मैं गुरु जी का ही उदाहरण देता हूं. गुरु जी ने यह कहा कि हम लोग इस तरह का मन बनाते हैं कि वह बिल्कुल अनुशासित होता है और जो हम लोग कहेंगे, वही सब लोग मानते हैं. इनके संगठन का एक ही सूत्र है, एकचालकानुवर्तित्व. ये लोकतंत्र को नहीं मानते, बहस में भी इनका विश्वास नहीं. इनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है. उदाहरण के लिए गुरु जी ने अपने बंच ऑफ थॉट्स में इस बात पर खेद प्रकट किया है कि जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है. जमींदारी ख़त्म होने पर गुरु जी को बड़ी तकलीफ है, बड़ी पीड़ा है, लेकिन ग़रीबों के लिए उनके मन में दर्द नहीं. मैंने आरएसएस वालों से कहा कि आपको हिंदू संगठन की कल्पना छोड़कर सभी धर्मों और सभी संप्रदायों के लोगों को अपनी संस्था में स्थान देना पड़ेगा. आपके जो वर्ग-संगठन हैं, उन्हें जनता पार्टी के दूसरे वर्ग-संगठन के साथ मिला देना पड़ेगा. तो उन लोगों ने कहा कि यह इतनी जल्दी कैसे होगा? बड़ी दिक्कतें हैं, लेकिन हम धीरे-धीरे बदलना चाहते हैं.
जब हम लोग पार्टी का नया संविधान बना रहे थे, तो हमारी संविधान उप-समिति ने एक सिफारिश की थी कि ऐसे किसी संगठन के सदस्यों को, जिसके उद्देश्य, नीतियां एवं कार्यक्रम जनता पार्टी के उद्देश्य, नीतियों एवं कार्यक्रम से मेल नहीं खाते, पार्टी का सदस्य नहीं बनने देना चाहिए. इसका विरोध करने की किसी को भी कोई आवश्यकता नहीं थी, यह तो एक बिल्कुल सामान्य बात थी, लेकिन यह विचारणीय बात है कि अकेले सुंदर सिंह भंडारी ने इसका विरोध किया. बाकी सभी सदस्यों, जिनमें रामकृष्ण हेगड़े, श्रीमती मृणाल गोरे, श्री बहुगुणा, श्री वीरेन शाह थे और मैं स्वयं था, ने मिलकर एक राय से यह ़फैसला लिया था कि हम सुंदर सिंह भंडारी का विरोध करेंगे. 1976 के दिसंबर महीने में इस पर विचार करने के लिए जब बैठक हुई, तो अटल जी ने जनसंघ और आरएसएस की ओर से एक पत्र लिखा था राष्ट्रीय समिति को, जिसमें उन्होंने यह चर्चा की थी कि कुछ नेताओं में इस पर आपसी रजामंदी थी कि आरएसएस का सवाल नहीं उठाया जा सकता, लेकिन कई नेताओं ने मुझे बताया कि इस तरह की कोई रजामंदी नहीं थी और इस तरह का कोई वचन नहीं दिया गया था, क्योंकि उस समय तो आरएसएस सामने था ही नहीं. मैं यह कहना चाहता हूं कि मैं उस वक्त जेल में था और अगर ऐसा कोई गुप्त करार था भी, तो मैं उसका भागीदार नहीं हूं. जनता पार्टी का जो चुनाव घोषणा-पत्र बना, मैं बिल्कुल सफाई के साथ कहना चाहता हूं, उस पर आरएसएस की विचारधारा का जरा भी असर नहीं था, बल्कि एक-एक मुद्दे को सफाई के साथ स्पष्ट किया गया था.
