इन दिनों हम निर्लज्जता की पराकाष्ठा देख रहे हैं। जो पचास साल के लिए राज करने आए हों वे सत्ता से फिसलते खुद को देखने लगें तो वे क्या क्या कर सकते हैं वह सब इन दिनों देखा जा सकता है। बंगाल की हार पीठ पर सौ कोड़ों की तरह। पर बेशर्मी की इंतहा ऐसी जैसे कुछ हुआ ही न हो। न देश, न लोकतंत्र। पर जैसे वे समझे हैं वैसी ही ताकत इधर की भी लगी है। रवीश कुमार ने खूब घेरा है प्रधानमंत्री को। वैक्सीन नीति पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को घेरा। प्रधानमंत्री को देश को संबोधित करके ऐसा झूठ पर झूठ बोलना पड़ा कि देश न केवल उनके बरगलाने में आ जाए बल्कि सुप्रीम कोर्ट को भी मौजूं जवाब मिल जाए। पर रवीश कुमार के तीन दिन के प्राइम टाइम ने सारी पोल पट्टी खोल दी अब सुप्रीम कोर्ट देखे। सवाल है कि पीएमओ अब क्या जवाब देगा ? वक्त साथ नहीं दे रहा साहेब का। उधर योगी की अकड़ नहीं सध रही। साहेब के आदमी को भाव नहीं उप्र में। सब फेल सा होता लग रहा है। अब सब निर्भर है गोदी चैनलों पर, आईटी सेल पर, ट्रोल्स आर्मी पर और उस जनता पर जो दिमाग से शांत है।
लेकिन इस संघर्ष का अंजाम क्या होगा, जरा सोचिए। लोकतंत्र की तो इन सात सालों में धज्जियां उड़ ही चुकी हैं क्या देश उस रूप में जिंदा रहेगा जो खुद को पुनर्जीवित और पुनर्विकास कर सके। नींवों को खोद दिया गया है। न अंग्रेजों ने, न चर्चिल ने ऐसे भारत की कल्पना की होगी। आशंकित तो वे थे ही। पर उस आशंका का स्वरूप क्या होगा, नहीं जानते थे। ऐसे प्रबुद्ध और पत्रकार जो मोदी सत्ता की तरफदारी करते थे काफी का मोहभंग हुआ है पर अभी भी कुछ हैं जो चिंदी की भांति चिपके हुए हैं। उनकी सनक उन्हें उस तरफ जिंदा रखे है। सब कुछ हर तरफ बेमानी सा लग रहा है। न मूल्य बचे हैं, न विचारधारा। न आदर्श, न शुचिता। बेशर्म घास की तरह सत्ता की राजनीति पसरती दिख रही है। कहीं से कोई आस नहीं जब तक मौजूदा शासन अपने वजूद में है। इसलिए इसे बेदखल करने का यही वक्त दिखता है। जब कोरोना का प्रबंधन गलत हुआ और इनकी सांसें अटकी सी दिखती हैं । उधर सुप्रीम कोर्ट के परिवर्तन ने इन्हें मुश्किलों में घेरा। और इधर सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से इनकी बौखलाहट बढ़ी। इस बौखलाहट का नमूना दिखा कार्टूनिस्ट मंजुल पर सरकार की ट्विटर को लिखी गयी चिठ्ठी में। बौखलाहट और मूर्खता की इंतहा। ये बौखलाहट और क्या क्या गुल खिलाएगी देखना है। एनडीटीवी और रवीश कुमार को सतर्क भी रहना है। हालांकि एनडीटीवी को पहले भी अपने हद में लेने की कोशिश कर चुकी है यह सरकार।
लग रहा है जैसे उप्र के विधानसभा चुनाव हफ्ते दस दिन दूर हैं। चौतरफा सोशल मीडिया पर योगी मोदी और चुनाव बस यही छाया हुआ है। ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर हमने सोचा था अभय दुबे कुछ नये विषय पर बात करेंगे। लेकिन उन्होंने सारी चर्चा योगी और किसान आंदोलन पर टिका दी। हालांकि अभय दुबे को सुनने का मोह कोई नहीं छोड़ सकता। इसीलिए उनका विश्लेषण बड़ा धारदार रहा। एक बात बड़ी मार्के की कही कि किसानों के लिए उप्र के चुनाव ‘लिटमस टैस्ट’ की तरह हैं। यदि किसान इन चुनावों में प्रभाव नहीं डाल पाए तो उनका अस्तित्व खतरे में समझिए। संतोष भारतीय की सक्रियता यू ट्यूब पर बड़ी मायने रखती है। उनका स्वयं जो तात्कालिक विषयों पर चिंतन – विश्लेषण होता है। सुकूनदायी होता है। ‘सत्य हिंदी’ आजकल धुआंधार है। यों कहिए कि उनके सारे योद्धा लगे हुए हैं अपनी अपनी जगह। चाहे शीतल पी सिंह हों, शैलेष हों,मुकेश कुमार हों, नीलू व्यास हों और यहां तक कि बुलेटिन प्रस्तुत करने वाला अंकुर ही क्यों न हो। लेकिन योगी योगी और योगी पर वे इतने ज्यादा टिक गये हैं कि कभी कभी उबाऊ सा सारा जंजाल लगता है। आलोक जोशी का नजरिया साफ है फिर भी वे जमे हैं। वे मानते हैं कि यह सब और अब जितिन प्रसाद जैसों का खेल बीजेपी के मुद्दे भटकाऊ षड़यंत्र का एक प्रपंच है और हम भी इस प्रपंच में शामिल हो रहे हैं। मुझे लगता है कि यह सब ‘सत्य हिंदी’ के लिए एक मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं। चटपटे विषयों से लोकप्रियता बढ़े तो हर्ज क्या। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि साख और स्तर भी बड़ी चीज होती है। दरअसल आशुतोष हर चैनल पर आते जाते रहते हैं। वे बिरले ही होते हैं जो समझ कर चैनलों का चुनाव करते हैं।
उ प्र चुनाव और योगी – मोदी पर इन दिनों आप ‘सत्य हिंदी’ के अलावा अभय दुबे, पुण्य प्रसून वाजपेयी और अन्य लोगों को भी खूब सुन सकते हैं। इसीलिए हमने कहा जैसे लगता है कि उ प्र के चुनाव हफ्ता दस दिन दूर हैं। वाजपेयी की मेहनत और विश्लेषण अपनी जगह है। और अच्छी है। इधर ‘सत्य हिंदी’ से विभूति नारायण राय का जुड़ना भी लाभप्रद हुआ है। उनके दो वीडियो हमें मिले और दोनों आला दर्जे के थे। एक तो मुसलमानों के ‘उम्मा’ पर था। नयी जानकारी मिली लोगों को। और दूसरा जनादेश चर्चा में नेहरू पर राय साहब की बेबाक राय थी। ‘सत्य हिंदी’ पर मुकेश कुमार की अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार से छ किस्तों में बातचीत भी काफी उल्लेखनीय है। हालांकि मुकेश कुमार हमेशा हवा में ढोलक बजाते दिखते हैं लेकिन जब कोई चर्चा करते या इंटरव्यू लेते हैं तो कार्यक्रम जानदार बन उठता है। उर्मिलेश जी के विश्लेषण हमेशा की तरह ‘जैसे सदाबहार’ हैं। क्या कहें। वायर के लिए आरफा खानम और न्यूज़ क्लिक के लिए भाषा सिंह बढ़िया कार्यक्रम दे ही रही हैं। लोगों की शिकायत है कि ‘वायर’ कुछ ढीला और हल्का क्यों नजर आ रहा है इन दिनों। आरफा खानम शेरवानी के सिवा कोई और दिखता ही नहीं। यों बौखलाई और चौपट होती सत्ता की पूंछ से भी संभल कर चलने में समझदारी है। ये वक्त भी गुजर जाएगा। लेकिन हवा में फिर वही प्रश्न है विकल्प क्या है। मुझे लगता है जिस तरह की राजनीति चतुराई के साथ धृष्ट लोगों द्वारा ढाली गयी है उसमें चाहें न चाहें अब यह प्रश्न माकूल सा हो गया है। जनता का फिलहाल जैसा दिमाग बना दिया गया है उसमें आपको यह जवाब देना ही होगा कि विकल्प क्या है और कैसा है। विकल्प की बात को नकारना सही विकल्प नहीं।