सोलहवीं लोकसभा के चुनावी नतीजे हम सभी के सामने है. कई मायनों में यह नतीजा ऐतिहासिक है, तो इसका श्रेय काफी हद तक प्रचार अभियान को दिया जाना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी ने जिस व्यापक स्तर पर और तकनीक से लेकर पारंपरिक तरीके से चुनाव प्रचार किया, वह अपने आप में अनूठा था. हालांकि, कई मायनों में इन चुनावों में राजनीतिक दलों ने चुनाव लड़ने का गैर-राजनीतिक तरीका अख्तियार किया. कांग्रेस से लेकर भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस, जेडी-यू तक ने प्रचार अभियान में राजनीतिक रुख अपनाने की जगह गैर-राजनीतिक रवैया अपनाया. चुनावी भाषणों और राजनीतिक बयानों की जगह चुनाव आयोग का रुख किया. यह ज़ाहिर बात है कि चुनावों में नेता विरोधी दलों-नेताओं को अपने भाषणों में निशाना बनाते ही हैं, लेकिन पार्टियां उनका जवाब देने की जगह चुनाव आयोग से शिकायत करती नजर आईं. चाहे वह अमेठी में आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास का यह कहना कि अमेठी में कोई ईरानी-पाकिस्तानी आ जाए, यहां की जनता उन्हें ही चुनेगी. दूसरा मामला नरेंद्र मोदी से संबंधित है. मोदी ने जब वडोदरा से अपना नामांकन दाखिल किया, तो पहली बार उन्होंने अपने हलफनामे में पत्नी का नाम लिखा. इसे लेकर कांग्रेस और कुछ नेताओं ने कानूनी तरीके से उनकी उम्मीदवारी खारिज करने की मांग की. इसके अलावा मुद्दों से भटककर नेताओं ने एक-दूसरे की व्यक्तिगत जिंदगी को भी चुनावी मुद्दा बना दिया. एक तरफ नरेंद्र मोदी की पत्नी का मामला सामने आया, तो कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर अन्य नेताओं ने मोदी पर निशाना साधा. वहीं, कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी पार्टियां, आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं में विचाधारा को लेकर भी स्पष्ट तौर पर भी कमी देखी गई. उनके कार्यकर्ता किसी विचारधारा के तहत चुनावों में प्रचार करने की जगह, किसी भी कीमत पर जीत के लिए जद्दोजेहद करते नजर आए. इसी प्रक्रिया में राजनीतिक दलों ने विभिन्न दलों से पार्टी छोड़कर आए नेताओं को टिकट थमाया. कांग्रेस नेता जगदम्बिका पाल भाजपा और मोदी के कट्टर आलोचकों में से अव्वल थे, लेकिन चुनावों से ऐन पहले उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया और उन्हें टिकट भी मिल गया. इसी तरह उत्तराखंड के दिग्गज नेता सतपाल महाराज से लेकर केंद्रीय मंत्री डी पुरंदेश्वरी ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की राह पकड़ ली.
क्षेत्र के पुराने कार्यकर्ताओं की जगह फिल्मी सितारों को कई टिकट दिए गए. मसलन, भोजपुरी के गायक-अभिनेता मनोज तिवारी पहले समाजवादी पार्टी के टिकट पर गोरखपुर से चुनाव लड़ चुके थे. भाजपा ने तिवारी को इस बार दिल्ली से टिकट दिया और वे जीत भी गए. चंडीगढ़ में भाजपा की किरण खेर एक तरफ थीं, तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की गुल पनाग. कांग्रेस ने जौनपुर से भोजपुरी के ही अभिनेता रवि किशन को टिकट थमाया था, तो गुजरात से भाजपा ने परेश रावल को, पश्चिम बंगाल में बप्पी लाहिड़ी, बाबुल सुप्रियो को टिकट दिया. तृणमूल कांग्रेस ने मुममुन सेन को टिकट दिया और वे जीती भीं. आप ने लखनऊ सीट पर भाजपा के राजनाथ सिंह के मुकाबले जावेद जाफरी को उतारा.
इसके अलावा विचारधारा को लेकर काफी सख्त मानी जाने वाली सीपीआई-एमएल जैसी पार्टी खुद को छोड़कर आम आदमी पार्टी के लिए प्रचार करते दिखे. बनारस में सीपीआई-एमएल जैसी राजनीतिक पार्टी मोदी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल के समर्थन में प्रचार-प्रसार करते नजर आई. इनसे जाहिर होता है कि राजनीतिक दलों के लिए विचारधारा की जगह जीत सबसे बड़े मुद्दा था. आम आदमी पार्टी की शाजिया इल्मी सांप्रयादियक अपील से संबंधित विवाद में फंसती नजर आई, तो प्रियंका गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच नीच राजनीति का मामला गर्मा गया. इसेक बाद मोदी और ममता बनर्जी के बीच बांग्लादेशी विस्थापन के मुद्दे पर भी काफी विवाद हुआ.
राजनीतिक दलों के गैर-राजनीतिक होने का एक उदाहरण यह भी है कि चुनाव आयोग के पास शिकायतों का अंबार लग गया. हालांकि, चुनाव आयोग के पास कुल कितनी शिकायतें आईं, इसका सटीक आंकड़ा सामने नहीं आया है, लेकिन राजनीतिक बयानों की काट को लेकर चुनाव आयोग के पास शिकायती पत्र लेकर जाना यह साबित करता है कि पार्टियां एक-दूसरे से राजनीतिक जमीन पर एक-दूसरे से मुकाबला करने की जगह गैर-राजनीतिक यानी कानूनी तरीके का सहारा ले रही थीं. चुनाव आयोग के पास पिछले तीन लोकसभा चुनावों के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन पर क्या कार्रवाई की गई, इसका कोई आंकड़ा नहीं है. सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त की गई जानकारी में कहा गया है कि चुनाव आयोग किसी भी नियम के उल्लंघन पर कार्रवाई के लिए कोई निश्चित समय सीमा तय नहीं करता है. इसमें कहा गया है कि कार्रवाई प्राथमिकता के आधार पर की जाती है.
Adv from Sponsors