही थी. हमारे ड्राइवर ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी ज़ुबान में बताया कि एक वक्त था, जब ़खौ़फ के चलते यहां से कोई ग़ुजरता नहीं था और लोग दूर से सिर झुकाकर निकल जाते थे और आज है कि उल्लू बोल रहे हैं. बग़दाद की सड़कों पर शहीदों की तस्वीरें मीलों तक लगी हुई नज़र आईं. ये लोग इराक़ी फौज़ में थे और आईएसआईएस के ़िखला़फ लड़ते हुए शहीद हुए थे. बग़दाद में आईएसआईएस से लोहा लेने वाले सिविल मिलिशिया के लोगों से भी मुलाक़ात हुई. सिविल मिलिशिया अल हशद के सलाहकार करीम अल नूरी और सूबा अल-अंबार के कमांडर इन चीफ शे़ख मोहम्मद मु़खल़िफ ने बताया कि आईएसआईएस के ़िखला़फ तीन मोर्चों पर जंग जारी है. रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय एवं सिविल मिलिशिया अल हशद ने अली अकबर ब्रिगेड, अल अब्बास ब्रिगेड, मोक्तदा अलसद्र बिग्रेड के साथ मिलकर आईएसआईएस से म़ुकाबला किया और तिकरित, रमादी, सलाहुद्दीन व अल-अंबार में कामयाबी हासिल की.

सुन्नी फिरक़े से संबंध रखने वाले शे़ख मोहम्मद मु़खल़िफ का कहना था कि आईएसआईएस ने हज़ारों सुन्नियों को मार डाला, उनके घर उजाड़ डाले. वह सुन्नी कबीलों को यह कहकर उकसा रहा है कि वे उसकी फौज़ में शामिल होकर शियाओं को नेस्तनाबूद करें. शेख मोहम्मद मु़खल़िफ से जब पूछा गया कि हशद शिया मिलिशिया है? तो उन्होंने कहा, जब हमने देखा कि शिया बसरा और कर्बला के अंदर हमें बचाने आ गए हैं, तो यह एहसास हुआ कि ये हमारे भाई हैं. छोटे व कम उम्र के बच्चों को मैदान-ए-जंग में कैसे भेजा जा सकता है? इस सवाल पर वजीर-ए-आज़म के सलाहकार फालेह अल फैयाज़ ने कहा, हम उन्हें तीन महीने की ट्रेनिंग देते हैं. इस वक्त इमरजेंसी का माहौल है और फिर जिहाद के ़खतरे के बाद हमारी पहली ज़िम्मेदारी मुल्क है. हिंदुस्तानियों के आईएसआईएस में शामिल होने के सवाल पर अल अब्बासी ब्रिगेड के सीनियर कमांडर शे़ख मुस्लिम अल ज़ैदी का कहना था कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मध्य एशिया समेत तक़रीबन 80 देशों के लोग आईएसआईएस में शामिल हैं, लेकिन हिंदुस्तान से किसी के शामिल होने की उन्हें कोई जानकारी नहीं है. अल हशद के डायरेक्टर जनरल सैयद अ़फज़ल अल सामी का कहना था कि इराक़ से ़खात्मे के बाद आईएसआईएस दक्षिणी एशिया का रु़ख कर सकता है, इसलिए हिंदुस्तान को सावधान रहने की ज़रूरत है.

पूरे इराक़ में, चाहे वह नज़फ हो, कर्बला हो, बग़दाद हो या कु़फा, हर तऱफ ़फौजी टैंक नज़र आ रहे थे. दुकानों पर ज़रूरत की हर वस्तु मौजूद थी, लेकिन जब बिस्किट के एक छोटे पैकेट की क़ीमत एक हज़ार दीनार बताई गई, तो हमारी सांस रुक-सी गई. एक खुशहाल मुल्क, जो जंग का शिकार रहा, जिसने गृहयुद्ध झेला और अब आईएसआईएस का आतंक झेल रहा है, उसकी अर्थव्यवस्था की बदहाली हमने अपनी आंखों से देखी. बग़दाद में एक बुज़ुर्ग से पानी की बोतल खरीदते समय जब हमने उनकी माली हालत के बारे में पूछा, तो उस बूढ़ी आंखों में आंसू आ गए. कर्बला सूबे के गवर्नर अक़ील अल तुरैही से जब इराक़ की शिक्षा व्यवस्था की मौजूदा स्थिति के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब था, सरकार ने मोबाइल स्कूल बनाए हैं, हमारे पास अस्पताल नहीं है. दुनिया को चाहिए कि वह हमारा साथ दे, ताकि हम उबर सकें. जो लोग आईएसआईएस के हाथों बर्बाद हुए हैं, हमारी कोशिश है कि शांति के बाद उन्हें वहीं बसाया जाए, जहां से वे आए हैं. फिलहाल तालीम का बेहतर इंतज़ाम नहीं है. अभी हम स़िर्फ शरणार्थियों की जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं.

कर्बला शहर में रात के वक्त इमाम हुसैन के रौज़े पर जो रौनक़ नज़र आती है, वह कहीं और नज़र नहीं आई. इसी तरह बग़दाद, जो कभी नाइट लाइफ के लिए मशहूर था, अब शाम ढलते सूना हो जाता है. इराक़ के सभी शहरों में शरणार्थी शिविर लगे हैं. भारतीय मीडिया ग्रुप ने जब ऐसे ही एक शिविर का दौरा किया, तो कैमरे और पत्रकारों को देखकर बड़ी संख्या में बच्चे एकत्र हो गए. वे धूल से सने थे, कई बच्चों के पैरों में चप्पलें तक नहीं थीं. इस शिविर में 8,500 लोग हैं, जिनमें शिया, सुन्नी एवं ईसाई यानी सभी शामिल हैं. जब हमने शिविर के प्रबंधक से पूछा कि इनमें कितने शिया, सुन्नी या ईसाई हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि ये सब इराक़ी हैं.

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शिविर में मौजूद एक साठ वर्षीय महिला, जो अपने पति और बच्चों को आईएसआईएस के हमले में खो चुकी हैं, ने जब हमसे भोजन के लिए पूछा, तो हमारी आंखों में आंसू आ गए. हम कर्बला यूनिवर्सिटी भी गए, जहां लड़कियों के मुक़ाबले लड़के कम नज़र आए. स्थानीय अ़खबार रौज़ा-ए-हुसैन के संपादक सैयद सबाह तालिबानी ने कहा कि जो हालत 1947 से पहले हिंदुस्तानियों की थी, वही इस वक्त हमारी है. यहां शिया-सुन्नी की लड़ाई नहीं है, यहां स़िर्फ दहशतगर्दों के ़िखला़फ लड़ाई है, वतन को बचाने की लड़ाई है और हमारे वजूद की लड़ाई है.

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