इंदिरा गांधी एक प्रभावशाली प्रधानमंत्री थीं. उन्होंने कभी राज्यों के चुनाव को इतना महत्व नहीं दिया. राज्यों में पार्टी के जो दूसरे नेता थे वे प्रचार करते थे. इंदिरा जी दो या चार रैली करती थीं. आज स्थिति उलट गई है. बहुत सालों बाद भाजपा में एक नई परंपरा विकसित हुई है कि पार्टी पीछे है. केवल एक नेता का नाम है, एक नेता की फोटो है, एक नेता का प्रचार हो रहा है और इसी आधार पर पार्टी वोट मांग रही है. हरियाणा या दिल्ली के लिए भी प्रधानमंत्री अपनी पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दे रहे हैं.
यह देश के लिए समझदारी भरी बात नहीं है. प्रधानमंत्री का पद बहुत ऊंचा पद होता है और हर आदमी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है. भाजपा को ही लीजिए. कांग्रेस के दस साल बाद जब भाजपा के पास जीत का मौका आया, तब भाजपा ने आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी का नाम आगे नहीं किया. आज चार साल बाद यह बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा है कि वे कहीं ज्यादा अच्छे प्रधानमंत्री साबित होते, बजाए नरेंद्र मोदी के.
लेकिन हर पार्टी को हक है अपना नेता चुनने का. इसलिए भाजपा ने मोदी को चुना. अरुण शौरी, रामजेठमलानी, यशवंत सिन्हा जैसे बुद्धिजीवी अगर उस समय चाहते तो साफ-साफ बोल सकते थे कि पार्टी में यह गलत हो रहा है. नेता उसे चुनिए जो वरिष्ठ है, जो काबिल है, अनुभवी है. उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री रहे आडवाणी जी को अनदेखा करने का क्या औचित्य है? राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष थे. स्वाभाविक था कि वे कैबिनेट ज्वाइन करते, इसलिए उन्हें अध्यक्ष पद छोड़ना पडा. अब भाजपा किसे पार्टी अध्यक्ष चुनती? आडवाणी जी की तो बात ही छोड़िए. भाजपा ने अमित शाह को किस आधार पर और किस प्रतिभा को देखते हुए पार्टी अध्यक्ष चुना? कौन है अमित शाह? अहमदाबाद में अमित शाह के बारे में आप ऐसी बातें सुनेंगे, जो आपके कान भी बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे.
चार साल में इन्होंने भाजपा के स्टैंडर्ड को गिरा दिया है. राजनीति का स्टैंडर्ड गिरा दिया, परंपराओं का स्टैंडर्ड गिरा दिया. सबको पता है कि अभी प्रधानमंत्री के बाद उपप्रधानमंत्री का पद नहीं है, लेकिन हर मायने में अमित शाह उतने ही पावरफुल हैं. किसी कैबिनेट मंत्री को उतने अधिकार नहीं हैं, जितने अमित शाह को हैं. अमित शाह क्या स्टैंडर्ड सेट कर रहे हैं. वे रोज एक पायदान नीचे जा रहे हैं. उनका बयान राजनीति को नीचे घसीट रहा है.
मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में. भाजपा को कांग्रेस का भूत पकड़ा हुआ है. उसे लगता है कि जो भाजपा के खिलाफ बोलेगा वो कांग्रेसी है. लेकिन भाजपा नहीं समझ रही कि हिन्दू उसके खिलाफ हैं. वर्ना 1952 से अभी तक भाजपा का ही राज होता. 1952 में जनसंघ बनाई गई थी, आरएसएस के आशीर्वाद से. अगर जनसंघ हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व कर रहा था, तो उसे सत्ता क्यों नहीं मिली? क्योंकि हिन्दू कांग्रेस को वोट दे रहे थे. क्यों? क्योंकि तब की कांग्रेस जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस थी, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी की कांग्रेस थी.
ये नेता सही हिन्दू सोच का असली प्रतिनिधित्व करते थे. वह सोच क्या थी? सोच यह थी कि जो संविधान में लिखा गया है, वहीं सर्वोच्च है. यह बात भाजपा को अच्छी नहीं लगेगी और लगनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि संविधान बनाने में भाजपा का कोई योगदान नहीं है. आपको किसी ने पूछा भी नहीं. आप कुछ थे भी नहीं उस समय. हालांकि संविधान जब बन रहा था, तब श्यामाप्रसाद मुखर्जी या आशुतोष मुखर्जी जैसे नेता थे. लेकिन आज भाजपा को उनसे कोई मतलब नहीं है, सिर्फ उनका नाम लेने के अलावा. भाजपा उनके नाम का दुरुपयोग करती हैं. संविधान सभा की बहस को पढ़िए. भाजपा में पढ़ाई-लिखाई की परंपरा नहीं है. भाजपा का कोई भी व्यक्ति मुझे नहीं मिला है, जो बहस कर सके कि संविधान सभा में किसने क्या कहा था?
राम मंदिर बनाने के लिए सबसे ज्यादा किसी ने मेहनत की तो छह महीने की हमारी सरकार ने की. चंद्रशेखर जी ने की. करीब-करीब सुलझा भी दिया था राम मंदिर का मुद्दा. लेकिन भाजपा को राम मंदिर में कहां दिलचस्पी है? भाजपा को मुसलमानों में दिलचस्पी है. मैं अरुण शौरी, राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा से अनुरोध करूंगा कि वे देश में एक चक्कर लगाए और प्रायश्चित सभा करें. वे कहें कि हम प्रायश्चित करने आए हैं, हमें पश्चाताप है कि हमने गलत उम्मीदवार का समर्थन किया. रामजेठमलानी तो कहते भी हैं कि मैंने गलत आदमी का समर्थन कर दिया. प्रायश्चित करना जरूरी है.
आरएसएस में बहुत लोग हैं, जो दुखी हैं. सरसंघ चालक विजयादशमी के दिन एक रैली करते थे नागपुर में और जो बोलते थे वही आरएसएस के लोगों के लिए सालभर का रोडमैप होता था. लेकिन अब तो भाजपा रोज उन्हें घसीट लेती है. रोज मोहन भागवत को भी कुछ बोलना पड़ता है. मोहन भागवत को बोलना पड़ा कि एयर इंडिया हमलोग ठीक नहीं चला रहे हैं, लेकिन इसे विदेशियों को मत बेचिए. विमानन मंत्रालय को टेंडर डॉक्यूमेंट बदलना पड़ा.
ये हालत हो गई है कि सरकार में इतने लोग भी नहीं हैं, जो सोचें कि कोई देश अपना नेशनल कैरियर नहीं बेचता और विदेशियों को तो बेचता ही नहीं. क्या हमारे पास प्रबंधकों का इतना अभाव है कि हमलोग एक एयरलाइन नहीं चला पाएंगे? एयर इंडिया सरकारी है, सबसे पुरानी है और सबसे ज्यादा अनुभवी पायलट, इंजीनियर और इंजीनियरिंग स्टाफ इसके पास हैं. विदेशी एयरलाइंस वाले बोलते हैं कि एयर इंडिया में बहुत पोटेंशियल है, क्योंकि जिसके पास लैडिंग राइट अधिक है, वो सोने की खदान है. यह कौन समझेगा? सुबह पांच बजे लाठी लेकर और पूजा करने से बात समझ में नहीं आएगी. इसके लिए पढ़ना पड़ेगा. पढ़ाई-लिखाई वाले कोई हैं ही नहीं.
अशोक गजपति राजू सिविल एविएशन मिनिस्टर थे. वे अच्छे और पढ़े-लिखे सज्जन आदमी थे. वे कम बोलते थे. लेकिन जब चंद्रबाबू नायडू ने सरकार से अपना समर्थन वाप्स लिया, तो उन्हें इस्तीफा देना पडा. अब सरकार ने उस सुरेश प्रभु को इस विभाग का अतिरिक्त प्रभार दे दिया है, जो कॉमर्स बैकग्राउंड के हैं. वे क्या काम करेंगे? दिन के 24 घंटे ही होते हैं, जिसमें से आठ-दस घंटे ही काम के होते हैं. ऐसे सरकारें नहीं चलतीं. नौकरशाही का इस सरकार ने क्या हाल कर दिया? सात-आठ ब्यूरोक्रेट हैं, जिनपर मोदी जी भरोसा कर रहे हैं. सरकार और देश चलाने का यह तरीका नहीं है. अगर मोदी जी सोच रहे हैं कि वे फिर से अगले पांच साल के लिए चुन कर आएंगे, तो भूल जाइए. जनता ने अपना मन बना लिया है. अमित शाह के जोर-जोर से बोलने से कुछ नहीं होता.
क्या मोदी जी इंडिया को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं? विडंबना देखिए, ट्रोलर कहते हैं कि पाकिस्तान क्यों नहीं जाते आप. पाकिस्तान का इस सब से क्या ताल्लुक है? मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस देश का जो मानस है, जो सोच और विचारधारा है, उसमें भाजपा जैसा संविधान चाहती हैं, वैसा बन ही नहीं सकता और कभी नहीं बनेगा. अगर आज भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र हो, तो मोदी जी को उनके ही सांसद वोट नहीं देंगे. 282 सांसदों में से आधे से ज्यादा निराश हैं, क्योंकि वे न तो अपने क्षेत्र में कुछ कर पाते हैं और न वहां का मुख्यमंत्री उनकी सुनता है. ज्यादातर मुख्यमंत्री भाजपा के ही हैं, लेकिन वे भी दिन काट रहे हैं, बंधुआ मजदूर की तरह. थोड़ा-बहुत फायदा मिल ही जाता है. अपने क्षेत्र में काम कर हक से टिकट मांगने वाले सांसद अब बहुत ही कम रह गए हैं. आज टिकटार्थी शब्द चलता है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के समय तक टिकटार्थी शब्द नहीं था.
मोदी जी ने अपनी पार्टी का चरित्र चार साल में बदल दिया. उस जमाने में हमारे जैसे लोग कहते थे कि अटल जी थोड़े लिबरल हैं और आडवाणी जी तो बहुत कड़क हैं, वे प्रो-आरएसएस हैं. आज मोदी जी ने वो अंतर मिटा दिया. अब तो लगता है कि आडवाणी जी, अटल जी और बाला साहेब देवरस कड़क थे, लेकिन वे शरीफ लोग थे. आज की भाजपा शरीफ लोगों की पार्टी नहीं है. बलात्कार को जस्टिफाई करने की नई परंपरा शुरू हुई है. शर्म करिए. किसी ने बलात्कार किया तो पुलिस एक्शन लेगी. मान लिजिए आपकी पार्टी का कोई व्यक्ति है, तो चुप रहिए. उसने किया है, तो भुगतेगा भी वही. अब ये ब्लात्कारियों के लिए मोर्चा निकालते हैं.
मेरी यादें स्वतंत्र भारत की हैं. मैं जब 10-12 साल का हुआ, तब जवाहरलाल नेहरू बुलंदी पर थे. इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी. इसका समर्थन करने का सवाल ही नहीं है. लेकिन इमरजेंसी खत्म करके चुनाव करवाया तो हार गईं. फिर बाद में प्रधानमंत्री बन गईं. यही लोकतंत्र है. इंदिरा गांधी ने पूरे देश में जाकर माफी मांगी. आज तो हम ये कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. आज अमित शाह को सुनिए. कहते हैं कि अगली बार मोदी जी ज्यादा बहुमत से आएंगे. ज्यादा बहुमत से आएंगे, वो भी इस परफॉरमेंस के बाद? ऐसा तो आदमी दो ही परिस्थिति में कह सकता है, या तो विश्लेषण शक्ति खत्म हो गई हो, या फिर ईवीएम घोटाले का बंदोबस्त पक्का कर लिया गया हो.
उनको पता है कि पब्लिक कुछ भी सोचे, चुनाव हम ही जीतेंगे. जिम्बाब्वे में ऐसे ही होता था. मुगाबे साहब थे वहां. वे चुनाव करवाते थे, पब्लिक ने खिलाफ वोट दिया, लेकिन इलेक्शन कमीशन उन्हें जीता हुआ घोषित कर देता था. सेना उनके साथ थी. अमित शाह का ऐसा बयान इसी तरह का लगता है. ये भाषा लोकतंत्र की भाषा नहीं है. ये ऐसा नहीं कह रहे हैं कि हमने इतना अच्छा काम किया है कि लोग हमको वोट देंगे. ये वोट का नाम ही नहीं लेते हैं. ये कहते हैं हम ज्यादा सीटों से जीतेंगे. जीतने की बात करते हैं, लोकप्रियता की बात ही नहीं करते हैं.