राजधानी दिल्ली में आएदिन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करने एवं उसे रद्द करने की मांग को लेकर किसान और राजनीतिक संगठन जुट रहे हैं. हर तऱफ एक आवाज़ सुनाई दे रही है कि नरेंद्र मोदी सरकार कॉरपोरेट्स के लिए काम कर रही है, किसान उसके विकास के एजेंडे में नहीं है. एक तऱफ किसान सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं दूसरी तऱफ संसद में विपक्षी दल एकजुट होकर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध कर रहे हैं और सरकार से पूछ रहे हैं कि ऐसा कौन-सा राष्ट्रवाद है, ऐसा कौन-सा विकास है, जो कि सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए किसानों की सहमति लेना ग़ैर-ज़रूरी समझती है.
बीते पांच मई को दिल्ली के संसद मार्ग पर देश भर से आए तीन सौ जन-संगठनों एवं राजनीतिक दलों ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में एक बार फिर प्रदर्शन किया. प्रदर्शन में मुख्य रूप से वामदलों के किसान एवं मज़दूर संगठनों ने शिरकत की और सरकार को चुनौती दी कि वह भले ही संसद में अध्यादेश किसी भी तरह पारित करा ले, लेकिन किसान किसी भी क़ीमत पर उसे देश में लागू नहीं होने देंगे. इस भूमि अधिकार संघर्ष रैली में शामिल होने महाराष्ट्र के रायगढ़ से आईं उल्का महाजन ने कहा कि कृषि भूमि और मुआवज़े के बीच कोई संबंध नहीं है. यदि आज किसान कमज़ोर है, तो उसकी वजह कृषि नीति है और किसानों के साथ हुए खिलवाड़ का परिणाम है. गुजरात के लोक संघर्ष मोर्चा की प्रतिभा शिंदे ने कहा कि सरकार को शुुक्र मनाना चाहिए कि किसान अभी तक विरोध करने नहीं उतरे हैं. एक इंच ज़मीन को लेकर आमने-सामने की लड़ाई हो जाती है, लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. इसलिए सरकार को किसानों के संयम की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए. उत्तर प्रदेश के कन्हर बांध का विरोध कर रहीं सुकालो देवी गौड़ ने कहा कि ज़मीन हमारे पुरखों की है, हम उसे नहीं छोड़ेंगे और किसी को छीनने नहीं देंगे. हमें अपनी लड़ाई के लिए किसी नेता की ज़रूरत नहीं है, हम दिखा देंगे कि हमारे अंदर कितना दम है. यदि महाराष्ट्र इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एमआईडीसी) के आंकड़ों पर ग़ौर करें, तो महाराष्ट्र में अधिग्रहीत की जा चुकी ज़मीन का 50 प्रतिशत हिस्सा अभी तक इस्तेमाल नहीं हुआ है. सरकार के पास पहले से ही हज़ारों एकड़ अधिग्रहीत ज़मीन है. बावजूद इसके, यदि सरकार कोई सख्त फैसला लेती है, तो वह क़ानून संभालेगी, लोग अपनी ज़मीन संभालेंगे. दरअसल, किसान कृषि से नहीं, कृषि नीतियों से परेशान हैं. किसानों का कहना है कि सरकार भले ही चार गुना मुआवज़ा देने की बात कह रही है, लेकिन रुपये की क़ीमत में भी तो लगातार गिरावट आ रही है. राजधानी दिल्ली में आएदिन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करने एवं उसे रद्द करने की मांग को लेकर किसान और राजनीतिक संगठन जुट रहे हैं. हर तऱफ एक आवाज़ सुनाई दे रही है कि नरेंद्र मोदी सरकार कॉरपोरेट्स के लिए काम कर रही है, किसान उसके विकास के एजेंडे में नहीं है. एक तऱफ किसान सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं दूसरी तऱफ संसद में विपक्षी दल एकजुट होकर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध कर रहे हैं और सरकार से पूछ रहे हैं कि ऐसा कौन-सा राष्ट्रवाद है, ऐसा कौन-सा विकास है, जो कि सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए किसानों की सहमति लेना ग़ैर-रूरी समझती है.
