दंतेवाड़ा में अगर सात जनवरी की जन सुनवाई होती तो ऐतिहासिक होती, लेकिन ऐसा नहीं होने दिया गया. जन सुनवाई के आयोजन की तमाम कोशिशें बेकार गईं. ख़ौ़फ और सितम का माहौल इस क़दर घना हुआ कि जन सुनवाई के प्रमुख आयोजक एवं गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार चार जनवरी को ही वेश बदल कर दंतेवाड़ा से भागने पर मजबूर हो गए. दोपहर में उन्होंने दस दिन का उपवास तोड़ा और फिर रात के अंधेरे में ग़ायब हो गए. राज्य सरकार की योजना डॉ. विनायक सेन की तरह उन्हें भी जेल की हवा खिलाने की थी.
इस ताज़ी कहानी को समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटें. पिछले साल पहली अक्टूबर को पुलिस और सीआरपीएफ के एक दस्ते ने ज़िले के गोमपड़ गांव में धावा बोला था. इस हमलावर दस्ते के पहुंचने से पहले ज़्यादातर लोग भाग निकले. जो नहीं भाग सके, हमलावरों के हत्थे चढ़े. नौ लोग मारे गए. डेढ़ साल के एक बच्चे के हाथों की तीन उंगलियां कचर कर अलग कर दी गईं. शंबो को पैर में गोली लगी. वह अगली गोली के निशाने पर थी कि तभी उसके नन्हें बच्चे उससे लिपट कर रोने लगे. पता नहीं कैसे, सीआरपीएफ के किसी जवान को दया आ गई और उसने अपने साथी से शंबो को छोड़ देने के लिए कह दिया. चार बच्चों की मां शंबो की जान इस तरह बची, लेकिन अगली आ़फत उसका इंतज़ार कर रही थी. डर के कारण वह इलाज कराने के लिए कहीं जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी. देशी इलाज काम न आया और उसका पैर सड़ने लगा. कोई चारा न देख आख़िरकार गांव के लोगों ने हिमांशु कुमार से संपर्क किया. पहली अक्टूबर की घटना के दौरान मानव अधिकार संगठनों का दल नेंद्रा गांव का जायज़ा लेने के लिए दंतेवाड़ा में था. नेंद्रा को हिमांशु कुमार और उनके संगठन वनवासी चेतना आश्रम की पहल पर दोबारा बसाया जा सका है. यह उन सात सौ गांवों में से एक है, जिन्हें माओवादियों की धरपकड़ पर निकले पुलिस, सुरक्षाबल, एसपीओज एवं सलवाजुड़ूम के गिरोह ने उजाड़ दिया और लोगों को गांव छोड़ जंगलों में भाग जाने के लिए मजबूर कर दिया. नेंद्रा में आदिवासियों की वापसी आसान नहीं थी. उनमें गहरे तक समा चुकी असुरक्षा की भावना को काटना, उनके हार चुके आत्मविश्वास को जगाना, जीने लायक़ ज़रुरतों को जुटाना एवं सरकारी तंत्र के अड़ंगों से जूझना बहुत जोख़िम भरा काम था.
बहरहाल, पहली अक्टूबर के नरसंहार की ख़बर मिलते ही दंतेवाड़ा के दौरे पर आया मानव अधिकार कार्यकर्ताओं का दल गोमपड़ गांव पहुंचा. हिमांशु कुमार ने गांव के लोगों को अपना फोन नंबर दिया कि ज़रुरत पड़ने पर उन्हें याद किया जा सकता है. गोमपड़ा तक कोई सड़क नहीं है. बस पकड़ने के लिए जंगल का लंबा रास्ता तय करना पड़ता है. ख़ैर, किसी तरह शंबो को सड़क तक लाया गया. वहां से हिमांशु कुमार उसे अपने आश्रम ले गए और फिर 20 अक्टूबर को नई दिल्ली. उस दिन कांस्टीट्यूशन क्लब में आम सभा का आयोजन हुआ, जिसमें शंबो इस सबूत के तौर पर शामिल हुई कि दंतेवाड़ा के हालात किस क़दर ख़तरनाक हैं और माओवादियों के स़फाए का अभियान किस तरह असल में आदिवासियों के स़फाए का अभियान है. उसी रात शंबो के पैर का ऑपरेशन हुआ और अगले दिन अस्पताल में उसकी आपबीती दर्ज़ की गई, जिसे सुप्रीम कोर्ट में बतौर याचिका पेश किया गया.
वही हुआ, जिसका अंदेशा था. जन सुनवाई के आयोजन पर सरकारी गाज गिर गई. जिन्हें शासन-प्रशासन की पोल खोलनी थी, उन्हें अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए. लेकिन, आख़िर कितने दिनों तक सरकार सच से मुंह छुपाएगी ?
अस्पताल में शंबो को थोड़ी राहत मिली तो उसे बच्चों की याद सताने लगी. इलाज लंबा चलना था और अभी दूसरे ऑपरेशन भी बाक़ी थे. तय हुआ कि वह दंतेवाड़ा में हिमांशु कुमार के आश्रम में रहेगी और दिसंबर के अंत तक अगले ऑपरेशन के लिए दिल्ली वापस आ जाएगी. अभी तक वह पहली अक्टूबर के सदमे से उबर नहीं सकी थी और गुमसुम रहती थी. वनवासी चेतना आश्रम में अपनेपन के माहौल ने उसे ताक़त दी और उसने मुस्कराना शुरू किया. हिमांशु कुमार ने यह ख़ुशख़बरी एसएमएस और मेल के ज़रिए अपने दोस्तों एवं शुभचिंतकों को भेजी थी. लेकिन, यह मुस्कान फौरी थी और ज़्यादा देर टिकने वाली नहीं थी. इस बीच जन सुनवाई और उसकी तैयारी के बतौर कोई तीन सप्ताह लंबा कार्यक्रम तय हो गया. उसी के साथ सरकारी दमन भी तेज़ हो गया और आख़िरकार हिमांशु को अचानक उपवास पर जाने का फैसला करना पड़ा. इधर शंबो के अगले इलाज के लिए दिल्ली जाने का समय आ गया और इसी बीच 30 दिसंबर को पता चला कि उसे मलेरिया ने जकड़ लिया है. ज़िला अस्पताल के डॉक्टर की सलाह थी कि उसे भर्ती करा दिया जाए, लेकिन तेज़ी से बदलते हालात को देखते हुए यह शंबो के हित में नहीं था. अनहोनी का अंदेशा सही था. पुलिस अस्पताल के चक्कर काटने लगी और उस औरत के बारे में पूछताछ करने लगी, जिसके पैर में गोली लगी है.
शंबो को दो जनवरी की रात रायपुर के लिए निकलना था और वहां से दिल्ली के लिए रेल पकड़नी थी. दंतेवाड़ा से रायपुर तक केवल सड़क की सुविधा है और यह कोई 10 घंटे का स़फर है. शंबो को आश्रम से बस स्टेशन पहुंचाने के लिए कार निकली, लेकिन बीच रास्ते में उसके पीछे 25 मोटरसाइकिलों पर सवार सलवाजुड़ूम का हथियारबंद जत्था लग गया. बस स्टेशन पहुंचने के बजाय कार वापस आश्रम की ओर मोड़ देनी पड़ी. तय हुआ कि शंबो को दस किलोमीटर पहले के पड़ाव से बस पर चढ़ाया जाए. इस बार हिमांशु कुमार भी साथ थे. ट्रैवल एजेंट से बात करने वह बस स्टेशन पहुंचे और तब तक एसपीओज से भरी एक जीप वहां पहुंच चुकी थी. उनकी कार उल्टी दिशा की ओर बढ़ी. दो किलोमीटर का स़फर तय करने के बाद रायपुर जा रही बस दिखी. शंबो और उसकी तीमारदारी के लिए जा रहे दो कार्यकर्ता उसमें चढ़े. बस दंतेवाड़ा बस स्टेशन पहुंची तो पता चला कि एसपीओज वहां पहले से मौजूद हैं और बस चालक को पूछताछ के लिए थाने ले जाना चाहते हैं.
यह सारा माजरा शंबो पर फटने वाली आफत का संकेत था. यात्रा स्थगित कर दी गई और ख़ुद हिमांशु कुमार अगले दिन सुबह-सुबह अपने भांजे के साथ कार से तीनों को रायपुर ले जाने के लिए निकले. उनकी सुरक्षा में तैनात किए गए जवान भी जबरन पीछे हो लिए. उनकी कार दो सौ किलोमीटर का स़फर पूरा कर सीधे कांकेर में रुकी. यह हिमांशु कुमार के उपवास का नौवां दिन था. बाक़ी चार लोगों ने भोजन किया. लेकिन, अगले स़फर के लिए उन्हें कार में नहीं बैठने दिया गया और पुलिस की गाड़ी से थाने ले जाया गया. बताया गया कि शंबो से ज़रूरी पूछताछ की जानी है. हिमांशु कुमार का प्रतिरोध काम न आया. एक गाड़ी में उन्हें और दोनों कार्यकर्ताओं को ठूंसा गया और दूसरी में शंबो को. कार ले जाने के लिए केवल हिमांशु कुमार के भांजे को आज़ाद कर दिया गया. दोनों गाड़ियां दंतेवाड़ा की ओर रवाना हुईं. आगे हिमांशु कुमार की गाड़ी और पीछे शंबो की. बीच रास्ते में शंबो की गाड़ी ग़ायब हो गई. याद रहे कि पहली अक्टूबर को गोमपड़ गांव में हुए हत्याकांड की वह इकलौती गवाह है.
बाद में पता चला कि शंबो के किसी क़रीबी ने पुलिस से शिक़ायत की है कि हिमांशु कुमार ने उसका अपहरण किया और अपने आश्रम में बंधक बनाकर रखा. यह भी पता चला कि शंबो फिलहाल जगदलपुर के ज़िला अस्पताल में भर्ती है, कड़ी सुरक्षा के बीच में है और किसी को उससे मिलने की इजाज़त नहीं है. इधर हिमांशु कुमार अभी तक लापता हैं. अब पता नहीं, कब शंबो के होंठों पर मुस्कान तैरेगी? छत्तीसगढ़ में इंसा़फ का जनाज़ा कब तक निकलता रहेगा?