लोकसभा चुनाव के नतीज़े उम्मीदों के अनुसार नहीं आने पर सपा नेतृत्व ने 36 दर्जा प्राप्त मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया है. आशंका है कि आने वाले दिनों में कुछ मंत्रियों पर भी गाज गिर सकती है. उन विधायकों से भी पूछताझ की जाएगी, जिनके विधानसभा क्षेत्र में पार्टी को कम वोट मिले. वैसे सपा में ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है, जिनका मानना है कि छोटे ही नहीं बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई होनी चाहिए. नाम न छापने की शर्त पर सपा के कुछ नेता कहते हैं कि भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ ज़रूरत से ज़्यादा ज़हर उगलना, आज़म ख़ान के विवादित बयान,चुनाव में ठोस रणनीति का अभाव, मुजफ्फरनगर दंगों के समय बनी सपा सरकार की नकारात्मक छवि, एक वर्ग विशेष के पीड़ितों के प्रति ज़्यादा झुकाव और बलात्कार जैसी घटनाओं पर पार्टी के बड़े नेताओं का विवादित बयान सपा के लिए भारी पड़ गया. उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली हार के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव को सपा प्रदेश अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए.
जब सपने टूटते हैं तो,उसका हश्र काफ़ी बुरा होता है. इस बात का अनुभव मुलायम सिंह यादव और मायावती से अधिक किसी को नहीं होगा. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के समय बसपा और सपा प्रमुखों ने कई सपने संजो रखे थे. तीसरे मोर्चे के सहारे मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले हुए थे, वहीं मायावती केंद्र में बैलेंस ऑफ पॉवर बनना चाहती थीं, लेकिन नरेंद्र मोदी की आंधी ऐसी चली कि नेताजी और बहनजी के सभी सपने चकनाचूर हो गए. एक तरफ जहां मुलायम सिंह यादव का मुस्लिम-यादव समीकरण, तो वहीं दूसरी तरफ मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला भी ज़मींदोज़ हो गया. मुलायम सिंह यादव यूपी में पांच सीटें जीत कर कम से कम अपने परिवार की इज़्जत बचाने में कामयाब रहे, लेकिन बसपा का तो खाता भी नहीं खुला. इस बीच मोदी की आंधी में भाजपा के ऐसे-ऐसे नेता भी संसद भवन पहुंच गए, जो अपने दम पर लोकसभा तो दूर विधानसभा का चुनाव जीतने में भी सक्षम नहीं थे. जिस मोदी को माया और मुलायम जनता की नज़र में ख़लनायक बनाना चाहते थे,वह महानायक की तरह उभरे. यूपी के इतिहास में कोई भी ग़ैर कांगे्रसी दल 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीतने का करिश्मा नहीं कर पाया था. कांगे्रस यह करिश्मा स़िर्फ एक बार कर पाई थी. वह भी तब जब इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए आम चुनाव में सभी 85 सीटें उसकी झोली में आ गईं थी.
बसपा और सपा का शीर्ष नेतृत्व हार की समीक्षा ईमानदारी से करने की बजाय छाती पीट-पीट कर आत्म मंथन का ड्रामा कर रही हैं. इससे इन दलों का विशेष भला होने वाला नहीं है. यह बात दोनों दलों के आकाओं को समझना होगा.
साल के अंत में बारह विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर होंगे उप चुनाव बसपा और सपा नेता अपनी ग़लतियों से सीख लेने की बात कह रहे हैं. अलबत्ता इसकी परीक्षा भी छह माह के भीतर हो जाएगी. इस बार लोकसभा चुनाव में यूपी से बारह विधायक सांसद चुन लिए गए हैं. वहीं अगर मोदी वाराणसी की सीट नही छोड़ते हैं, तब भी मुलायम को मैनपुरी या आजमगढ़ में से एक सीट छोड़ने पर इस सीट के लिए मतदान होगा. छह महीने में क्या कुछ हालात बदलते हैं,यह जिज्ञासा सभी में रहेगी. वैसे इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि लोकसभा चुनाव जीतने वाले सभी बारह विधायक भाजपा के हैं. ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि मोदी लहर में उनकी सीटों का बाल बांका भी नहीं होगा.
