यह आशंका जताई जा रही थी कि बिहार में भाजपा का विजय रथ थम जाएगा. चुनाव के अंतिम चरण के आते-आते मीडिया में भी यह हवा बन चुकी थी कि लालू यादव बहुत तेजी से आगे बढ रहे है. इसमें किसी को कोई शक नहीं था कि नीतीश कुमार की पार्टी का हश्र ऐसा होगा. इेकिन राजद को ले कर जताई गई तमाम आशंंकाए निर्मूल साबित हो गई. बिहार में भी भाजपा का विजय अभियान जारी रखा. बमुश्किल लालू याद चार सीटों पर जीत हासिल कर सकें वहीं नीतीश कुमार को दो सीटों पर ही संतोष करना पडा. सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? सामान्य तौर पर इसका जवाब यह कह कर दिया जा रहा है कि मोदी लहर के कारण ऐसा हुआ. लेकिन, इसके साथ यह भी देखना होगा कि स्थानीय स्तर पर ऐसे एकौन सी वजहें थी जिसने बिहार के दो धुरंधरों को पटखनी दे दी. नीतीश कुमार के लिए पिछ्हले एक साल से यह कहा जा रहा था और करीबन सर्वमान्य तथ्य बन चुका था कि भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने का खामियाजा नीतीश कुमार को उठाना पडेगा. नीतीश कुमार ने अपने पहले ही शासनकल से सोशल इंजीनियरिंग का काम कर रही थी. नीतीश कुमार का मजबूत वोटर अति पिछड़ा, महादलित और पासमंदा मुसलमान तबका था. साथ ही बीजेपी के साथ गठबंधन की वजह से जद(यू) को सवर्ण वोट भी मिल रहे थे. इेकिन इस गठबंधन के टूटने की वजह से सबसे पहले सवर्ण मतदात इससे अलग हुए. इसके बाद लालू यादव के जेल जाने और फिर जेल से बाहर आने के बाद मुसलमानों का एक बडा तबका लालू यादव के साथ आ गया. नीतीश कुमार के सिंगल प्वायंट एजेंडा मोदी विरोध की वजह से भी वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और इसका खामियाजा नीतीश कुमार को उठाना पदा. इसके अलावा भी और कई स्थानीय कारक थी जिसकी वजह से बिहार की जनता नीतीश सरकार से नाराज चल रही थी. इसमें सबसे बडा वर्ग ठेके पर नियुक्त किए गए कर्मचारियों की थी जिनमें शिक्षकों की संख्या लाखों में थी. पिछले 2-3 सालों में नीतीश कुमार जिन-जिन जिलों में गए वहां के हजारों शिक्षकों ने वेतन के मुद्दें पर उन्हें काले झंडे दिखाएं. जहां तक विकास की बात है, निश्चित तौर पर नीतीश कुमार ने बिहार में विकास के काम कराए लेकिन वे इस मामले में एक सीमा पर जा कर रूक गए या कहे कि उन्हें रूकना पडा. खुद जद(यू) के कई सांसद इस संवाददाता से बातचीत में यह स्वीकार चुके है कि बिहार में अब आगे कोई काम नहीं हो पा रहा है या उसकी कोई गुंजाईश नहीं बनती दिख रही है. साथ ही, इस पार्टी के साथ एक और बडी समस्या थी मजबूत संगठन का अभाव. बीजेपी के साथ गठबंधन की वजह से जद(यू) उन जगहों पर अपना संगठन खडा कर पाने में नाकाम रही जो सीटें पहले बीजेपी के खाते में थी. इस वजह से भी उसे नुकसान उठाना पडा. नरेंद्र मोदी द्वारा खुद को पिछडा वर्ग का बताए जाने से भी बिहार का पिछडा व अति पिछडा वर्ग बीजेपी की तरफ झुका. मुसलमानों के वोट भी जद(यू) और राजद के बीच बंटते चले गए और अंत तक तो यह जद(यू) से शिफ्ट हो कर राजद की ओर चला गया. दूसरी तरफ इस चुनाव में जहां यह कयास लगाया जा रहा था कि लालू यादव इस चुनाव में विजेता बन कर उभरेंगे वहीं ये सारे कयास धरे के धरे रह गए. जद यू के वोट बैंक में बिखराव का सबसे अधिक फायदा राजद को मिलता दिख रहा था, लेकिन चुनाव परिणाम ने इन आशंकाओं को गलत साबित कर दिया. हालांकि, यह सच है कि सालों बाद एक बार फिर लालू यादव का माई समीकरण यानी यादव और मुसलमान एक साथ लालू के पक्ष में आते दिखे लेकिन चुनाव परिणाम ने ये साबित कर दिया कि यादवों का वोट लालू यादव को नहीं मिला या मिला भी तो उसमें अत्याधिक बिखराव हुआ. लालू यादव ने अपने टिकट वितरण में भी माई समीकरण को ही ध्यान में रखा था और अधिकतर सीटों पर इसी वर्ग को मिदान में उतारा था. लेकिन यादव वोट में बिखराव और नीतीश कुमार की तरह ही मोदी विरोध का सिंगल प
्वायंट एजेंडा लालू यादव के लिए भारी पड गया. यूपी की तरह ही बिहार में भी भारी मात्रा में वोटों का ध्रुवीकरण हुआ. निश्चित तौर पर एक तरफ मुसलमानों ने बीजेपी को हराने के लिए टैक्टिकल वोटिंग का रास्ता अपनाया और इसका नतीजा ये हुआ कि बाकी के सारे वोट एक तरफ यानी बीजेपी की ओर चले गए. इसके अलावा, लालू यादव के साथ एक सबसे बडी समस्या ये भी है कि वे अभी तक 91 के दौर की राजनीति से बाहर नहीं निकल सके है. उनका अहंकार, उनका दंभ और उनका अति आत्मविश्वास ही उनका सबसे बडा दुश्मन साबित हुआ. जिस तरीके से उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान एक पुलिस अधिकारी के साथ सलूक किया वो इनके इसी व्यक्तित्व को दिखाता है. सिर्फसांप्रदायिकता के नाम पर अपनी राजनीति करते रहे लालू यादव इस बार जनता का नब्ज पहचानने में नाकाम रहे. निश्चित तौर पर ये चुनाव परिणाम लालू यादव और नीतीश कुमार को ईमानदारी से राजनीतिक चिंतन करने का मौका दे गया है और ये संदेश भी दे गया है कि बदलते वक्त के साथ राजनीति में बने रहने के लिए खुद को और अपनी राजनीति को भी बदलना होगा.
बिहार का चुनावी गणित
पार्टी सीट मत प्रतिशत
बीजेपी-22 29.4 फीसदी
राजद-4 20.1 फीसद
जद(यू)-2 15.8 फीसद
लोजपा-6 6.4 फीसद
रालोसपा-3 3 फीसद
एनसीपी-1 1.2 फीसद
कांग्रेस-2 8.4 फीसद