राजनीति के पब्लिक स्कूल में पढ़ाई का बस एक ही विषय है घटना. केंद्र के राजनेताओं ने चुप्पी साध कर विवाद को सुलगने दिया. पांच वर्षों के दौरान मिली दो कामयाबी से वे आश्वस्त हैं कि विलंब ही निदान है. इस विलंब के चेतावनी संकेत को आप कमतर न आंके. जब आपको विभाजन और एकता जैसी असंगत मांगों पर चलना होता है तो टालमटोल हमेशा से एक विकल्प रहा है. फर्ज़ी विवाद के ज़रिए तेलंगाना राज्य के गठन के लिए ज़रूरी प्रक्रिया में देरी की अब भी कोशिश की जा सकती है. यह कोशिश हैदराबाद की स्थिति को लेकर हो सकती है. हैदराबाद भौगोलिक और ऐतिहासिक दोनों ही लिहाज़ से तेलंगाना की स्वाभाविक राजधानी है. अगर दिल्ली को हैदराबाद के राजनीतिक मौसम में हो रहे बदलाव की चिंता होती, जैसा कि कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन को लेकर वह चिंतित है, तो उसे सुनामी की भी भनक मिल गई होती. लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम तेलंगाना पर तब तक कुछ नहीं बोले, जब तक कि वह इसके लिए मजबूर नहीं हो गए.
सरकार जिस गति से फिसली है, उसने उन लोगों के क्रोध को भड़काने का काम किया, जो यह सोच रहे थे कि वे तो सब कुछ गंवा चुके हैं. सरकार के पास सुलह के लिए पांच साल थे, पर उसने कुछ भी नहीं किया. चंद्र बाबू नायडू की पराजय सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस ने 2004 में के चंद्रशेखर राव के साथ समझौता किया था, लेकिन नदी पार करते ही कांग्रेस उस नाविक को भूल गई, जिसने उसे नदी पार करवाया था.
सार्वजनिक जीवन में आत्म संतुष्टि एक आपराधिक कृत्य है. फैसले में देरी भले हो सकती है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता. वर्ष 2009 में दो निर्वाचन क्षेत्रों ने कांग्रेस को सुरक्षित स्थिति में पहुंचा दिया, जहां वह मित्रों और विद्रोहियों (आंध्र प्रदेश और मुस्लिम वोट) की धमकी से सुरक्षित थी. छह माह के अंदर ही दोनों ने मज़बूत संदेश दे दिए कि परिणाम दो, नहीं तो क़ीमत चुकाओ. इस भटकाव से सरकार पराजय की स्थिति में आ गई. अगर कांग्रेस चंद्रशेखर राव के अनशन के एक दिन पहले तेलंगाना की मांग को स्वीकार कर लेती तो राव ऐतिहासिक शख्सियत बनने की बजाय इतिहास की बात बन गए होते.
भारत के नए मानचित्र पर आधा दर्ज़न हितधारकों को दिल्ली ने एक खतरनाक संकेत भी दिया है. स़िर्फ रोने- धोने से कुछ भी हासिल नहीं होता. इन तमाम आवाज़ों, गुस्से, ग़लतियों और उत्तेजना के पीछे तेलंगाना का वादा महत्वपूर्ण है, लेकिन संघवाद की गतिशीलता में मोटे तौर पर किसी ने इस बदलाव की ओर ध्यान नहीं दिया. फजल अली की अध्यक्षता में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग, जिसके सदस्यों में हृदयनाथ कुंजरू और के एम पणिक्कर शामिल थे, का आधार भाषा ही था. इसने भारत के आंतरिक भूगोल को एक नया स्वरूप प्रदान किया. 1960 में महाराष्ट्र और 1966 में पंजाब का गठन हुआ, लेकिन एक बार फिर गठन का आधार भाषा ही था. केवल पर्वतीय इलाक़ों और उत्तर पूर्व राज्यों के गठन के लिए जो आधार तय किए गए, वे थोड़े अलग थे. बदलाव आया. यह का़फी तार्किक भी था. राष्ट्र की प्राथमिकता बदल गई. एक बार फिर यह स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्रीय भाषा या संस्कृति की पहचान को कोई खतरा नहीं है.
नई संघीय राजनीति अर्थशास्त्र से निर्धारित होती है. तेलंगाना और शेष आंध्र के लोग समान भाषा बोलते हैं, लेकिन उनके बीच आर्थिक मसले को लेकर विवाद है. तटीय आंध्र पर तेलंगाना, वास्तव में संसाधनों के दोहन का आरोप लगाता रहा है. मूलभूत बदलाव वर्ष 2000 में देखा गया, जब अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन हुआ. नवसृजित राज्य और जिन राज्यों से काट कर इन्हें अलग किया गया, दोनों ही राज्यों की जनता समान भाषा बोलती है. दरअसल, नौ साल पहले अगर कोई उपद्रव नहीं हुआ तो वह आम सहमति बनाने के प्रतिमान में बातचीत और तुष्टिकरण के बीच का अंतर है. इससे पहले कि फोड़ा घाव का रूप लेता, उसका सही इलाज कर लिया गया. प्रत्येक मांग की बुनियाद आर्थिक उपेक्षा की अवधारणा में निहित है. लोग यह मान बैठते हैं कि भारत उदय की गाथा में उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है. बड़े फर्ज़ी साबित हो जाते हैं, इसलिए छोटे समझदार हो जाते हैं.
मुस्लिम, कांग्रेस के लिए दूसरे महत्वपूर्ण पक्ष हैं. उनमें उबाल के पीछे भी मूल वजह आर्थिक ही है. इस तर्क का आधार विश्वास है, क्योंकि मुसलमान की उपस्थिति स्थान आधारित न होकर राष्ट्रव्यापी है. डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद के वर्तमान सत्र के आखिर में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने का वादा किया है. उन्हें इससे होने वाली परेशानियों का पूर्वाभास है, लेकिन यह उनकी परेशानियों की तो बस शुरुआत होगी. कमीशन ने सभी सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और संसाधनों में अल्पसंख्यकों के लिए 15 फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की है. इनमें से दस फीसदी मुसलमानों को आवंटित होना है. मुसलमान इसे एक मानक के रूप में देख रहे हैं और इस पर क्या कार्रवाई हुई, यह बताने की मांग भी कर रहे हैं.
सरकार द्वारा उठाया गया कोई भी क़दम एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया को सुलगाने का काम कर सकता है. निष्क्रियता से कांग्रेस को फायदा ही हुआ है. पिछले चुनाव में मुसलमानों के लिए इस मुद्दे को इसलिए नहीं उठाया गया, क्योंकि वे राजनीतिक नतीजों को भांप गए थे. लेकिन यह स़फाई तो पहले ही दी जा चुकी है और इसे फिर से उपयोग में नहीं लाया जा सकता. जो चुनाव जीत चुके हैं, उनके लिए कांग्रेस की दुविधा जानी-पहचानी है. एक वादा जो आपको फिर से स्थापित करता है, आपको परेशान करने के लिए दोबारा लौटता है.