जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को लागू करने की राह में मुश्किलें पैदा करने वाले संस्थानों पर हमले कर रही है, उसमें राष्ट्रीय हरित अधिकरण पर भी हमले हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. 2010 में एक कानून के जरिए इस प्राधिकरण का गठन हुआ था. पर्यावरण से सम्बन्धित सभी मसलों की सुनवाई का काम एनजीटी के पास है. इसका गठन इसलिए किया गया था ताकि पर्यावरण से सम्बन्धित मसलों की सुनवाई जल्दी से और विशेषज्ञता के साथ हो. सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय ही इसके निर्णयों को बदल सकता है. ऐसे में अपने विकास मॉडल को लागू करने को उतावली सरकार के लिए इस स्वतंत्र अभिकरण की मौजूदगी खटकने वाली है.
मई, 2014 में इस सरकार के सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही सत्ता के गलियारों में यह चर्चा शुरू हुई कि एनजीटी के अधिकार कम किए जा सकते हैं. जिस कानून के जरिए इसका गठन हुआ है, उसमें किसी संशोधन की कोई प्रत्यक्ष कोशिश नहीं हुई. लेकिन वित्त अधिनियम, 2017 के जरिए यह काम हुआ. इसमें ऐसे प्रावधान किए गए जो एनजीटी समेत सभी अभिकरणों पर लागू होंगे. इसके जरिए ट्राइब्यूनलों में नियुक्तियों के लिए अर्हता और सेवा शर्तें तय करने की बात की गई है. मौजूदा नियमों के तहत सर्वोच्च न्यायालय का कोई मौजूदा या सेवानिवृत्त जज या फिर किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश एनजीटी का प्रमुख हो सकता है. लेकिन अब इसे बदलकर यह किया जा रहा है कि जिसकी पात्रता उच्चतम न्यायालय का जज बनने की होगी, उसे एनजीटी का प्रमुख बनाया जा सकता है.
इसका मतलब यह हुआ कि जिस वकील के पास किसी उच्च न्यायालय में काम करने का 10 साल का अनुभव होगा, वह भी एनजीटी का प्रमुख बन सकता है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए यही पात्रता है. अभी यह व्यवस्था है कि एनजीटी के सदस्यों का चयन उच्चतम न्यायालय के जज की अध्यक्षता वाली समिति करती है. नए नियमों के मुताबिक, यह काम सरकार करेगी. इसका दीर्घकालिक असर एनजीटी के निर्णयों पर दिखेगा, क्योंकि न्यायिक पृष्ठभूमि वाले विशेषज्ञों की संख्या घट जाएगी. साथ ही इसकी स्वतंत्रता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
यह दुखद है. एनजीटी की स्वतंत्रता कम करने की कोशिश ऐसे वक्त में हो रही है, जब इसने यह साबित किया है कि नरेंद्र मोदी के पसंद की एक परियोजना में इसकी अहम भूमिका हो सकती है. पर्यावरण कार्यकर्ता एमसी मेहता द्वारा 1985 में दायर एक जनहित याचिका के बाद 1986 गंगा एक्शन प्लान शुरू किया गया था. इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों को शामिल किया गया था. 1993 में इसका दूसरा चरण शुरू हुआ और गंगा की सहयोगी नदियों यमुना, दामोदर और महानदी को इसमें शामिल किया गया. इस बीच मेहता की याचिका पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई होती रही. 2015 में मोदी सरकार ने इसे नमामि गंगे कार्यक्रम नाम दे दिया. 2015 से 2020 के बीच 20,000 करोड़ रुपए खर्च करने की योजना बनी. 7,000 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन कोई सुधार दिख नहीं रहा.
2014 में उच्चतम न्यायालय ने एमसी मेहता के मामले को एनजीटी को सौंप दिया. 13 जुलाई को एनजीटी ने कहा कि गंगा सफाई पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद कोई सुधार नहीं हुआ. इसने अपने अहम फैसले में यह भी कहा कि गंगा के दोनों किनारों पर 100 मीटर के अंदर कोई भी निर्माण कार्य नहीं होगा और 500 मीटर के दायरे में कोई कचरा नहीं फेंका जा सकेगा. साथ ही कानपुर में गंगा में गंदगी डालने वाले चमड़ा कारखानों को दो हफ्ते के अंदर किसी और जगह पर जाना होगा. हालांकि, अभी यह फैसला नदी के एक खास हिस्से के लिए है, लेकिन एनजीटी आने वाले दिनों में दूसरे हिस्सों से जुड़े मसले को भी देखेगी.
इस न्यायिक हस्तक्षेप की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें निगरानी के लिए एक तंत्र बनाने की बात की गई है. पहले की तरह ये जिम्मेदारी राज्यों को नहीं दी गई है, क्योंकि राज्य ऐसा कर नहीं पा रहे थे. एनजीटी की यह पहल प्रभावी परिणाम दे सकती है. लेकिन इस संस्था की स्वतंत्रता का बने रहना न सिर्फ इस मामले के लिए जरूरी है बल्कि अन्य पर्यावरणीय मसलों के लिए भी इसकी आवश्यकता है. इस बात के लिए इंतजार करना होगा कि इस फैसले के बाद क्या मोदी सरकार एनजीटी की स्वतंत्रता को बनाए रखने की जरूरत को समझेगी.
– साभार: इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली