भारत में खेती किसानों की जीवनशैली का अटूट हिस्सा है. लहलहाती हुई फसलों में किसान अपना जीवन देखता है, लेकिन मोदी सरकार किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण कर उनके जीवन की डोर बीच में ही तो़डने पर आमादा है. सरकार किसानों को मुआवजा चाहे जितना भी दे दे, लेकिन किसान को तो उसकी ज़मीन चाहिए. क्या ये संशोधन किसान परिवारों के युवा लोगों की आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप हैं? भूमि अधिग्रहण संशोधन किसानों के सामाजिक लक्ष्य की पूर्ति और अधिग्रहीत भूमि के मालिकों के हितों की रक्षा कर सकते हैं? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब मोदी सरकार के पास नहीं है. भूमि अधिग्रहण के बहाने विकास की कोरी कल्पना से भला मोदी सरकार के अच्छे दिन आने से रहे. कहना ग़लत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में मोदी सरकार का यह बिल किसानों पर वज्रपात की तरह गिरेगा, जिसकी मार सहन कर पाना उनके वश की बात नहीं.
भूमि अधिग्रहण बिल लोकसभा में पास हो गया है, लेकिन राज्यसभा में कब पास होगा, पास होगा भी या नहीं या फिर इस बिल को अध्यादेश के माध्यम से लागू किया जाएगा, यह देखने वाली बात होगी. इस बिल को लेकर मोदी सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि यह बिल किसान विरोधी और पूंजीपतियों का हितैषी है. पहली नज़र में यह साफ मालूम होता है कि सरकार इस बिल को शहरीकरण, औद्योगिकीकरण एवं बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर ज़मीन अधिग्रहण को बढ़ावा देने का काम करने जा रही है. मतलब अधिग्रहण तो हो, पर विवाद कम से कम हो. यही कारण है कि किसानों को अभी से ही लगने लगा है कि गैर कृषि क्षेत्र को होने वाला कोई भी लाभ चाहे वह स्कूल जाने वाले बच्चे हों, अस्पताल की तलाश कर रहे मरीज हों, सस्ते मकान की प्रतीक्षा कर रहे आम जन हों, छोटे कारोबारी या बड़े उद्यमी हों, यह सब हासिल होगा उनकी अधिग्रहित ज़मीन के बल पर.
बेहतर मुआवज़े तथा पुनर्वास व पुनर्स्थापना के सुझावों का किसानों को लालच देकर येन केन प्रकारेण उन्हें इस अधिग्रहण पर सहमत कराने का सरकार भरसक प्रयास कर रही है. अब तक लागू होते रहे भूमि अधिग्रहण कानून और अब उसके नए मसौदों से भी ये बात साफ़ है कि सरकार चाहे भाजपा की हो या किसी अन्य पार्टी या मोर्चे की, चाहे वह केंद्र की सरकार हो या फिर प्रांत की सरकार हो, वह कृषि भूमि अधिग्रहण पर अंकुश लगाने वाली नहीं है. पिछले 20 सालों से लागू हो रही इन्हीं नीतियों के तहत पूंजीपतियों के अधिकारों को बढ़ाया जा रहा है. किसान के पक्ष में हिमायती दिखने वाला किसी भी तरह का मसौदा क्यों ना आ जाए, सरकार उसके जरिए व किसानों से जमीन का मालिकाना हक छुड़ाने, छीनने से बाज़ नहीं आ सकती. सरकार यह भूल जाती है कि वो अपने मसौदे या संशोधनों के जरिये किसानों की जमीनोंे का अधिग्रहण ही करती है, उनकी जमीन उनके पास नहीं रहने देती. और यही किसानों की सबसे ब़डी चिंता है. किसान कहते हैं कि हमारी ज़मीन हमसे भला कोई जबरदस्ती कैसे ले सकता है? क्या सरकार के पास किसानों के इस सवाल का कोई जवाब है कि अगर उनकी ज़मीन अधिग्रहण में चली जाएगी, तो वे किस ज़मीन पर खेती करेंगे, वे क्या खाएंगे? आप मुआवज़े चाहे जितना दे दें, लेकिन क्या किसानों की ज़मीन उन्हें वापस मिल पाएगी? जब सरकार सार्वजनिक कंपनियों को निजी हाथों में सौंपती जा रही है तो इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले समय में सार्वजनिक हित के नाम पर किया जा रहा भूमि अधिग्रहण धनाढ्य कंपनियों के हित में नहीं किया जाएगा? निजी कंपनियों का कोई सामाजिक सरोकार या लोक कल्याणकारी कार्यक्रम नहीं होता है. उनका उद्देश्य अधिक से अधिक निजी हित को साधते हुए मैक्सिमम प्रॉफिट होता है. इसलिए इस दौर में सार्वजनिक हित के नाम पर शहरीकरण औद्योगिकीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास में ऊपर से थोड़ा बहुत सार्वजनिक हित भले ही दिखाई पड़ जाए, लेकिन उसके भीतर धनाढ्य कंपनियों का हित व मालिकाना अधिकार ही छिपा हुआ है. ज़रूरी है कि आम किसान व अन्य ग्रामीण इस बिल के झांसे में न आकर भूमि अधिग्रहण का निरंतर विरोध जारी रखें.
सवाल, जो बेहद अहम हैं
प्रस्तावित संशोधनों का आंकलन करते समय सरकार से यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि क्या ये संशोधन किसान परिवारों के युवा लोगों की आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप हैं और क्या जिस परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, उसके सामाजिक लक्ष्य की पूर्ति और अधिग्रहीत भूमि के मालिकों के हितों की रक्षा इन संशोधनों में शामिल है.
सरकार की नीयत में खोट
हर किसी का सपना है कि शहर में उसका एक मकान हो. उसके बच्चे भी कॉन्वेंट में प़ढें. उन्हें बेहतर इलाज की सुविधा मिले, अच्छी नौकरी मिले, अगर ये सारी सुविधाएं उनके गांवों में या गांवों के आसपास मिलने लगे, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन रुक जाएगा. आखिर क्यों नहीं सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है. ताकि ग्रामीणों को सारी सुविधाएं उनके गांवों के आसपास ही मिलेंे. अगर ये सुविधाएं किसानों या उनके बच्चों को पास में ही मिलती हैं तो वे भला क्यों शहरों में बसने जाएंगे. कहीं सरकार गांवों का विकास इसी उद्देश्य से तो नहीं करना चाहती कि किसानों की भूमि के अधिग्रहण जैसे मौके उसके हाथ से निकल जाएंगे. किसान स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल की सुविधाएं जरूर चाहता है, लेकिन अपनी ज़मीन के अधिग्रहण की शर्त पर नहीं.
हर तरफ विरोध के स्वर
सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे हों या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल या फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, सभी नये भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में हैं. उत्तर प्रदेश के नोएडा से महाराष्ट्र के रायगढ़ तक, पंजाब के लुधियाना से तमिलनाडु के तिरुवल्लूर तक हाल के वर्षों में भूमि अधिग्रहण का विरोध जमकर होता रहा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इस संशोधन को किसान विरोधी करार देते हुए कहा था कि ज़मीन का मुद्दा दिल्ली में केंद्र के अधीन आता है, लेकिन फिर भी दिल्ली सरकार किसी की भी ज़मीन को जबरन अधिग्रहित नहीं होने देगी. हालांकि केजरीवाल यहां सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि दिल्ली में खेती की जमीन है ही नहीं, लेकिन दूसरे राज्यों के मामले में केजरीवाल या अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों का बयान तर्कसंगत है. कोई वजह नहीं दिखती कि नया क़ानून इन विरोधों को ध्वस्त कर देगा.
इसके विपरीत आशंका ये है कि ज़मीन मालिकों की सहमति की अनिवार्यता ख़त्म कर देने से विरोध और प्रबल होगा. ये क़ानून 2013 के उस क़ानून को रद्द करता है, जिसमें भूमि अधिग्रहण के लिए ज़मीन मालिकों की सहमति अनिवार्य की गई थी.
सत्ता पक्ष का दावा
मोदी सरकार इस विधेयक से बहुत उम्मीद लगाए हुए है. उसका कहना है कि यह विधेयक भूमि अधिग्रहण को आसान बनाएगा. इससे औद्योगिक विस्तार को मदद मिलेगी और देश में ताबड़तोड़ कारखाने खुलने लगेंगे. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने ऐलान किया था कि वे भारत को चीन की तर्ज पर एक विशाल औद्योगिक मुल्क बनाएंगे. मोदी सरकार कहती है कि ये विधेयक ज़मीन के मालिकों को पहले से अधिक मुआवज़े का हक़ देता है. हालांकि विपक्ष के अलावा मोदी के कुछ सहयोगी दल भी इस विधेयक को जनविरोधी बता रहे हैं और आंदोलन छेड़ने की धमकी दे रहे हैं. दूसरी तरफ कम से कम दो दशकों का अनुभव भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक के प्रति अधिक उत्साह पैदा नहीं करता है. सरकार कहती है कि संशोधन इन कमियों को दूर करने का उद्देश्य रखता है. यह सरकार को समुचित अधिकार देता है कि वह पीपीपी और लोकहित में चलाई जा रही निजी परियोजनाओं को सहमति और सामाजिक प्रभाव आंकलन जैसे प्रावधानों से छूट मुहैया कराये. यह सुविधा भी पांच अहम क्षेत्रों यानी राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा, ग्रामीण बुनियादी ढांचा और विद्युतीकरण, सस्ते मकान, औद्योगिक कॉरिडोर और पीपीपी आधारित बुनियादी तथा सामाजिक ढांचा योजनाएं, जिनमें भूमि का स्वामित्व सरकार के पास ही रहना है, के लिए ही दी गई है. अन्य प्रमुख संशोधन में प्रस्ताव रखा गया है कि वर्ष 2013 के अधिनियम के तहत हर्जाने और पुनर्वास के प्रावधानों के क्षेत्रों का विस्तार किया जाए, ताकि अधिकाधिक किसान और प्रभावित परिवार इसके दायरे में शामिल हो सकें. ये परिवार फिलहाल इस दायरे से बाहर हैं.
अधर में प्रोजेक्ट!
मोदी सरकार दावा करती रही है कि यूपीए के इस कानून के कारण कई प्रोजेक्ट फंस गए हैं. सवाल यह उठता है कि क्या वाकई भूमि अधिग्रहण के कारण विकास की योजनाएं अटकी पड़ी हैं. उनके पास ज़मीन नहीं है, लेकिन मीडिया में आई ख़बरों पर यकीन करें तो 67 ऐसे प्रोजेक्ट हैं, जिसमें से सिर्फ सात प्रोजेक्ट ही भूमि अधिग्रहण के कारण रुके पड़े हैं. इनकी साझा लागत 53,677 करोड़ ही है. सितंबर 2013 में भूमि विवाद के कारण सिर्फ 12 प्रोजेक्ट में ही बाधा आई थी. जो सात प्रोजक्ट रुके पड़े हैं, उनमें से छह सड़क परियोजनाएं हैं. 60 प्रोजेक्ट पूंजी की कमी से लेकर कई अन्य कारणों के कारण अटके हुए हैं.
कॉरपोरेट लॉबी बिल की समर्थक
कॉरपोरेट लॉबी इस बिल के समर्थन में हां में हां मिला रही है, लेकिन कॉरपोरेट जगत यह भूल जाता है कि ज़मीन आसानी से मिलने भी लगे तो भी देश भर में कारखाने लगाने के लिए बहुत बड़ी पूंजी चाहिए और भारत के पास उतनी पूंजी है नहीं. दूसरी तरफ 2008-09 के बाद अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की माली हालत के कारण विकसित देश निवेश की हालत में नहीं हैं. यानी कुल मिलाकर भूमि अधिग्रहण के बाद भी विकास कार्यों में गति धीमी रहने के आसार हैं.
चार अप्रैल तक इस संशोधित बिल का कानून बनाया जाना ज़रूरी है. अन्यथा अध्यादेश रद्द हो जाएगा. अब राज्यसभा में विपक्ष ने अगर बिल का विरोध जारी रखा तो सरकार को संयुक्त सत्र बुलाना होगा. और वहां बहुमत होने की वजह से सरकार आसानी से अपना काम कर लेगी. उधर, एक और ब़डी समस्या यह है कि किसान संगठन दिल्ली में होने वाली किसान पंचायत की तैयारी में जुटे हैं. सरकार संसद में विपक्ष से तो निपट लेगी, लेकिन किसानों से निपटना आसान नहीं होगा. कुल मिलाकर कहा जाए तो आनेवाले दिनों में सरकार के लिए यह बिल लोहे के चने चबाने के समान है.
भूमि अधिग्रहण पर बवाल
- वर्ष 2007-08 में पश्चिम बंगाल में भूमि अधिग्रहण विरोधी हिंसा में कई लोगों की मौत हो गई थी.
- टाटा कंपनी को कार कारख़ाना लगाने की योजना रद्द करनी पड़ी थी.
- इंडोनेशिया के एक बड़े औद्योगिक समूह की योजनाओं पर भी अमल नहीं हो पाया था.
- जनविरोधों के चलते ही कई वर्षों से दक्षिण कोरियाई कंपनी पॉस्को ओडिशा में दुनिया का सबसे बड़ा स्टील कारख़ाना शुरू नहीं कर पाई है.
- नक्सली हिंसा की वजह से छत्तीसगढ़ में टाटा और एस्सार कंपनियों की योजनाएं भी अटकी हुई हैं.
मुख्य संशोधन
- मोदी सरकार बहुफसली भूमि का अधिग्रहण नहीं करेगी. इस प्रावधान से खेती योग्य ज़मीन अधिग्रहण के दायरे में नहीं आएगी. जबकि पहले खेती योग्य जमीन के अधिग्रहण करने की भी बात थी.
- इंडस्ट्रियल कॉरीडोर के लिए सीमित जमीन लिए जाने का फैसला किया गया है.
- लोकसभा में पास किए गए बिल के मुताबिक सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए होने वाले अधिग्रहण में किसानों की मंजूरी भी जरूरी होगी.
- आदिवासी क्षेत्रों में अधिग्रहण के लिए पंचायत की सहमति जरूरी होगी.
- किसान अधिग्रहण के किसी भी मामले में अपील कर सकेंगे.
- पहले चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में प्रभावित किसानों को मुआवज़ा देने का प्रावधान था, लेकिन किसी को नौकरी नहीं दी जाती थी. संशोधन के बाद लोकसभा में पास हुए बिल में प्रभावित परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी दिए जाने का प्रावधान किया गया है.
- सरकार ने फैसला कर लिया है कि इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए अब रेलवे ट्रैक और हाईवे के दोनों तरफ एक किलोमीटर तक की जमीन का अधिग्रहण किया जा सकता है. संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल के मुताबिक बंज़र ज़मीनों के लिए अलग से रिकॉर्ड रखा जाएगा.
58 दिन,135 खुदकुशी
एक तरफ भूमि अधिग्रहणबिल और दूसरी तरफ प्रकृति की मार झेल रहे किसानों की खुदकुशी के आंकड़े देश में किसानों की दयनीय हालत की कहानी बयां कर रहे हैं. महाराष्ट्र के औरंगाबाद में इस साल के शुरुआती 58 दिनों के भीतर ही 135 किसानों ने खुदकुशी कर ली है. यह जानकारी राज्यसभा में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री मोहनभाई कुंदरिया ने एक सवाल का जवाब देते हुए दी. पिछले तीन साल (2012, 2013, 2014) में ऐसे 662 किसानों ने आत्महत्या की, जो सरकारी नीति के मुताबिक एक लाख रुपये के मुआवजे के हकदार थे. नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, साल 2012 में किसानी के जरिये जीवन-यापन कर रहे 13,754 और वर्ष 2013 में 11,772 लोगों ने आत्महत्या की. शर्म आनी चाहिए सरकार को कि जिस देश में अधिकांश लोग खेती पर निर्भर हैं, उस देश में किसानों को आत्महत्याएं करनी प़ड रही हैं.