andolanएक तरफ मौसम की मार और दूसरी तरफ सबसे कम मजदूरी और सबसे कम रोजगार. यह उत्तराखंड के मजदूरों की दशा है. बदहाली से उबरने और मजदूरी को अन्य राज्यों के बराबर करने का आंदोलन इस पर्वतीय राज्य में पहाड़ से लेकर तराई तक धीमी रफ्तार से ही सही, लेकिन बड़े पुख्ता तरीके से फैलता चला जा रहा है.

‘सिडकुल’ नाम से मशहूर उत्तराखंड राज्य औद्योगिक विकास निगम के मजदूरों ने बड़े कारगर तरीके से इस आंदोलन की पहल की है. ‘सिडकुल’ के विभिन्न कल-कारखानों और कार्यस्थलों पर काम करने वाले मजदूरों ने सामूहिक रूप से एक मांग पत्र तैयार कर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और श्रम मंत्री को दिया है. इसकी प्रतिलिपि प्रदेश के श्रम सचिव और श्रम आयुक्त को भी दी गई है. इस साल मजदूर दिवस से आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसे मांग-पत्रक आंदोलन नाम दिया गया.

मुख्यमंत्री और श्रम मंत्री को दिए गए मांग-पत्र के जरिए ‘सिडकुल’ के मजदूरों ने अपने बेइंतिहा शोषण और काम की कठिनतम परिस्थितियों की जानकारी दी है. हरिद्वार के 2034 एकड़ में फैले सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में अमीरों के लिए शॉपिंग मॉल, पांच सितारा होटल, अपार्टमेंट्स, गोल्फ मैदान समेत तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं. पूंजीपतियों को कारखाना लगाने के लिए उत्तराखंड सरकार तमाम तरह की टैक्स-छूट और ऊपर से सब्सिडी भी दे रही है.

लेकिन इस पूरे औद्योगिक तंत्र को अपनी मेहनत से चलाने वाले मेहनतकश मजदूरों के लिए कोई भी सुविधा नहीं है. वहां न कोई श्रम कानून लागू है और न ही मजदूरों को कोई सम्मानजनक वेतन दिया जाता है. आलीशान और चमकदार अपार्टमेंट्स और शॉपिंग मॉल के पीछे मजदूरों की बस्तियों के सीलन-भरे अंधेरे कमरे, संकरी गंदी गलियां और टूटी-फूटी सड़कें पूंजीपरस्ती का बदनुमा यथार्थ हैं. इन टूटे फूटे बदहाल रास्ते से निकलकर मजदूर सिडकुल की चमचमाती सड़कों और फैक्ट्रियों में दाखिल होते हैं और पूंजीपतियों के लिए कमाई का जरिया बनते हैं. लेकिन उन्हें 10-12 घंटे काम करने के बावजूद न्यूनतम मजदूरी (वेतन) तक नहीं मिलती.

मजदूरों का यह शोषण जगजाहिर है, लेकिन सरकारी मशीनरी की चुप्पी और बेरुखी साफ बताती है कि सरकार को मजदूरों की तकलीफ से कोई लेना-देना नहीं है. आंदोलन के रास्ते पर बढ़ रहे मजदूरों का कहना है कि स्थिति अब असहनीय होती जा रही है. ‘सिडकुल’ के मजदूरों ने मांग-पत्र के ज़रिए अपनी जायज मांगें सत्ता के समक्ष रखी हैं. मजदूरों ने यह फैसला किया है कि उनकी मांगे नहीं मानी गईं, तो मजदूर आंदोलन पूरे उत्तराखंड राज्य में फैलेगा.

विडंबना यह है कि उत्तराखंड के मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी आस-पास के राज्यों मसलन, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश की तुलना में काफी कम है. जबकि मूलभूत जरूरतों की कीमत और मंहगाई उत्तराखंड में कुछ अधिक ही है. लिहाजा, मजदूरों की मांग है कि दिल्ली सरकार की तर्ज पर उत्तराखंड के अकुशल मजदूरों को 512 रुपए दिहाड़ी के हिसाब से 13360 रुपए मासिक, अधकुशल मजदूर को 14,698 रुपए मासिक और कुशल मजदूर को 16,182 रुपए मासिक न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की जाए. मजदूरों ने मुख्यमंत्री और श्रम मंत्री से यह भी मांग की कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के लिए हर पांच साल पर समीक्षा करने वाले बोर्ड की बैठक बुलाई जाए, क्योंकि वर्ष 2013 में समीक्षा बैठक हुई थी.

कई कम्पनियां मजदूरों से 10 से 12 घंटे काम लेती हैं, ताकि न्यूनतम वेतन और डबल रेट से मिलने वाले ओवरटाइम में घपला किया जा सके. इसलिए आठ घंटे काम के निर्धारित नियम को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए. आठ घंटे के बाद का काम स्वाभाविक तौर पर ‘ओवरटाइम’ माना जाए और ‘ओवरटाइम’ का भुगतान डबल-रेट से किया जाए. दूसरे राज्यों में यह नियम लागू है, लेकिन उत्तराखंड में यह नियम लागू नहीं है. विभिन्न कम्पनियां और कारखाने मजदूरों का शोषण करने में लगे हैं और सरकार चुप बैठी है. अभी उत्तराखंड के दिहाड़ी मजदूर को करीब ढाई सौ रुपए ही मजदूरी मिलती है. सरकार ने न्यूनतम मजदूरी बढ़ाई भी तो महज 10-12 रुपए. इससे मजदूरों की जिंदगी पर क्या फर्क पड़ने वाला है!

उत्तराखंड राज्य में न्यूनतम वेतन न देने पर कार्रवाई का प्रावधान भी काफी लचर है. केंद्र सरकार ने मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न देने पर 50 हजार का जुर्माना और तीन माह की सजा का प्रावधान किया है. उत्तराखंड के मजदूरों की मांग है कि केंद्र के फैसले के अनुरूप उत्तराखंड सरकार भी सख्त कानूनी प्रावधान लागू कर मजदूरों को संरक्षण दे. पूरे ‘सिडकुल’ में करीब 90 प्रतिशत मजदूर ठेके पर काम करते हैं. स्थाई प्रकृति के काम में भी कम्पनियां ठेके पर ही काम कराती हैं. मजदूरों को परमानेंट न किया जा सके, इसके लिए कम्पनियां छह महीने तक काम करने के बाद मजदूरों को ब्रेक दे देती हैं. दोबारा भर्ती करने पर उनके डिपार्टमेंट बदल दिए जाते हैं और ठेकेदार भी बदल दिए जाते हैं.

यह ठेका मजदूरी (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970 का सीधा-सीधा उल्लंघन है. मजदूरों ने मांग की है कि ठेका मजदूरी कानून के सभी प्रावधानों को उत्तराखंड में भी हूबहू लागू किया जाए व नियमित और स्थाई प्रकृति का काम होने पर ठेका मजदूरों को नियमित किया जाए. इसके अतिरिक्त मजदूरों ने यह भी मांग की है कि काम के बीच में ही मजदूर हटा देने या बदल देने का चालाक-चलन अविलंब रूप से बंद हो. स्वाभाविक है कि ठेका मजदूरी कानून लागू होने पर उत्तराखंड के मजदूरों को भी ठेका मजदूरी कानून-1970 के तहत मिलने वाली सभी सुविधाएं मिलने लगेंगी. इसमें समान कार्य के लिए समान वेतन, ईएसआई, पीएफ, वेतन स्लिप और कैंटीन वगैरह की सुविधाएं शामिल हैं. वैसे, मजदूरों की मांग है कि ठेका कानून ही पूरी तरह समाप्प्त कर दिया जाए, ताकि मजदूरों को अधर की स्थिति से स्थाई मुक्ति मिल सके.

उल्लेखनीय है कि पूरे सिडकुल में मजदूरों को कम्पनी पहचान-पत्र और वेतन स्लिप नहीं मिलता है. बहुत से मजदूरों का ईपीएफ और ईएसआई काटा जाता है, लेकिन सुविधाएं नहीं मिलतीं. ईपीएफ के लिए जनवरी 2014 से यूएएन (यूनीक आइडेंटिफिकेशन नंबर) अनिवार्य तो कर दिया गया, लेकिन इसका धड़ल्ले से उल्लंघन हो रहा है. काम छूटने या काम से निकाल दिए जाने पर दूसरी कम्पनी या ठेकेदार मजदूर का दूसरा ईपीएफ खाता खोल देता है और मजदूर के शोषण का दूसरा अध्याय शुरू हो जाता है. भोले-भाले मजदूरों को यह पता भी नहीं लगता कि ठेकेदार या कम्पनी मजदूरों के ईपीएफ में अपना अंशदान दे रही है या नहीं. मजदूरों की मांग उचित है कि सभी मजदूरों को कम्पनी पहचान-पत्र और वेतन स्लिप मिले, जिसमें मजदूरों को मिलने वाले सभी भत्तों, ईएसआई औरपीएफ वगैरह का ब्यौरा दर्ज हो.

यह भी विचित्र स्थिति है कि हरिद्वार में ‘सिडकुल’ में काम करने वाले मजदूरों को ईपीएफ के लिए देहरादून जाना पड़ता है. जबकि हरिद्वार में भी ईपीएफ का दफ्तर होना चाहिए. देहरादून में ईपीएफ का दफ्तर होने के बावजूद श्रम विभाग के अधिकारी कभी हरिद्वार में शिविर लगा कर मजदूरों का पंजीकरण करने की जहमत नहीं उठाते. त्रासदी का दूसरा हिस्सा यह भी है कि हरिद्वार के पूरे ‘सिडकुल’ परिसर में कोई ईएसआई अस्पताल नहीं है. केवल एक डिस्पेंसरी है, जहां केवल छोटी-मोटी बीमारी का ही इलाज हो सकता है. गम्भीर बीमारी या चोट से जख्मी होने पर मजदूरों को 10 किलोमीटर दूर ईएसआई की सुविधा का लाभ उठाने निजी अस्पताल में जाना पड़ता है.

