राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद अपने राजद के नेताओं व अन्य संसाधन के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी को फिर कामयाब बनाने के लिए मेहनत करेंगे. बिहार में राजद का नया और प्रिय हमसफ़र नीतीश कुमार और दशकों पुरानी मददगार कांग्रेस उत्तर प्रदेश के राजनीतिक अखाड़े में उनके लिए अजनबी बन गई है. अगले संसदीय चुनाव (2019) में प्रधानमंत्री के किस दावेदार को उनकी पार्टी मदद करेगी, इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है, पता चलना आसान नहीं है. इससे संबंधित वह अपना पत्ता नहीं खोल रहे हैं. गैर भाजपा (गैर राजग) राजनीति से प्रधानमंत्री पद के कई उम्मीदवार हैं, जिनमें नीतीश कुमार भी एक हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने से उनको खुशी होगी. उनकी नज़र में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की फेहरिस्त में जद (यू) सुप्रीमो तो हैं, पर कहना कठिन है कि राजद के उम्मीदवार वे होंगे. इसके विपरीत कांग्रेस के शिखर नेता राहुल गांधी को लेकर वह निश्चित नहीं हैं. लालू प्रसाद कभी तो प्रधानमंत्री पद के दावेदार की फेहरिस्त में राहुल गांधी के नाम को शुमार करना भूल जाते हैं, तो कभी राहुल गांधी के नाम आगे न करने के लिए कांग्रेस पार्टी को कोसते हैं. कुछ महीने पहले तक देश की राजनीति में गैर-सांप्रदायिक शक्तियों की एकता के लिए वह कांग्रेस की मजबूती जरूरी बता रहे थे. इसी तरह की स्थिति नीतीश कुमार को लेकर भी है. महागठबंधन सरकार में सबसे बड़े घटक दल होने के बावजूद राजद के नेता नीतीश सरकार को कई मसलों के जरिए निशाने पर लेते रहे हैं. लालू प्रसाद ने इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने पर पहले कभी गंभीरता से काम नहीं किया. अब शहाबुद्दीन को लेकर बयानबाज़ी के चरम पर पहुंच जाने और कांग्रेस के कड़े रुख के बाद वह नीतीश कुमार और जद (यू) विरोधी बयान-मुहिम पर रोक लगाने के लिए सक्रिय हुए. उनके नए रुख के बाद राजद के नेता नीतीश कुमार को लेकर फिलहाल ख़ामोश हैं. लेकिन यह बयान-युद्ध कब तक स्थगित रहता है, यह देखना है.
राजद सुप्रीमो की भावी राजनीति की दिशा को लेकर घनघोर संशय के बावजूद इतना तो तय मान लिया जाना चाहिए कि कांग्रेस के साथ उनके दल का मधुर काल ख़त्म जैसा हो गया है. दोनों दलों में दूरी काफी बढ़ गई है और इसमें कमी के आसार दिख नहीं रहे हैं. यह कहना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी कि दोनों के बीच की खाई को पाटना असंभव है. पर, इतना तो तय है कि इस दूरी को ख़त्म या कम करने के लिए दोनों- कांग्रेस और लालू प्रसाद को अभूतपूर्व ही नहीं, अकथनीय मशक्कत करनी होगी. लालू प्रसाद की राजनीति को हाल-फिलहाल तक कांग्रेस का भरपूर समर्थन मिलता रहा था. राजनीतिक कारणों से अघोषित समर्थन और सहयोग का यह सिलसिला तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल के आरंभिक दिनों में शुरू हुआ था, जो चार-पांच साल पहले तक चला. हालांकि इसका बदला लालू प्रसाद ने भी दिया. 