लालू प्रसाद भी अब राजनीतिक सच्चाइयां समझ रहे हैं, इसलिए वह आने वाले दिनों में सकारात्मक एजेंडे के साथ जनता के बीच जाएंगे. बात अगर जदयू की करें, तो वहां भी राजनीतिक सच्चाइयों पर चाटुकारिता, अहंकार और खुद को सर्वज्ञानी समझने की कहानी हावी है. भाजपा की ताकत कम ही नहीं, बहुत कम आंकने की गलती जानबूझ कर की जाती रही, वह भी इस बिना पर कि मुसलमानों और अति पिछड़ों का एकमुश्त साथ पार्टी को चुनावी वैतरणी पार करा देगा.
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इन दिनों गहन चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं. चूंकि सवाल केवल पार्टी का ही नहीं है, बल्कि अपनी राजनीतिक हैसियत और पहचान का भी है, इसलिए राजनीतिक सच्चाइयों को संजीदगी से जांचा-परखा जा रहा है. पार्टी नेताओं से दिल की बात सुनी जा रही है, यह समझने की कोशिश की जा रही है कि आख़िर ऐसी क्या वजह हो गई कि बिहार की जनता ने तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें नकार दिया. लालू प्रसाद ने चुनाव बाद की समीक्षा बैठक में यह साफ़ कर दिया कि राजद को माय (मुस्लिम-यादव) के दायरे से बाहर निकलना पड़ेगा. सामाजिक जनाधार बढ़ाए बिना चुनावी सफलता का सपना देखना मूर्खता होगी. जानकार सूत्र बताते हैं कि लालू प्रसाद ने साफ़ कहा कि अति पिछड़ा वर्ग को पार्टी के साथ जोड़ने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं है.
ग़ौरतलब है कि यह वही अति पिछड़ा वोट है, जिसे लालू प्रसाद जिन्न कहा करते थे, लेकिन नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग के कारण अति पिछड़ा वर्ग का लगाव राजद से ख़त्म हो गया, जिसका व्यापक नुकसान बाद के चुनावों में राजद को उठाना पड़ा. लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद का गणित साफ़ था कि माय के अलावा अगर उस जाति का वोट, जिस जाति का राजद का उम्मीदवार है, अगर मिल जाता है, तो जीत तय है, लेकिन इस रणनीति में लालू प्रसाद मात खा गए. बहुत जगहों पर तो माय के वोटों में भी काफी बिखराव हुआ और पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा. यही वजह रही कि समीक्षा बैठकों में लालू प्रसाद ने अति पिछड़ा वोटों को एक बार फिर अपने पाले में करने के लिए एक ब्लू प्रिंट तैयार किया है. इस ब्लू प्रिंट को अमलीजामा पहनाने की ज़िम्मेदारी युवा और तेजतर्रार नेता प्रगति मेहता के कंधों पर डाली गई है.
प्रगति मेहता को पार्टी के अति पिछड़ा प्रकोष्ठ का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. उन्हें पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर अति पिछड़ा वर्ग को पार्टी के साथ तेजी से जोड़ने के लिए कहा गया है. मेहता कहते हैं कि अति पिछड़ा समाज को भ्रमित कर दिया गया था, लेकिन अब वह यह समझने लगा है कि लालू प्रसाद के हाथ में ही उसका भविष्य सुरक्षित है. अति पिछड़ा समाज बहुत तेजी से राजद के साथ जुड़ने लगा है. पार्टी प्रवक्ता रामानुज कुमार कहते हैं कि कहीं से कोई निराशा नहीं है. राजद अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों के आधार पर सूबे की जनता का दिल एक बार फिर जीतेगा. नरेंद्र मोदी की जीत को वह धार्मिक धु्रवीकरण का नतीजा मानते हैं. रामानुज कहते हैं कि इस तरह का धु्रवीकरण स्थायी नहीं होता और जल्द ही जनता सच्चाई से अवगत हो जाएगी. वहीं राजद के कई नेता लालू प्रसाद की लगातार गलतियों से बेहद खफा हैं. उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद पार्टी में सुधार के कोई लक्षण नहीं हैं.
मांझी सरकार को समर्थन की घोषणा को राजद के कई नेता आत्मघाती क़दम बता रहे हैं. उनके अनुसार, यह सच है कि समाज के निचले तबके को लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय के माध्यम से मानसिक गुलामी से मुक्त कराया, लेकिन उसके बाद वह आगे कुछ करने की बजाय केवल सामाजिक न्याय का झुनझुना बजाते रह गए. मानसिक गुलामी से मुक्ति के बाद इस समाज को रोटी, कपड़ा और मकान देने की ज़रूरत थी, जो राजद सरकार नहीं दे पाई और सत्ता से बाहर हो गई. सत्ता से बाहर आने के बाद भी गलतियों से सबक लेने की बजाय केवल माय-माय का राग अलापा गया, जिससे पार्टी का ग्राफ गिरता गया. राजद जनता के सामने कोई सकारात्मक कार्यक्रम लेकर आने में विफल रहा. बाद के दिनों में लालू प्रसाद के दोनों बेटे सक्रिय हुए, लेकिन दोनों ने अपनी सारी ताकत आपसी खींचतान में लगा दी और पार्टी के दूसरे बड़े नेता असहाय होकर यह नाटक देखते रहे.
युवाओं को लोकसभा चुनाव में ज़्यादा हिस्सेदारी का झुनझुना दिखाया गया, पर जब टिकट बंटे, तो कहानी कुछ दूसरी निकली. पारिवारिक चाशनी में राजद की टिकट सूची बिहार की जनता को नागवार गुजरी. राबड़ी देवी तक तो लोगों ने बर्दाश्त कर लिया, पर जब रामकृपाल को दरकिनार कर मीसा भारती को आगे किया गया, तो लगा कि लालू पार्टी का सत्यानाश कराकर ही दम लेंगे. वह सही में जीसीबी मशीन हैं, पर अपनी ही पार्टी की कब्र खोदने में लगे हैं. पार्टी के बड़े नेता जगतानंद सिंह और रघुवंश सिंह अपने- अपने क्षेत्रों में पड़े रहे और तेजस्वी एवं तेजप्रताप स्टार प्रचारक बनकर हेलिकॉप्टर में घूमते रहे. पार्टी केवल सांप्रदायिकता का राग अलापती रही, पर वह जनता को यह नहीं बता सकी कि उसे रोटी, कपड़ा और मकान कैसे देगी. इसी रवैये का नतीजा है कि पार्टी एक बार फिर चार सीटों में सिमट गई.
जानकार बताते हैं कि लालू प्रसाद भी अब राजनीतिक सच्चाइयां समझ रहे हैं, इसलिए वह आने वाले दिनों में सकारात्मक एजेंडे के साथ जनता के बीच जाएंगे. बात अगर जदयू की करें, तो वहां भी राजनीतिक सच्चाइयों पर चाटुकारिता, अहंकार और खुद को सर्वज्ञानी समझने की कहानी हावी है. भाजपा की ताकत कम ही नहीं, बहुत कम आंकने की गलती जानबूझ कर की जाती रही, वह भी इस बिना पर कि मुसलमानों और अति पिछड़ों का एकमुश्त साथ पार्टी को चुनावी वैतरणी पार करा देगा. विकास के झूठे वादे और विशेष राज्य का घिसा-पिटा मुद्दा जदयू को इतना नीचे ले गया है कि उससे उबरने के लिए पार्टी को अब जमकर पसीना बहाना पड़ेगा. 24 स्थानों पर जमानत जब्त होने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोेबल कहां होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है.
उधर ललन सिंह को एमएलसी बना दिए जाने से भी पार्टी में अच्छा संदेश नहीं गया. मुख्यमंत्री न बन पाने की कसक विजेंद्र यादव के दिल में पल ही रही है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनवा कर एक बार फिर बड़ी गलती कर दी. वह अगर नरेंद्र नारायण यादव या फिर विजेंद्र यादव को यह कुर्सी दिलवा देते, तो आगे की राजनीति के लिए उनके सामने कई विकल्प एक साथ खुल जाते. सत्ता में हिस्सेदारी के लिए तरस रहा यादव समाज के जदयू के नज़दीक आने की संभावना काफी बढ़ जाती. इस क़दम से लालू प्रसाद स्वाभाविक तौर पर कमजोर पड़ते और उसका सीधा लाभ जदयू के खाते में जाता. लेकिन, लगता है कि नीतीश कुमार ने जिद के आगे हार वाली लाइन खींची है और वह उसी लाइन पर अब तक चलना पसंद कर रहे हैं. नीतीश कुमार के आगे अब सबसे बड़ी चुनौती अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की है. जनता ने तो फिलहाल उन्हें खारिज कर दिया है, लेकिन जल्द ही सूबे में 10 सीटों पर विधानसभा के उपचुनाव होने वाले हैं. यह उपचुनाव एक ऐसा टेस्ट होगा, जो यह तय कर देगा कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने अपनी गलतियों से कुछ सीखा है या नहीं. अगर गलतियां जारी रहीं, तो फिर संकट वजूद का खड़ा हो जाएगा.
लालू और नितीश लड़ेंगे वजूद की लड़ाई
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