नरेंद्र मोदी ने आर्टिकल 370 का मामला उठाया है. भाजपा इसे समाप्त करना चाहती है, लेकिन वह अपने शासनकाल के दौरान ऐसा करने का साहस नहीं दिखा सकी. वहीं कांग्रेस न स़िर्फ इस मसले से किनारा करना चाहती है, बल्कि इस पर किसी भी तरह की चर्चा नहीं करना चाहती है. कांग्रेस के लिए यह एक प्रतिबंध है, क्योंकि कश्मीर का मतलब धर्मनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता का मतलब कांग्रेस. कम से कम कांग्रेसी लोगों के लिए तो धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब यही है.
जम्मू और कश्मीर का मुद्दा भारतीय राजनीति में विवादों का केंद्र हो गया है. राज्य की चर्चा करने मात्र से पाखंड शुरू हो जाता है. कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है, लेकिन वास्तविकता में राज्य के साथ देश के अन्य हिस्सों की अपेक्षा सौतेला व्यवहार किया जाता है. दंडकारण्य में सेना नहीं लगाई जा सकी. हमें बताया गया कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सेना से इस बात की अपेक्षा नहीं की जाती कि वह अपने देश के नागरिकों पर गोली चलाएगी. कश्मीर में अफस्पा क़ानून लागू है. यहां पर कभी भी इंटरनेट और मोबाइल ब्लॉक किया जा सकता है, यहां तक कि घाटी में प्रधानमंत्री की रैली को भी रोका जा सकता है. लेकिन अगर ऐसा ही प्रयास कोलकाता में करने की हिमाकत की जाए, तो परिणाम देखने लायक होंगे.
नरेंद्र मोदी ने आर्टिकल 370 का मामला उठाया है. भाजपा इसे समाप्त करना चाहती है, लेकिन वह अपने शासनकाल के दौरान ऐसा करने का साहस नहीं दिखा सकी. वहीं कांग्रेस न स़िर्फ इस मसले से किनारा करना चाहती है, बल्कि इस पर किसी भी तरह की चर्चा नहीं करना चाहती है. कांग्रेस के लिए यह एक प्रतिबंध है, क्योंकि कश्मीर का मतलब धर्मनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता का मतलब कांग्रेस. कम से कम कांग्रेसी लोगों के लिए, तो धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब यही है.
यादें धुंधली हैं, लेकिन जहां तक आर्टिकल 370 का सवाल है, इसका उदय तब हुआ था जब जम्मू और कश्मीर भारत में मिलने वाला था. पाकिस्तानी सेना ने आदिवासी डकैतों की तरह घाटी पर हमला कर दिया था और घाटी पर लगभग उसी तरह क़ब्ज़ा कर लिया था जैसे भारत ने हैदराबाद पर किया था. लेकिन सौभाग्यवश हरिसिंह का गठजो़ड भारत से समय पर हो गया था और सेना ने वक्त रहते घाटी को सुरक्षित बचा लिया. इसके बाद काफ़ी दिक्कतें तब पैदा हो गईं, जब इसे लेकर संयुक्त राष्ट्र में एक अपील की गई. कांग्रेस देश के किसी भी राज्य की जनता का लोकप्रिय परामर्श चाहती थी, लेकिन इस मसले पर हरिसिंह को समझाना मुश्किल था. वहीं शेख अब्दुल्ला की बहुत इच्छा थी कि इस मसले पर जनमत संग्रह कराया जाए, उनके साथ इस बात का वादा भी किया गया.
आर्टिकल 370 ‘लायन ऑफ कश्मीर’ के साथ किए गए उसी वादे का परिणाम था. लेकिन जल्द ही नेहरू जनमत संग्रह के अपने वादे से मुकर गए, जो कि संयुक्त राष्ट्र समझौते का हिस्सा था. जब शेख अब्दुल्ला ने इसे महसूसस किया, तो पाकिस्तान के साथ बातचीत की कोशिश की थी. 1953 में उन्हें बिना ट्रायल चलाए जेल भेज दिया गया था. उसी समय आर्टिकल 370 एक मृत पत्र साबित हो गया था, स़िर्फ एक पुराने वादों का पुलिंदा और भारत का संयुक्त राष्ट्र में कम भरोसा भी साफ़ प्रदर्शित हो गया था. कश्मीर को उसी के बाद से अभी तक एक कॉलोनी की तरह ट्रीट किया गया, एक विभाजित और असामान्य हिस्से की तरह. मुख्यमंत्री दिल्ली के रास्ते ही बनाए और हटाए जाते रहे. शेख अब्दुल्ला को छो़डा भी उसी तरह गया, जिस प्रकार उन्हें गिरफ्तार किया गया था. वे पंगु बन गए थे और फिर इसके बाद राज्य उन्हे अनुवांशिक जागीर के रूप पुरस्कार स्वरूप दे दिया गया. लेकिन यह तभी संभव हो पाया, जब कई सारे चुनावों में धांधली कर ली गई. एकमात्र 1989 के दंगों के बाद ही भारतीय सरकार के स्वभाव में राज्य को लेकर थो़डा परिवर्तन आया.
आर्टिकल 370 पर किसी भी तरह की बहस में इसकी मूल संवेदना और इसे लागू करने के अंतर के बारे में सवाल उठाए जाएंगे. कश्मीर का सवाल भारत की राष्ट्रभावना पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है. कश्मीरी पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं के अधिकारों संबंध में जानकारी बहुत कम है. अगर यह सच है कि कश्मीरी महिलाएं राज्य में संपत्ति तभी ख़रीद सकती हैं, जबकि वे किसी बाहरी आदमी से शादी नहीं करेंगी. इसका मतलब है कि राज्य से बाहर के पुरुषों साथ विदेशियों की तरह बर्ताव किया जाता है, लेकिन बाहरी औरतों के साथ नहीं.
यह केवल लिंगभेद ही नहीं, बल्कि यह एक राष्ट्र की तरह भारत की सोच पर पर सवाल ख़डे करता है. सवाल यह है कि कश्मीरी महिलाओं को संपत्ति ख़रीदने के लिए राज्य के निवास प्रमाण प्रत्र की आवश्यकता क्यों है? अगर कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है, तो देश का कोई भी नागरिक राज्य में अपनी संपत्ति क्यों नहीं ख़रीद सकता? क्या आर्टिकल 370 स्थानीय महिलाओं और देश के अन्य भाग के नागरिकों को संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोक रहा है, जबकि उसी वक्त में केंद्र सरकार जब चाहे राज्य में अपनी मनमर्ज़ी कर सकती है. वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना इस बात को लेकर डटी हुई है कि राज्य में स़िर्फ वहां के नागरिकों को ही नौकरी दी जानी चाहिए, न कि बाहरी राज्य के लोगों को. तमिलनाडु की सरकार श्रीलंका में तमिलों के अधिकारों के मसले को लेकर अपनी अलग ही विदेश नीति चाहती है और प्रधानमंत्री पर अपनी इच्छाएं पूरी करने का दबाव भी बनाती है. ऐसी स्थिति में क्या हर राज्य के पास अपना एक आर्टिकल 370 होना चाहिए?
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