‘सिडकुल’ में बड़ी संख्या में महिला मजदूर भी काम करती हैं. लेकिन ज्यादातर कम्पनियों में उनके साथ दोहरा व्यवहार होता है. एक ही प्रकृति का काम करने वाली महिला और पुरुष मजदूरों की मजदूरी में काफी अन्तर है. यह समान वेतन अधिनियम-1976 का सरासर उल्लंघन है. जिन कम्पनियों में 20 या उससे ज्यादा महिलाएं काम करती हैं, उसमें उनके बच्चों के लिए क्रेच और महिलाओं के लिए अलग विश्राम कक्ष की व्यवस्था अनिवार्य रूप से होनी चाहिए, लेकिन इस पर प्रशासन का कोई ध्यान ही नहीं है.

‘सिडकुल’ के मजदूरों को उनकी सुरक्षा के लिए जरूरी उपकरण मसलन हेलमेट, डस्ट मास्क, रेसपिरेटरी मास्क, एप्रन, फेस शील्ड, हैंड ग्लव्स, सेफ्टी गॉगल्स वगैरह नहीं दिए जाते. जबकि उत्तराखंड कारखाना नियमावली-1962 के तहत यह अनिवार्य है. यहां तक कि काम के लिए इस्तेमाल में आने वाले उपकरणों का पैसा भी मजदूरों से ही वसूल लिया जाता है.

‘सिडकुल’ मजदूरों की त्रासदी यह भी है कि वहां ट्रेड यूनियन को बिल्कुल समाप्त कर दिया गया है. जबकि अन्य सभी औद्योगिक प्रतिष्ठानों में ट्रेड यूनियनें मौजूद हैं. ‘सिडकुल’ में मजदूरों का अधिकार कुचले जाने की बड़ी वजह यह भी है. प्रदेश का श्रम विभाग भी कम्पनियों से मिलीभगत करके यही कोशिश करता है कि किसी ट्रेड यूनियन का पंजीकरण न हो पाए. ‘सिडकुल’ औद्योगिक क्षेत्र में श्रम विभाग, फैक्ट्री इंस्पेक्टर या लेबर इंस्पेक्टर के नियमित निरीक्षण की बात तो छोड़िए, उनका परिसर में कभी दर्शन ही नहीं होता. मजदूरों का सीधा आरोप है कि श्रम विभाग के अधिकारी कारखाना मालिकों से मिले हुए हैं और रिश्वत खाते हैं.

पर्वतीय प्रदेश में घरेलू श्रमिक और भी बदतर हाल में

देश की राजधानी दिल्ली समेत अन्य मट्रोपॉलिटन शहरों में घरेलू श्रमिक अधिक हैं, लेकिन उनकी स्थिति अपेक्षाकृत संतोषजनक है. इसके विपरीत पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में घरेलू श्रमिकों की तादाद अत्यंत कम है. लेकिन उनकी स्थिति असंतोषजनक है. उत्तराखंड सरकार का श्रम विभाग कहता है कि पूरे पर्वतीय प्रदेश में घरेलू श्रमिकों की संख्या डेढ़ हजार से भी कम है. आधिकारिक तौर पर यह तादाद 14 सौ बताई गई है.

राज्य के अल्मोड़ा जिले में सबसे ज्यादा 243 घरेलू श्रमिक चिन्हित किए गए हैं. रुद्रप्रयाग में सबसे कम घरेलू श्रमिक हैं, जिनकी संख्या मात्र सात है. नैनीताल जिले में घरेलू नौकरी की संख्या 120 है. असंगठित कर्मकार सामाजिक सुरक्षा कानून-2008 के मुताबिक, राज्य सरकार को भी अपने यहां असंगठित कर्मकारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून लागू करना था, लेकिन उत्तराखंड सरकार ने इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. सुप्रीम कोर्ट का रुख देखते हुए सरकार ने घरेलू श्रमिकों को चिन्हित करने का काम किया, लेकिन जानकार बताते हैं कि घरेलू श्रमिकों का पता लगाने के लिए किया गया सर्वे असलियत से काफी दूर है.

सरकारी सर्वे के मुताबिक, नैनीताल में 120, ऊधमसिंह नगर में 193, अल्मोड़ा में 243, चंपावत में 190, बागेश्वर में 29, पिथौरागढ़ में 115, देहरादून में 123, हरिद्वार में 81, चमोली में 11, उत्तरकाशी में 35, रुद्रप्रयाग में 07, टिहरी गढ़वाल में 27 और पौड़ी गढ़वाल में 226 घरेलू नौकर हैं. अब पर्वतीय प्रदेश में घरेलू नौकरों का श्रम कर्मकार कल्याण बोर्ड के तहत पंजीकरण अनिवार्य करने पर विचार किया जा रहा है.

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