सत्ता में रहते समाजवादी पार्टी का ग्राफ गिरना और मात्र पांच सीटों पर सिमट जाना चौंकाने वाला रहा. वर्ष 2012 में अखिलेश यादव ने सूबे की कमान संभालते वक्त नारा दिया था-यूपी हुई हमारी, अब दिल्ली की बारी है. सपाई एक सुर में कह रहे थे कि नेताजी को प्रधानमंत्री बनाना है,लेकिन सपा के मंसूबे धरे के धरे रह गए. सपा के कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव,शाहिद मंजूर और राममूर्ति वर्मा न केवल चुनाव हारे,बल्कि तीसरे नंबर पर रहे. सपा के अधिकांश मंत्री और विधायक चुनावी जंग में लड़खड़ाते दिखे. सपा ने रणनीति के तहत विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय के अलावा तीन कैबिनेट, चार राज्यमंत्रियों और आठ विधायकों को चुनाव मैदान में उतारा था. माता प्रसाद डुमरियागंज से तीसरे नंबर पर रहे. फ़िलहाल वह डुमरियागंज लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत इटवा से विधायक हैं. अंबेडकर नगर से चुनावी जंग में कूदे राममूर्ति वर्मा को भी करारी हार का सामना करना पड़ा. सपा विधायक नंदिता शुक्ला, राजमती निषाद,़ गुलाम मोहम्मद,जफ़र आलम, रामेश्वर सिंह,मित्रसेन यादव,बेंचई सरोज और राधेश्याम आदि तमाम विधायकों को भी हार का सामना करना पड़ा. समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी के अनुसार, सपा ने भले ही उत्तर प्रदेश में पांच सीटें जीती हों, लेकिन उनकी स्थिति कांग्रेस और बसपा के मुक़ाबले बेहतर रही है. कांग्रेस को 2009 में 17.25 प्रतिशत मत मिले थे, जबकि 2014 में 7.50 प्रतिशत. वहीं बसपा को 2009 में 27.42 और 2014 में 19.60 प्रतिशत मत मिले है. समाजवादी पार्टी को लोकसभा चुनाव 2014 में 22.26 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि 2009 में 23.26 फ़ीसद मत मिले थे.
हालांकि बसपा प्रमुख मायावती इस हक़ीक़त का सामना करने की बजाय इस पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहीं हैं. उनकी यह दलील कि लोकसभा चुनाव में क़रारी हार के बाद भी बसपा का वोट बैंक बढ़ा है,यह समझ से परे है. ग़ौरतलब है कि राज्य की 33 लोकसभा सीटों पर पार्टी का मत प्रतिशत घटा है. यह स्थिति तब है, जब मतदान प्रतिशत में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई थी. क़रीब-क़रीब सभी लोकसभा क्षेत्रों में दो से तीन लाख वोटर बढ़ने की वजह से मतदान प्रतिशत आठ से दस प्रतिशत के क़रीब बढ़ गया. बसपा के सबसे अधिक 1,25,332 वोट वाराणसी में कम हुए. उसी तरह कैराना संसदीय सीट पर 1,22,845,सहारपुर में 1,19,774 फिरोजाबाद में 1,00,801,कन्नौज में 94,102,जौनपुर में 81,779, मैनपुरी में 76,406,बरेली में 75947, कुशीनगर में 69,9979,लखनऊ में 69,161, गाज़ीपुर में 68,279,बलिया में 62,410 वोट कम मिले. दलित मतदाताओं के भाजपा के साथ जाने से सुरक्षित सीटों पर भी बसपा कमज़ोर पड़ गई. पिछली लोकसभा में राज्य की 20 सीटों पर जीत करने वाली बसपा का इस बार खाता तक नहीं खुला. निश्चित रूप से यह बसपा और मायावती के लिए एक बड़ा झटका है. वर्ष 2009 में बसपा के क़ब्ज़े वाली बीस सीटों में से सात सीटें मसलन, कैराना, सहारनपुर, जौनपुर, गौतमबुद्धनगर, मुजफ्फरनगर,सलेमपुर और फूलपूर में पार्टी को पिछली बार से भी कम वोट मिले थे. आरक्षित सीटों की बात करें, तो सतरह लोकसभा सीटों में से इटावा,बहराइच और जालौन जैसे संसदीय क्षेत्रों पर पिछली बार के मुक़ाबले बसपा का वोट बैंक घट गया. पिछले चुनाव में बसपा सतरह सुरक्षित सीटों पर तेरहवें नंबर पर थी, जो इस बार ग्यारहवें स्थान पर आ गई. हालांकि वर्ष 2009 के आम चुनाव के मुक़ाबले इस बार 47 लोकसभा सीटों पर बसपा के वोट ज़रूर बढ़े हैं,लेकिन सात सीटें ऐसी हैं, जहां बसपा प्रत्याशी को पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले एक लाख से अधिक मत मिले. मिसाल के तौर पर शाहजहांपुर में 103149,खीरी में 112099,मेरठ में 11564, मिसरिख में 117585,सीतापुर में 125413,मोहनलाल गंज में 130086 और फतेहपुर में 132063 मत अधिक मिले. इसके बावजूद बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली. दरअसल, भाजपा का वोट प्रतिशत बसपा समेत अन्य दलों के मुक़ाबले तेज़ी से बढ़ा. ऐसे में बसपा के लिए संतोष की बात यह है कि 34 लोकसभा सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही.