केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने कमाल कर दिया है। अपनी विधानसभा में उसने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर दिया, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीनों कृषि-कानूनों की भर्त्सना की गई है। उसमें केंद्र सरकार से कहा गया है कि वह तीनों कानूनों को वापस ले ले। केरल की सरकार ने वह काम कर दिखाया है, जो पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकारें भी नहीं कर सकीं। केरल ने केंद्र की यह जो सरकारी निंदा की है, वैसी निंदा मुझे याद नहीं पड़ता कि पहले कभी किसी राज्य सरकार ने की है। और मजा तो इस बात का है कि केरल वह राज्य है, जिसमें केंद्र सरकार के इन तीनों कृषि-कानूनों का कोई खास प्रभाव नहीं होनेवाला है। केरल में न्यूनतम समर्थन मूल्यवाले पदार्थों की खेती बहुत कम होती है। वहां सरकारी खरीद और भंडारण नगण्य है। वहां साग-सब्जी और फलों की पैदावार कुल खेती की 80 प्रतिशत है। केरल सरकार ने 16 सब्जियों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किए हुए हैं। इसके अलावा किसानों की सहायता के लिए 32 करोड़ रु. की राशि अलग की हुई है। इसके बावजूद उसने कृषि-कानूनों पर भर्त्सना-प्रस्ताव पारित किया है याने मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। केरल ने आ बैल सींग मार की कहावत को चरितार्थ कर दिया है। इसीलिए राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने इसी मुद्दे पर विधानसभा बुलाने की अनुमति टाल दी थी। केरल का मंत्रिमंडल एक दिन के नोटिस पर विधानसभा आहूत करना चाहता था। उसे चाहिए था कि राज्यपाल के संकोच के बाद वह अपना दुराग्रह छोड़ देता लेकिन अब यह प्रस्ताव पारित करके उसने मजाकिया काम कर डाला। आश्चर्य यह भी है कि भाजपा के एक मात्र विधायक ओ. राजगोपाल ने भी इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। कांग्रेसी विधायकों ने भी इसका समर्थन किया लेकिन उनको दुख है कि इसमें मोदी सरकार की भर्त्सना नहीं की गई। इस प्रस्ताव में उक्त कानूनों के बारे में जो संदेह व्यक्त किए गए हैं, वे निराधार नहीं हैं और कानून बनाते वक्त केंद्र सरकार ने जिस हड़बड़ी का परिचय दिया है, उसकी आलोचना भी तर्कपूर्ण है लेकिन यह काम तो केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन अपना बयान जारी करके या प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर भी कर सकते थे। विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर किसी केंद्रीय कानून को वापस लेने की मांग करना मुझे काफी अतिवादी कदम मालूम पड़ता है। ऐसे कदम स्वस्थ संघवाद के लिए शुभ नहीं कहे जा सकते।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक