भारतीय राजनीति में सियासी पार्टियों के बनने और उसके बिखरने का इतिहास कोई नया नहीं है. सोशलिस्ट पार्टी से लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियां भी स्वयं को टूटने से नहीं बचा पाईं. हालांकि इस ़फेहरिस्त में ज़ल्द ही आम आदमी पार्टी का नाम भी जुड़ सकता है, क्योंकि पार्टी में अंदरूनी कलह ज़ोरों पर है. लिहाज़ा लोकसभा चुनाव के नतीज़ों के बाद आम आदमी पार्टी में बिखराव तय है. पार्टी के भीतर चल रहे घमासान और केजरीवाल की अधिनायकवादी नीतियों का जायजा ले रहे हैं चौथी दुनिया संवाददाता अभिषेक रंजन सिंह
आम आदमी पार्टी के ज़रिए राजनीति में बदलाव की उम्मीद कर रहे लोग इन दिनों बेहद निराश हैं. इसमें कोई शक नहीं कि सोलह मई को उनकी मायूसी और बढ़ने वाली है, क्योंकि इसी दिन देश भर से लोकसभा के चुनाव परिणाम आने वाले हैं. ज़ाहिर है ये नतीजे आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़ जाएंगे. संयोग से दिल्ली में जन्मी इस पार्टी की सबसे ज़्यादा दुर्गति यहीं होने वाली है. बाकी देश के अलग-अलग राज्यों में चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी की हालत क्या होने वाली है, इसका अंदाज़ा भी सहज लगाया जा सकता है.
दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मैं दो महत्वपूर्ण घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगा. पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे अश्विनी उपाध्याय ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया था. इसमें लक्ष्मीनगर से आम आदमी पार्टी के विधायक रहे विनोद कुमार बिन्नी, अन्ना हजारे के पूर्व ब्लॉगर रहे राजू पारूलकर के अलावा, राकेश गुप्ता और अशोक अग्रवाल भी मौजूद थे. इस मौ़के पर अश्विनी उपाध्याय ने अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी अपनी नीतियों और सिद्धांतों से भटक चुकी है. उनके मुताबिक़, आम आदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हो चुका है. जो समर्पित कार्यकर्ता सच कहने की हिम्मत करता है, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. पार्टी को मिले चंदे में हुई धांधली का खुलासा करते हुए उपाध्याय ने कहा कि करोड़ों रुपयों का कोई हिसाब-किताब नहीं है. उन्होंने अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाते हुए कहा कि पार्टी की ओर से क़रीब 70 लोकसभा उम्मीदवारों के नाम पहले से तय थे. उनके मुताबिक़, इन सीटों के लिए क़रीब 10 हज़ार से ज़्यादा लोगों से साक्षात्कार लिए गए थे, लेकिन पूर्व पत्रकार आशुतोष (चांदनी चौक), जरनैल सिंह (पश्चिमी दिल्ली), राजमोहन गांधी (पूर्वी दिल्ली), योगेंद्र यादव (गुड़गांव), ख़ालिद परवेज़ (मुरादाबाद) और अंजलि दमानिया (नागपुर) समेत कई प्रत्याशियों के नाम पहले से ही तय थे. विनोद कुमार बिन्नी के अनुसार, आम आदमी पार्टी किसी व्यक्ति विशेष की पार्टी नहीं थी, लेकिन केजरीवाल की मेहरबानी से यह पार्टी अब अपने आदर्शों से भटक चुकी है. दूसरी घटना बीते छह अप्रैल की है, जब आम आदमी सेना के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने जंतर-मंतर पर अरविंद केजरीवाल का पुतला फूंका. इस प्रदर्शन में वे लोग भी शामिल हुए, जिन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को वोट दिया था. इस मौ़के पर अश्विनी उपाध्याय ने अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधते हुए कहा कि केजरीवाल नवीन जिंदल और सीआईए की दलाली कर रहे हैं. इन घटनाओं से साफ़ ज़ाहिर है कि आम आदमी पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. पिछले साल दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही आम आदमी पार्टी को राजधानी की सात लोकसभा सीटों में कितनी सीटें मिलेगी, इसका जवाब पार्टी के बड़े नेताओं के पास भी नहीं है. आख़िर ऐसी कौन सी वजह है, जिसने आम आदमी पार्टी को आज हाशिए पर खड़ा कर दिया है. दरअसल, आम आदमी पार्टी की यह हालत किसी विपक्षी पार्टियों ने नहीं बनाई, बल्कि स्वयं अरविंद केजरीवाल और उनके बड़बोले पार्टी प्रक्ताओं ने बनाई. निश्चित रूप से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विरोध की लहर चल रही है, शायद वैसी लहर जो आपातकाल के बाद हुए चुनावों में देखा गया था. पिछले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को जनता ने भरपूर समर्थन दिया. उम्मीदों से कहीं ज़्यादा सीटें उसे दिल्ली में मिली और अरविंद केजरीवाल अप्रत्याशित रूप से दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए. हालांकि इस बात की चर्चा करना व्यर्थ है कि केजरीवाल सरकार बनाने के लिए अपने किन बयानों से पलटे और किन आदर्शों की तिलांजलि दी. दिल्ली की आम जनता को इससे भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि वह केजरीवाल को एक मसीहा के रूप में देख रहा था, जो उसे महंगाई और बेरोज़गारी से निजात दिला सके, लेकिन जनता की उम्मीदें महज 49 दिनों में ही टूटकर बिखर गईं, जब केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में लोकपाल क़ानून पारित न होने की वजह से अपना इस्तीफ़ा दे दिया.
अपने इस्ती़फे को भले ही केजरीवाल या उनकी पार्टी जायज ठहरा रहे हों, लेकिन सच तो यह है कि जब भी आम आदमी पार्टी के पतन की कहानी लिखी जाएगी, उस समय ज़ल्दबाज़ी में लिया गया अरविंद का यह ़फैसला याद रखा जाएगा. भारतीय राजनीति में वैसे तो कई पार्टियों के बनने और टूटने का इतिहास दर्ज़ है, लेकिन डेढ़ साल पहले बनी किसी पार्टी का दुखांत इस तरह होगा, ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी. वैसे आम आदमी पार्टी के प्रति सहानुभूति रखने वाले यह तर्क ज़रूर दे सकते हैं कि चुनाव के नतीजों से किसी पार्टी का भविष्य तय नहीं होता. बेशक, उनका तर्क अपनी जगह सही है, लेकिन आम आदमी पार्टी को तर्क की इस कसौटी पर नहीं रखा जा सकता. अरविंद केजरीवाल जिनका मानना है कि मौजूदा राजनीति जन विरोधी है. उनके मुताबिक़, राजनीति ऐसी होनी चाहिए, जिसमें जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी हो. केजरीवाल का यह विचार उत्तम है, लेकिन अफ़सोस वह और उनकी अद्वितीय राजनीति दिल्ली के दायरे से बाहर नहीं निकल सकी.
केजरीवाल भले ही अपनी राजनीति को गांधी दर्शन पर आधारित मानते हों, लेकिन दुख की बात यह है कि वह स्वयं को गांधी, जयप्रकाश और लोहिया से भी श्रेष्ठ मानते हैं. उनकी पार्टी में कई ऐसे नेता हैं, जिसने अरविंद केजरीवाल को इस खुशफ़हमी का शिकार बना दिया है.
क्या चुनावों के बाद टूट जाएगी आम आदमी पार्टी?
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