गत 24 फरवरी को देश के कई किसान-मज़दूर और जन संगठनों ने साथ मिलकर दिल्ली में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ लड़ाई का शंखनाद किया था. अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में बजट सत्र की शुरुआत में आयोजित इस रैली का असर संसद के अंदर भी दिखाई पड़ा था. सरकार ने अपने क़दम थोड़े पीछे खींचे थे और 31 दिसंबर के अध्यादेश को नौ संशोधनों के साथ लोकसभा में पारित किया था. एक मुख्य संशोधन करते हुए सरकार ने रेल एवं राष्ट्रीय राजमार्गों के दोनों ओर इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के निर्माण के लिए ली जा रही तीन किलोमीटर ज़मीन के प्रावधान में संशोधन कर उसे एक किलोमीटर कर दिया. सरकार भी जानती है कि ज़मीन किसान को दो वक्त की रोटी के साथ-साथ पीढ़ी दर पीढ़ी आजीविका मुहैया कराती है. सरकार किसानों की ज़मीन तो ले सकती है, लेकिन वह उनके परिवार को स्थायी समाधान देने में सक्षम नहीं है. यही इस भूमि अधिग्रहण के मसले की मूल जड़ है. सरकार भले ही किसानों को उनकी ज़मीन के बदले बाज़ार मूल्य का चार गुना मुआवज़ा देने की बात कह रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा शासित राज्यों में सरकारें किसानों की उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण कर उन्हें महज दो से ढाई गुना मुआवज़ा दे रही हैं. हालांकि, अध्यादेश का विरोध करने वालों पर आरोप लग रहे हैं कि जिन्हें अपने खेतों के नंबर तक नहीं मालूम हैं, वे किसानों के हितों की बात कर रहे हैं, आंदोलन चला रहे हैं. ऐसे में अंदाज़ा हो जाता है कि यह आंदोलन कितनी दूर तक जाएगा.
अधिकांश किसान एवं राजनीतिक संगठनों का कहना है कि 2013 का क़ानून चूंकि सबकी राय लेकर बनाया गया था, इसलिए मजबूरी में उसे स्वीकार करना पड़ा. तब लोगों ने सोचा था कि आने वाले समय में इसमें सकारात्मक बदलाव होंगे, लेकिन अच्छे दिन लाने का वादा करने वाली मोदी सरकार ने किसानों की सहमति जैसा प्रावधान भी क़ानून से बाहर कर दिया. ग़ौरतलब है कि 2013 का क़ानून एक दशक तक चले देशव्यापी परामर्श और संसद में भाजपा के नेतृत्व वाली दो स्थायी समितियों में बड़े पैमाने पर हुई बहस के बाद बना था. उस वक्त वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन संसद की स्थायी समिति की अध्यक्ष थीं और उस क़ानून की समर्थक थीं. लेकिन, सत्ता में आते ही भाजपा की विचारधारा बदल गई और वह लोकतांत्रिक ढांचे की अनदेखी करके 1894 वाले क़ानून की ओर लौट रही है. सरकार ज़मीन अधिग्रहण अध्यादेश को यह कहकर देशहित में ज़रूरी बता रही है कि इसका मकसद धीमी पड़ी विकास दर तेज करना और वे परियोजनाएं शुरू करना है, जो रुकी हुई हैं. लेकिन, सूचना का अधिकार क़ानून के अंतर्गत प्राप्त जानकारी के अनुसार, फिलहाल कुल 804 परियोजनाएं रुकी हुई हैं, जिनमें से 78 प्रतिशत निजी परियोजनाएं हैं. इनमें केवल आठ प्रतिशत यानी 66 परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण की वजह से रुकी हैैं, जबकि अधिकांश परियोजनाएं फंड की कमी या अन्य कारणों की वजह से बंद हैं. ऐसे में, ज़रूरी परियोजनाओं के लिए रास्ता बनाने की बात कहकर देश के ग़रीबों, किसानों एवं मज़दूरों के साथ अन्याय क्यों किया जा रहा है? सरकार यह अध्यादेश पारित करने में रुचि तो दिखा रही है, लेकिन लोगों तक अपनी बात सही तरीके से नहीं पहुंचा पा रही है. जबकि विरोधी दल अपनी बात किसानों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोशिश शहरी क्षेत्रों तक सीमित है या उन क्षेत्रों में, जहां लोग पहले से भूमि अधिग्रहण से पीड़ित हैं. विरोधी दल उन किसानों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पा रहे हैं, जो सरकार की भविष्य की योजनाओं से प्रभावित होने वाले हैं. ऐसे में, आंदोलन का दायरा बढ़ता नहीं दिख रहा, बल्कि घूम-फिर कर गिने-चुने लोगों के बीच सिमट गया है. सरकार देश की ग़ैर सरकारी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदान पर भी नकेल कस रही है, उसका असर भी आंदोलन पर दिखाई पड़ रहा है. आंदोलन से जुड़े लोग इसे सरकार की सोची-समझी रणनीति बता रहे हैं. जाहिर है, बिना अनुदान कोई आंदोलन नहीं चल सकता. यदि संस्थाओं को मिलने वाली आर्थिक सहायता ही बंद हो जाएगी, तो वे बिना पानी की मछली की तरह हो जाएंगी.