क्या यह बात सही नहीं है कि जनता पार्टी का चुनाव घोषणा-पत्र धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र एवं गांधीवादी मूल्यों पर आधारित समाजवादी समाज की चर्चा करता है, उसमें हिंदू राष्ट्र का कहीं कोई उल्लेख नहीं? अल्पसंख्यकों के अधिकारों की, समान अधिकार की चर्चा और यह भी कहा गया है कि उनके अधिकारों की पूरी रक्षा की जाएगी. और, गुरु जी तो कहते हैं कि जो अल्पसंख्यक लोग हैं, उन्हें नागरिकता के भी अधिकार नहीं रहने चाहिए. उन्हें हिंदू राष्ट्र के बिल्कुल अधीन होकर रहना पड़ेगा. जनता पार्टी ने विकेंद्रीकरण की बात कही और गुरु जी तो घोर केंद्रीयकरणवादी थे. वह तो राज्यों को ही समाप्त करना चाहते थे, राज्य विधान मंडलों को ही समाप्त करना चाहते थे, राज्य के मंत्रिमंडलों को समाप्त करना चाहते थे, लेकिन जनता पार्टी ने तो विकेंद्रीकरण की चर्चा की. यानी राज्यों की स्वायत्तता पर जनता पार्टी आक्रमण नहीं करना चाहती. समाजवाद की चर्चा की गई, सामाजिक न्याय की चर्चा की गई, समानता की चर्चा की गई. क्या जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में यह कहा था कि वर्ण-व्यवस्था रहेगी और शूद्रों को दूसरों की सेवा में ही अपना जीवन बिताना चाहिए? जनता पार्टी ने तो यह कहा था कि पिछड़ों को हम लोग पूरा मौक़ा देंगे. इतना ही नहीं, विशेष अवसर देंगे. और, यह कहा था कि उनके लिए सरकारी सेवाओं में 25 से 33 प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी.
हां, यह बात सही है कि आरएसएस के लोगों ने दिल से इस चुनाव घोषणा-पत्र को नहीं स्वीकारा. मेरी यह शिकायत रही और मैंने कुशाभाऊ ठाकरे को एक पत्र में कहा भी था कि मेरी तरफ़ से शिकायत यह है कि चर्चा के दौरान आप बहुत जल्दी चीजों को मान जाते हैं, लेकिन दिल से नहीं मानते, इसलिए आपके बारे में शक पैदा होता है. यह मैंने उन्हें बहुत पहले कहा था और मेरे मन में आरएसएस के बारे में शुरू से संदेह रहे, डॉक्टर साहब के जमाने से रहे. लेकिन, इसके बावजूद तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए हम लोगों ने ज़रूर उनसे तालमेल किया. लोकनायक जयप्रकाश जी की यह इच्छा थी कि एक पार्टी बने, तो चूंकि चुनाव घोषणा-पत्र में किसी तरह का समझौता नहीं किया गया था, इसलिए हमने इस बात को स्वीकार कर लिया. लेकिन, साथ ही साथ कहना चाहता हूं कि मैं शुरू से इसके बारे में बिल्कुल स्पष्ट था अपने मन में, कि अगर जनता पार्टी को एकरस होकर एक सुसंबद्ध पार्टी के रूप में काम करना है, तो दो काम अवश्य करने पड़ेंगे. नंबर एक, आरएसएस वालों को अपनी विचारधारा बदलनी पड़ेगी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की कल्पना को स्वीकारना पड़ेगा. नंबर दो, आरएसएस परिवार के जो संगठन हैं, जैसे भारतीय मज़दूर संघ, विद्यार्थी परिषद आदि को अपना अलग अस्तित्व समाप्त करना पड़ेगा और जनता पार्टी के समानधर्मी संगठनों के साथ स्वयं को विलीन करना पड़ेगा. मैं इसके बारे में शुरू से ही स्पष्ट था और चूंकि मुझे जनता पार्टी के मज़दूर एवं युवा संगठनों की देखरेख का भार दिया गया था, मैंने यह लगातार कोशिश की कि विद्यार्थी परिषद अपने अस्तित्व को मिटाए, भारतीय मज़दूर संघ अपने अस्तित्व को मिटाए. लेकिन, ये लोग अपनी स्वायत्तता की चर्चा करने लगे. वस्तुत: ये लोग हमेशा नागपुर के आदेश से चलते हैं, एक चालकानुवर्तित्व का सिद्धांत मानते हैं.
