हरियाणा विधानसभा चुनाव में नामांकन दाखिल करने और नाम वापसी की प्रक्रिया समाप्त हो गई है. राज्य की 90 सीटों के लिए रिकॉर्ड 109 महिलाओं समेत कुल 1350 उम्मीदवार मैदान में हैं. भारतीय राष्ट्रीय लोकदल, कांग्रेस, भाजपा एवं हरियाणा जनहित कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के साथ-साथ इनका खेल बिगाड़ने के लिए कांग्रेस से अलग हुए विनोद शर्मा की जनचेतना पार्टी और विवादों के घेरे में रहे पूर्व मंत्री गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी भी मैदान में हैं. जहां लोकसभा चुनाव में मिली शानदार जीत के बाद भाजपा का खेमा उत्साहित दिख रहा है, वहीं राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद अपनी खोई हुई साख बचाने की हर मुमकिन कोशिश में लगी है.
दूसरी तरफ़ इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) ने अपने संस्थापक चौधरी देवीलाल के जन्मदिन के अवसर पर जींद में एक विशाल रैली के रूप में शक्ति प्रदर्शन करके राज्य की सत्ता पर अपनी मज़बूत दावेदारी पेश की है.
अगर पिछले तीन विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखा जाए, तो राज्य में भाजपा का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा है. उसे 2000 में छह, 2005 में दो और 2009 में चार सीटें मिली थीं. 2000 में आईएनएलडी की सरकार बनी थी, जबकि 2005 एवं 2009 में कांग्रेस सत्ता पर काबिज़ हुई थी. जहां तक वोट प्रतिशत का सवाल है, तो भाजपा को इनमें से किसी भी चुनाव में 10 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले. लेकिन, हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की 10 सीटों में से सात पर क़ब्ज़ा कर लिया, जबकि कांग्रेस को एक और आईएनएलडी को दो सीटों के साथ संतोष करना पड़ा. भाजपा का वोट प्रतिशत 35 था, वहीं कांग्रेस को 22 और आईएनएलडी को 23 प्रतिशत वोट मिले.
इन नतीजों के आधार पर और राज्य में 10 सालों से सत्तारूढ़ एवं घोटालों-घपलों का आरोप झेल रही कांग्रेस को देखते हुए भाजपा को लग रहा है कि 19 अक्टूबर को नतीजे आने के बाद वह राज्य में पहली बार अकेले ही सरकार बना सकती है. हरियाणा जनहित कांग्रेस के साथ भाजपा का गठबंधन टूटने के पीछे यही विश्वास था. लेकिन क्या भाजपा के लिए सत्ता का रास्ता आसान होगा? जहां तक लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी का सवाल है, तो देश के चुनाव विश्लेषक मानते हैं कि जहां लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय एवं बड़े मुद्दों पर लड़े जाते हैं, वहीं विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं. इसलिए लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी विधानसभा में कामयाबी की ज़मानत नहीं दे सकती. इस तथ्य के कई उदाहरण मौजूद हैं. हाल में संपन्न उपचुनाव में भाजपा को कई प्रतिकूल परिणामों का सामना करना पड़ा. हालांकि उपचुनाव के परिणाम गंभीरता से नहीं लिए जाते. बहरहाल, राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने में जुटी भाजपा को संगठन के अंदर ही विद्रोह के सुर सुनाई देने लगे हैं. लोकसभा चुनाव में भाजपा की कामयाबी के बाद दूसरी पार्टियों के बहुत सारे नेता भी उसमें शामिल हो गए थे, जो विधानसभा चुनाव में टिकट न मिलने से नाराज़ हैं. हिसार से पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुके जयवीर गोदारा ने इस बार टिकट बंटवारे में धांधली का आरोप लगाते हुए इसकी सीबीआई से जांच कराने की मांग कर डाली. ज़ाहिर है, ऐसे विद्रोही स्वर भाजपा को चुनाव में ऩुकसान पहुंचा सकते हैं. उधर चुनाव प्रक्रिया के शुरुआती दिनों में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कई जनसभाएं की, लेकिन उनमें उतनी भीड़ नहीं जुटी, जितनी लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए उम्मीद की जा रही थी. ऐसे में भाजपा की सारी उम्मीदें स्टार प्रचारक एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर टिकी हुई हैं. भाजपा आम तौर पर चुनाव से पहले ही अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा कर देती है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. हालांकि मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में इंद्रजीत सिंह एवं कैप्टन अभिमन्यु के नाम लिए जा रहे हैं, लेकिन आधिकारिक रूप से पार्टी ने कोई घोषणा नहीं की है. इसका नुक़सान भी पार्टी को हो सकता है.
राज्य में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पिछले दस सालों से विराजमान है. ज़बरदस्त सत्ता विरोधी लहर से जूझ रही हुड्डा सरकार के ख़िलाफ़ आमजन के गुस्से का मुख्य कारण कई घोटालों का खुलासा होना, सरकार में शामिल मंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप और लचर क़ानून व्यवस्था आदि है. इन सबका परिणाम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस देख चुकी है. दूसरी तरफ़ लोकसभा चुनाव के समय से कांग्रेस नेताओं द्वारा पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब भी जारी है. साथ ही चुनाव से ठीक पहले पार्टी की अंदरूनी कलह भी सबके सामने है. जहां एक तरफ़ चौधरी वीरेंद्र सिंह जैसे नेता पार्टी छोड़कर चले गए, वहीं विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर और मुख्यमंत्री हुड्डा के बीच चली खींचातानी भी अख़बारों की सुर्ख़ियां बनी. ज़ाहिर है, इसका नकारात्मक असर पार्टी के प्रदर्शन पर पड़ेगा. कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में भी पूर्ण बहुमत के साथ चुनकर नहीं आई थी. उसे राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 40 सीटें मिली थीं, जबकि आईएनएलडी के 31 उम्मीदवार चुनाव जीते थे. आईएनएलडी ने 25 सितंबर को जींद में एक विशाल रैली करके न स़िर्फ विधानसभा चुनाव में अपनी ज़बरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई, बल्कि इस रैली में जनता परिवार को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की घोषणा और मंच पर अकाली दल (बादल) के नेता प्रकाश सिंह बादल की मौजूदगी का लाभ भी पार्टी को मिलेगा. यह अलग बात है कि आईएनएलडी को छोड़कर जनता परिवार के किसी घटक की राज्य में कोई खास मौजूदगी नहीं है, लेकिन आईएनएलडी के पक्ष में इसका एक सकारात्मक संदेश ज़रूर जाएगा. पिछले चुनावों के नतीजे साबित करते हैं कि राज्य के कई क्षेत्रों में आईएनएलडी की पकड़ बहुत मज़बूत है.
अगर 2000 के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि तब आईएनएलडी को 47 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस को 21. कांग्रेस को 31 और आईएनएलडी को 30 प्रतिशत वोट मिले थे. एक प्रतिशत अधिक वोट हासिल करने के बावजूद कांग्रेस को कम सीटें मिली थीं, जिसका कारण यह था कि कांग्रेस की मौजूदगी पूरे राज्य में थी. लिहाज़ा, इसमें कोई शक नहीं कि राज्य में बहुकोणीय मुकाबला होगा.
ऐसी स्थिति में आईएनएलडी सबसे ज़्यादा फ़ायदे में रहेगी. जहां तक पार्टी के अंदरूनी अनुशासन का सवाल है, तो आईएनएलडी सत्ता के अन्य दो दावेदारों यानी कांग्रेस और भाजपा से कहीं अधिक व्यवस्थित पार्टी नज़र आ रही है. लिहाज़ा, इन सारे तथ्यों का जायजा लेने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि आईएनएलडी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आएगी. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो फिलहाल आईएनएलडी ही ऐसी पार्टी है, जो अकेले सरकार बनाने की स्थिति में दिख रही है.
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