1998 में केंद्र में राजनीतिक संकट के दौर में मुलायम सिंह यादव सहित अनेक राजनेताओं के विरोध के बावजूद सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की उन्होंने मुहिम चलाई थी. श्रीमती गांधी ने उनके इस उपकार को सदैव याद रखा. लेकिन कांगे्रस का निज़ाम बदला, तो नजरिया भी बदल गया. राहुल गांधी की राजनीति में चारा घोटाले के आरोपित (बाद में सज़ायाफ़्ता) लालू प्रसाद को लेकर बहुत सकारात्मक भाव नहीं था, तरज़ीह भी नहीं थी. किसी अदालत से दो साल या उससे अधिक समय के दोष-सिद्ध सज़ायाफ्ता को चुनाव से अलग रखने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के खिलाफ तैयार अध्यादेश के साथ राहुल गांधी के सलूक और फिर मनमोहन सरकार का उससे पीछे हट जाने के कारण लालू प्रसाद चुनावी राजनीति से बाहर हो गए-सत्ताधारी बनने के उनके सपने बियावान में भटक गए. इतना ही नहीं, उस घटना के बाद बिहार में दो-दो आम चुनाव हुए, कांग्रेस और राजद ने साथ-साथ चुनाव लड़ा. इन चुनावों में राहुल गांधी ही नहीं, सोनिया गांधी के भी कार्यक्रम हुए. पर, इन सभी से लालू प्रसाद को अलग रखा गया या कांग्रेस उनसे अलग रही-एक साथ मंच पर आने से बचा गया. दूरी के साथ दोस्ती का यह दुर्लभ राजनीतिक उदाहरण है. बिहार विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस ने लालू प्रसाद को दरकिनार कर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का बेहतर उम्मीदवार बता दिया. उसके दबाव में ही नीतीश कुमार को महागठबंधन का मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया. मुख्यमंत्री के सवाल पर राजद सुप्रीमो चुनाव बाद फैसला के पक्षधर थे. कांग्रेस उपाध्यक्ष ने उनकी राजनीतिक रणनीति को पंक्चर कर दिया. सो, राहुल गांधी को लालू प्रसाद अपनी राजनीति में किस हद तक और किस गहराई में स्वीकार कर सकते हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है.
कांग्रेस नेतृत्व के इस रुख को राजद सुप्रीमो इतर ढंग से समझ रहे हैं और इसकी काट की तलाश में हैं. लालू प्रसाद की इस मानसिक अवस्था की अभिव्यक्ति हाल के उनके राजनीतिक आचरण में बहुत ही सफाई से हुई है और कांग्रेस नेताओं के आचरण में भी. लालू प्रसाद ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस उपाध्यक्ष के राजनीतिक अभियानों व वहां विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन के बाद उसकी संभावित राजनीतिक हैसियत को लेकर कुछ टिप्पणी की. इतना ही नहीं, अगले संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के तौर पर राहुल गांधी की दावेदारी को भी नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की. इन बयानात ने कांग्रेस को सतर्क ही नहीं, राजद सुप्रीमो के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार के लिए पेरित किया. उत्तर प्रदेश के मथुरा में पत्रकारों से बातचीत करते हुए राजद सुप्रीमो ने कांग्रेस उपाध्यक्ष (वास्तविक तौर पर नंबर एक नेता) को जोकर कह दिया. हालांकि बाद में उन्होंने अपनी बात का खंडन किया और मीडिया को बलि का बकरा बनाने की नाकाम कोशिश की. लेकिन जो नुकसान होना था, वह तबतक हो चुका था. इसी तरह, मुलायम सिंह से लंबी बातचीत के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को कामयाब बनाने के लिए काम करने की घोषणा की. यहां तक तो सब कुछ ठीक ही रहा, लेकिन कांग्रेस के बारे में उनकी टिप्पणी ने पार्टी नेतृत्व को परेशान कर दिया. पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने यह कह दिया कि वहां लड़ाई तो सपा और भाजपा में है. भाजपा की हार चाहने वालों को सपा के साथ आना चाहिए, कांग्रेस तो संघर्ष से बाहर है और हद तो तब हो गई, जब देश में प्रधानमंत्री के भावी दावेदारों के नामों को गिनाते हुए उन्होंने मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, जयललिता आदि के तो नाम ज़ोरदार तरीके से लिए, किंतु राहुल गांधी के नाम की चर्चा तक नहीं की.