मैं गुरु जी का ही उदाहरण देता हूं. गुरु जी ने यह कहा कि हम लोग इस तरह का मन बनाते हैं कि वह बिल्कुल अनुशासित होता है और जो हम लोग कहेंगे, वही सब लोग मानते हैं. इनके संगठन का एक ही सूत्र है, एकचालकानुवर्तित्व. ये लोकतंत्र को नहीं मानते, बहस में भी इनका विश्वास नहीं. इनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है. उदाहरण के लिए गुरु जी ने अपने बंच ऑफ थॉर्ट्स में इस बात पर खेद प्रकट किया है कि जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है. जमींदारी ख़त्म होने पर गुरु जी को बड़ी तकलीफ है, बड़ी पीड़ा है, लेकिन ग़रीबों के लिए उनके मन में दर्द नहीं. मैंने आरएसएस वालों से कहा कि आपको हिंदू संगठन की कल्पना छोड़कर सभी धर्मों और सभी संप्रदायों के लोगों को अपनी संस्था में स्थान देना पड़ेगा. आपके जो वर्ग-संगठन हैं, उन्हें जनता पार्टी के दूसरे वर्ग-संगठन के साथ मिला देना पड़ेगा. तो उन लोगों ने कहा कि यह इतनी जल्दी कैसे होगा? बड़ी दिक्कतें हैं, लेकिन हम धीरे-धीरे बदलना चाहते हैं. वे इस तरह की गोलमोल बातें करते रहते थे. उनके आचरण को देखकर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनको बदलना है नहीं. खासकर जून 1977 के विधानसभा चुनाव के बाद जब उनके हाथ में चार राज्यों एवं एक केंद्र शासित प्रदेश का शासन आ गया और उत्तर प्रदेश एवं बिहार में उन्हें बहुत बड़ी हिस्सेदारी मिल गई. उसके बाद वे सोचने लगे कि अब हमें बदलने की क्या ज़रूरत है. हम लोगों ने चार राज्य फतह कर लिए हैं, धीरे-धीरे अन्य राज्यों को करेंगे, फिर केंद्र भी हमारे हाथ में आएगा. बाकी जो नेता हैं, वे बुड्ढे नेता हैं, आज नहीं तो कल मर जाएंगे और किसी नए शख्स को नेता हम बनने नहीं देंगे. इसलिए आपने देखा होगा कि आर्गनाइजर, पांचजन्य आदि सभी अख़बारों में जनता पार्टी के किसी भी नेता को उन्होंने नहीं बख्शा. मेरे ऊपर तो उनका विशेष अनुग्रह रहा है, विशेष कृपा रही है. मुझे गाली देने में अपने अख़बारों का जितना स्थान उन्होंने खर्च किया, उतना तो शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नहीं किया होगा.
एक अर्से तक इन लोगों से मेरी बातचीत होती रही. एक दफा तो मुझे याद है मेरे घर में, बंबई में बाला साहब देवरस आए. फिर उसके बाद 71 के चुनाव के बाद एक दफा मैं उनसे मिला. इमर्जेंसी के पहले एक दफा माधवराव मुले से मेरी बातचीत हुई. चौथी बार माधवराव मुले और बाला साहब देवरस से मई 1977 में मेरी बात हुई थी. तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी, लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनके दिमाग का जो किवाड़ है, वह बंद है और उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता. बल्कि आरएसएस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देता है. पहला काम वे यही करते हैं कि बच्चों की, युवकों की विचार प्रक्रिया फ्रीज़ कर देते हैं, जड़ बना देते हैं. उसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते. तो कोशिश मैंने की.
एक अर्से तक इन लोगों से मेरी बातचीत होती रही. एक दफा तो मुझे याद है मेरे घर में, बंबई में बाला साहब देवरस आए. फिर उसके बाद 71 के चुनाव के बाद एक दफा मैं उनसे मिला. इमर्जेंसी के पहले एक दफा माधवराव मुले से मेरी बातचीत हुई. चौथी बार माधवराव मुले और बाला साहब देवरस से मई 1977 में मेरी बात हुई थी. तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी, लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनके दिमाग का जो किवाड़ है, वह बंद है और उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता. बल्कि आरएसएस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देता है. पहला काम वे यही करते हैं कि बच्चों की, युवकों की विचार प्रक्रिया फ्रीज़ कर देते हैं, जड़ बना देते हैं. उसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते. तो कोशिश मैंने की. एक बार मैंने ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई. जनता पार्टी के सभी संगठनों के प्रतिनिधि उसमें आए, लेकिन भारतीय मज़दूर संघ ने उसका बहिष्कार किया. इतना ही नहीं, अकारण मुझे गालियां भी दीं. विद्यार्थी परिषद और युवा मोर्चा के साथ भी विलीनीकरण की बात चलाई गई, लेकिन वे लोग हमेशा अलग रहे, क्योंकि आरएसएस अपने को सुपर पार्टी के रूप में चलाना चाहता है. ये लोग जीवन के हर अंग को न केवल छूना चाहते हैं, बल्कि उस पर कब्जा करना चाहते हैं.
जार्ज फर्नांडिस ने उसी समय लेख लिखा इंडियन एक्सप्रेस में. उसमें उन्होंने इसी विचार को लेकर दत्तोपंत ठेंगड़ी का एक उदाहरण दिया, लेकिन दत्तोपंत ठेंगड़ी ने कहा कि पूरे समाज में हम लोग छा जाना चाहते हैं, जीवन का कोई पहलू हम लोग छोड़ेंगे नहीं, सब पर कब्जा करेंगे. यह कोई नया विचार नहीं है ठेंगड़ी का. यह तो वी और बंच ऑफ थॉट्स में गुरु जी ने जगह-जगह पर कहा है. और, कोई भी सर्वसत्तावादी संगठन जीवन के किसी भी पहलू को स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहता. वह कला पर छा जाएगा, संगीत पर छा जाएगा, अर्थनीति पर छा जाएगा, संस्कृति पर छा जाएगा. फासिस्ट संगठन का यही तो धर्म है. दरअसल, ये लोग हमारी जनता पार्टी पर कब्जा करना चाहते थे. ये लोग सरकारों पर कब्जा करना चाहते थे. एक साथ इन्होंने कई नेताओं को लालच दिखाया था प्रधानमंत्री बनाने का. इधर ये मोरारजी भाई को भी अंत तक कहते रहे कि आप ही को रखेंगे हम लोग. ये चरण सिंह को भी बीच-बीच में कहते थे कि आपको बनाएंगे. ये जगजीवन राम को भी कहते थे कि हम आप ही को बनाएंगे. ये चंद्रशेखर को भी कहते थे, ये जार्ज फर्नांडिस को भी कहते थे. हां, उन्होंने कभी मुझे यह कहने का साहस नहीं किया. एक दफा अटल जी से मैंने कहा, तो उन्होंने कहा, नानाजी ने न केवल तुमको, बल्कि मुझको भी कभी नहीं कहा. न वे आपको बनाना चाहते हैं, न कभी मुझको बनाना चाहते हैं. ऐसा मजाक में अटल जी ने मुझसे कहा. बहरहाल, वे मुझसे इसलिए इस तरह की बात नहीं करते थे, क्योकि मैं न किसी की वंचना करता हूं, न किसी के द्वारा वंचित होता हूं. वे सोचते थे कि इसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, तो इसे कहने से क्या फ़ायदा? यह तो और सावधान हो जाएगा.
ये लोग समय-समय पर क्या कहते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं. क्या आरएसएस के नेताओं ने कहा है कि गुरु गोलवरकर के जो विचार हैं, उन्हें हमने त्याग दिया? स़िर्फ अटल जी कहते हैं कि राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, समाजवाद, सामाजिक न्याय आदि धारणाओं को स्वीकारना चाहिए, उसके बिना अब नहीं चला जा सकता. लेकिन, यह केवल अटल जी कहते हैं, बाकी संघियों पर तो मेरा विश्वास ही नहीं. ये लोग जेल में माफी मांगते थे रिहाई हासिल करने के लिए. बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी का अभिनंदन किया था, जब वह सुप्रीम कोर्ट में राज नारायण के केस में जीतीं. तो, इन लोगों के वचनों पर मेरा विश्वास नहीं है. मेरी स्पष्ट राय है कि आरएसएस के नेताओं को अगर वे पार्टी से निकाल देते, राष्ट्रीय समिति से, उनके सदस्यों पर पाबंदी लगा देते और विशेषकर नानाजी, सुंदर सिंह भंडारी एंड कंपनी को पार्टी से निकाल देते, तभी मैं विश्वास कर सकता था.