रैली को संबोधित करते हुए वाम नेता अतुल अंजान ने कहा कि अपनी जड़ों और ज़मीन से उखड़ा आदमी दोबारा नहीं बस पाता है. उन्होंने भाजपा के सांसदों का आह्वान करते हुए कहा कि वे अंतर्आत्मा की आवाज़ सुनें और संसद में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पारित न होने दें. जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के पवन वर्मा ने कहा कि उनकी पार्टी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में और किसानों के साथ है. जिस देश के साठ प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हों, वहां की तरक्की किसानों को नज़रअंदाज़ करके कैसे हो सकती है.
सीपीआई के डी राजा ने कहा कि मोदी सरकार केवल संघर्ष की भाषा सुनेगी. हम साझा मोर्चा बनाकर भूमि अधिग्रहण का विरोध करेंगे. मेधा पाटकर ने कहा कि देश का संविधान जीने का अधिकार देता है, लेकिन यदि किसानों से आजीविका का अधिकार छीन लिया जाएगा, तो वे जी नहीं पाएंगे. गुजरात मॉडल ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों के ़िखला़फ है, हम उसे देश में नहीं लागू होने देंगे. उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल स़िर्फ अध्यादेश का विरोध न करें, बल्कि किसानों-मज़दूरों के साथ खड़े भी हों.
भूमि अधिकार आंदोलन के लिए बनी कमेटी
मेधा पाटकर, हनन मौला, अतुल अंजान, डॉ सुनीलम, अशोक चौधरी, प्रफुल्ला सामंतरा, राकेश रफीक, दयामनी बरला, उल्का महाजन, दर्शन पाल सिंह, मंजीत सिंह, रोमा, हरपाल सिंह राणा, अनिल चौधरी, विनोद सिंह, रजनीश गंभीर, प्रतिभा शिंदे, अक्षय, वीरेंद्र विद्रोही, सत्यवान, कैलाश मीना, महावीर गुलिया, अमूल्य नायक, आलोक शुक्ला, त्रिलोचन पूंजी, राजिम, उमेश तिवारी, ईश्वर चंद्र त्रिपाठी, एमएस सेल्वाराज, एम इलांगो, रामकृष्ण राजू, हंसराज घेवरा, भूपिंदर सिंह रावत, सागर रबारी, जसबीर सिंह, विजू कृष्णन, मधुरेश कुमार, श्वेता त्रिपाठी, सत्यम श्रीवास्तव, रागीव असीम, संजीव कुमार, प्रताप चौधरी.
किसान हित से खिलवाड़
24-25 फरवरी को दिल्ली के जंतर-मंतर से समाजसेवी अन्ना हजारे ने मोदी सरकार के ़िखला़फ हुंकार भरी थी. उन्होंने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेने की मांग करते हुए कहा था कि यदि सरकार अपने क़दम पीछे नहीं खींचेगी और किसानों के साथ अन्याय करेगी, तो वह देश भर में पदयात्रा करेंगे और जेल भरो आंदोलन चलाएंगे. उन्हें किसानों की लड़ाई का चेहरा बनाने वाले जन संगठनों ने एक बार फिर दिल्ली के संसद मार्ग पर प्रदर्शन करके सरकार को चुनौती दी, लेकिन अन्ना मौन नज़र आए. उनकी तऱफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. अन्ना ने वर्धा से पीवी राजगोपाल के साथ शुरू की गई पदयात्रा स्थगित करने के बाद स़िर्फ इस विषय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया है और उनसे कुछ सवालों के जवाब मांगे हैं. दो अप्रैल को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में जन संगठनों एवं राजनीतिक दलों के बीच हुए विमर्श के बाद अन्ना ने पुणे में एक बैठक भूमि अधिग्रहण को लेकर आंदोलन चलाने के लिए बुलाई. बैठक में कई तरह की चर्चाएं हुईं, लेकिन जब बात नया संगठन बनाने को लेकर हुई, तो अन्ना ने मना कर दिया. बैठक में शामिल हुए कुछ लोगों का कहना है कि अन्ना को डर है कि लोग उन्हें धोखा देकर अपने-अपने राजनीतिक हित साधेंगे और वह ऐसा नहीं चाहते. दरअसल, बार-बार बिना कोई स्पष्ट वजह के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम रद्द कर देने से अन्ना की विश्वसनीयता कम हो रही है. राजनीतिक लोगों के साथ मंच साझा न करने की बात करने वाले अन्ना ने 24-25 फरवरी के कार्यक्रम में अरविंद केजरीवाल सहित अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ मंच साझा किया, तब जन संगठनों ने इसका विरोध किया था. इसी वजह से अन्ना को आगे के कार्यक्रमों में शामिल न करने का निर्णय जन संगठनों ने किया. आंदोलन के किसी भी व्यक्ति ने खुलकर भले अपनी बात नहीं रखी, लेकिन अन्ना को धीरे से आंदोलन से सोची-समझी रणनीति के तहत अलग कर दिया गया. पीवी राजगोपाल का आरएसएस के गोविंदाचार्य के साथ काम करना भी जन संगठनों को रास नहीं आया. इसलिए उन्हें भी भूमि अधिग्रहण आंदोलन से अलग कर दिया गया. राजगोपाल ने मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 26 से 29 अप्रैल तक भूख हड़ताल का कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें चंद लोगों ने भागीदारी की, लेकिन उनकी आवाज़ भोपाल से दिल्ली नहीं पहुंची. गुजरात से आई एक महिला ने कहा कि अन्ना ने राहुल गांधी के लिए माहौल बनाया है. ऐसा न होता, तो राहुल गांधी के अज्ञातवास से लौटने के बाद अन्ना अचानक शांत न हो जाते. अन्ना 23 मार्च को पंजाब के हुसैनीवाला स्थित भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु की समाधि पर गए थे. उसी दौरान किसानों के लिए उनकी एक रैली होनी थी, लेकिन उसे भी बिना कोई कारण बताए स्थगित कर दिया गया. आंदोलनों से लंबे समय तक जुड़े रहे स्वामी अग्निवेश जैसे लोग मंच के आस-पास भटकते रहे, लेकिन किसी ने उन्हें अपनी बात रखने का मा़ैका नहीं दिया.
वामदल और तृणमूल एक साथ
कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. बीते पांच मई को संसद मार्ग पर यह बात साबित हो गई. पश्चिम बंगाल निकाय चुनाव में रिकॉर्ड सफलता हासिल करने के बाद विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र तृणमूल कांग्रेस ने एक बार फिर कमर कस ली है. सत्ता पर बने रहने के लिए उसे अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ मंच साझा करने से भी गुरेज नहीं है. नंदीग्राम के भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ आंदोलन करके राज्य की सत्ता पर काबिज हुई तृणमूल कांग्रेस एक बार फिर भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर वापसी करती दिख रही है. उसके सांसद पहले ही भूमि अधिग्रहण का कभी संसद में काले छाते ले जाकर, तो कभी मुंह पर काली पट्टी बांधकर विरोध कर चुके हैं. वामदलों और जन संगठनों के इस कार्यक्रम में तृणमूल सांसद डोला सेन ने कहा कि हम सभी को ममता बनर्जी का कृतज्ञ होना चाहिए. यदि सिंगुर और नंदीग्राम न हुआ होता, तो 2013 का भूमि अधिग्रहण क़ानून न बना होता. तृणमूल कांग्रेस सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ है. हम हमेशा इस मुद्दे पर किसानों के साथ हैं. दूसरी ओर निकाय चुनाव परिणाम की वजह से अधिकांश वामदल एक साथ नज़र आए. सीपीआई (एम) के नवनियुक्त महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि यह हमारी प्रतिज्ञा है, संकल्प है कि हम किसी भी सूरत में इस बिल को पास नहीं होने देंगे. ज़मीन पर हो रही लड़ाई से हमें ताकत मिलती है. आप ज़मीनी स्तर पर ज़मीन की लड़ाई लड़ते रहिए, हम संसद में आपकी ताकत दिखाते रहेंगे.