कांग्रेस के लिए पानी सर से गुजर गया था. इसी बीच मोहम्मद शहाबुद्दीन की जमानत पर रिहाई और उसके बयान से उठे विवाद व राजद नेताओं के मुख्यमंत्री पर परोक्ष हमले की कोशिश ने कांग्रेस को मौका दे दिया. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और राज्य के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी ने राजद को इंगित कर बयान दे दिया कि जिन्हें नीतीश कुमार का कामकाज या उनका शासन पसंद नहीं है, वे चाहें तो गठबंधन से बाहर हो सकते हैं. गठबंधन में रह कर नेता को बदनाम करना राजनीतिक बेईमानी है. शहाबुद्दीन के बयानात से उठे बवंडर के बीच नीतीश कुमार के पक्ष और लालू प्रसाद के खिलाफ महागठबंधन के एक दल के नेता का यह सबसे कठोर व उत्तेजक बयान था. इसने अपना काम भी किया. राजद के नीतीश विरोधियों को शांत करने के लिए लालू प्रसाद को फरमान जारी करना पड़ा. इधर, प्रधानमंत्री के दावेदारों की सूची को लेकर उनकी सफाई भी आई. राजद सुप्रीमो ने सफाई दी-हमने तो उन्हीं नामों की चर्चा की है, जो खुल गए हैं. कांग्रेस ने अब तक राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की और मैं कांग्रेस का प्रवक्ता नहीं हूं. फिर राहुल गांधी का नाम मैं कैसे ले सकता हूं! इतना होने के बाद भी लालू प्रसाद निश्चित नहीं हुए हैं- कांग्रेस को साधने की नए सिरे से कोशिश कर रहे हैं. हालांकि इसका कोई परिणाम फिलहाल आता दिख नहीं रहा है. पर, वह जानते हैं कि उनकी राजनीति को किसी राष्ट्रीय दल की छतरी चाहिए और अभी यह कांग्रेस ही हो सकती है. पर महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस क्या सोचती है.
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की राजनीति उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद क्या होगी? यह राजधानी के सत्ता गलियारे का आम सवाल है. आमतौर पर माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद कांग्रेस से उनके संबंध और ख़राब ही होंगे, तो नीतीश कुमार से भी सद्भाव भरा रिश्ता नहीं रहेगा. पर, सूबे की मौजूदा राजनीतिक बनावट में नीतीश कुमार को सरकार चलाने के लिए राजद की जरूरत है. नीतीश कुमार के लिए राजद की अनिवार्यता कांग्रेस के उनके साथ अटूट संबंध और राजद में बिखराव से ही समाप्त हो सकती है. राजनीति के अदरखाने क्या हो रहा है, यह कहना कठिन है. पर इन बातों की चर्चा हो रही है. वस्तुतः लालू प्रसाद के लिए यह काफी चुनौती भरा दौर है और इससे उबरने के उपाय वह खोज रहे हैं. इसमें अभी कोई सफलता मिलती नहीं दिख रही है. अब उनकी सारी उम्मीदें सर्वोच्च न्यायालय में लंबित चारा घोटालों के मामले पर और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम पर टिक गई है. सर्वोच्च न्यायालय में चारा घोटाले के लंबित मामलों की सुनवाई जल्द ही होनी है. इन मामलों में लालू प्रसाद को यदि राहत मिल जाती है, तो बिहार की राजनीति में अचानक उबाल आ जाएगा. ऐसा ही राहत नहीं मिलने की स्थिति में होगा. पर, तब राजनीति के करवट लेने में थोड़ा वक्त लगेगा. लालू प्रसाद ही नहीं, बिहार की राजनीति भी अदालत की ओर देख रही है. उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस की हैसियत साफ़ हो जाएगी, तो बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार के राष्ट्रीय राजनीतिक फलक पर छाने की चाहत की भी अग्निपरीक्षा होगी. इन दोनों के चुनावी प्रदर्शन लालू प्रसाद को अपनी रणनीति तैयार कर उसे सरजमीं पर उतारने में काफी मददगार होंगे. शहाबुद्दीन प्रकरण से महागठबंधन सरकार को जो भोग भोगना पड़ा हो, राजद सुप्रीमो की राजनीति को ताकत मिली है.उनको लेकर मुसलमानों में फैल रही उदासीनता पर ब्रेक लगा है. फिर भी, भावी चुनावी राजनीति को लेकर लालू प्रसाद का ऊहापोह अभी बना रह सकता है, उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद तक. हालांकि यह सोचना सही नहीं है कि उनके सामने भावी राजनीति का कोई रोड-मैप नहीं होगा. वस्तुतः लालू प्रसाद हंसोड़ प्रकृति के गंभीर राजनेता हैं, पूरी राजनीति उनके दिमाग में बसी रहती है. सो संभव है, राजद को लेकर संशय का मौजूदा माहौल वह खुद बना रहे हों. वह कुछ भी कर सकते हैं, यह सभी मानते हैं.