संयुक्त सचिव स्तर के इन विशेष प्रतिभावान अफसरों की आधारभूत योग्यता के लिए जो मापदंड निर्धारित किए गए हैं, उनमें आवेदक का किसी भी यूनिवर्सिटी से सिर्फ ग्रेजुएट होना तथा उसके पास किसी भी कंपनी, कंसल्टेंसी या संगठन में समान स्तर पर 15 वर्ष का कार्यानुभव होना जरूरी होगा. साथ ही इन आवेदकों की उम्र 40 साल से अधिक होनी चाहिए. केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने इन एक्सपर्ट्स की भर्ती के लिए हाल ही में जो अधिसूचना जारी की है, उसके अनुसार इन विशेष दक्षता वाले आवेदकों की नियुक्ति पहले 3 साल के लिए की जाएगी, जिसे बाद में 5 साल तक बढाया जा सकेगा.
मजे की बात यह है कि इन पदों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, मान्यता प्राप्त रिसर्च इंस्टिट्यूट्स, यूनिवर्सिटीज और यहां तक कि मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले लोग भी पात्र होंगे. इन विशेषज्ञ अफसरों को वही वेतन-भत्ते और अन्य सभी सुविधाएं मिलेंगी जो सिविल सर्विसेज के जरिए आने वाले अफसरों को आम तौर पर मिलती हैं.
दरअसल, ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री या जिसे हम पिछले दरवाजे से एंट्री कह सकते हैं, पहली कोशिश नहीं है. इसके पहले वर्ष 2005 और 2010 में भी ऐसी कोशिशें हो चुकी हैं. तब प्रशासनिक सुधार आयोग ने ऐसे विशेषज्ञों की भर्ती का सुझाव दिया था. लेकिन यूपीए सरकार ने दोनों बार इन सुझावों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे ब्यूरोक्रेसी में असंतोष फैलेगा और साथ ही इससे एक समानांतर नौकरशाही बनने की बेवजह कंट्रोवर्सी खड़ी होगी. लेकिन किसी भी तरह के विवादों से बेपरवाह मोदी सरकार न सिर्फ विशेषज्ञ अफसरों की लैटरल एंट्री के मामले में काफी आगे बढ़ गई, बल्कि उसे नए अंजाम या कहें कि एक तार्किक परिगति तक ले जाने के लिए भी प्रतिबद्ध मालूम पड़ती है.
मोदी सरकार में बाहरी विशेषज्ञों की नियुक्ति का सिलसिला जारी है. केंद्रीय आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा इसी परम्परा की देन हैं. आयुष मंत्रालय में नियुक्ति के पहले वे गुजरात आयुर्वैदिक यूनिवर्सिटी में वाईस चांसलर थे. अलबत्ता यह पहला मौका जरूर है, जब संयुक्त सचिव पद पर नियुक्ति के दरवाजे सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के ‘प्रतिभावान विशेषज्ञों’ के लिए खोले गए हैं.
दूसरी ओर, विपक्ष का आरोप है कि पेशेवर दक्ष लोगों को संयुक्त सचिव स्तर पर नियुक्त करने सम्बन्धी मोदी सरकार का फैसला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति गहरी प्रतिबद्धता वाले लोगों को नौकरशाही में घुसाने की एक सोची समझी योजना है. इस गैर पारंपरिक तरीके से की गई नियुक्तियों से एक तरफ जहां संघ लोक सेवा आयोग जैसी संस्थाओं की गरिमा और निष्पक्षता को ठेस लगेगी, वहीं आईएएस, आईपीएस संवर्ग के अफसरों की मनोदशा पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा.
लैटरल एंट्री के जरिए अधिकारियों की सीधी भर्ती के बारे में सरकार के नजरिए को साफ़ करते हुए नीति आयोग ने कहा है कि इस मामले में हम एक वैश्विक परम्परा पर चलना चाहते हैं. अमेरिका समेत तमाम मुल्कों में ऐसे विशेषज्ञों को सरकार में अहम जिम्मेदारी दी जाती है, फिर इसमें संघ को खींचना या कोई और राजनीतिक मकसद देखना पूरी तरह बेबुनियाद है. वहीं विपक्ष का मानना है कि इस प्रक्रिया से सिविल सर्विसेज के माध्यम से आए अफसरों और सीधी भर्ती वालों के बीच हितों के टकराव का मुद्दा उठ खड़ा होगा. आरक्षित कोटे से आने वाले अधिकारियों के हित भी इससे प्रभावित होंगे.