जनता को सब्ज़बाग़ दिखाने में माहिर आम आदमी पार्टी अब गांधीवादियों को भी बरगलाने लगी है. हाथ में तिरंगा, सिर पर गांधी टोपी और मुंह से राजनीतिक शुचिता की बात करने वाले पार्टी नेताओं के दर्शन, आचरण और सिद्धांत में गांधीवाद की कोई झलक नहीं मिलती. लोकसभा चुनावों में चंद सीटों का इंतज़ाम कैसे हो, इसके लिए आम आदमी पार्टी हर किस्म का प्रयोग करना चाहती है. पार्टी की ओर से अब तक घोषित ज़्यादातर लोकसभा उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि देखें, तो वे विदेशी अनुदान से संचालित होने वाले एनजीओ से जुड़े रहे हैं. ऐसे में गांधीवादी मूल्यों पर अद्वितीय राजनीति करने का दंभ भरने वाले केजरीवाल को यह बताना चाहिए कि पूंजीवाद के मार्ग पर चलते हुए गांधीवाद के लक्ष्य को कैसे पूरा किया जा सकता है?
पिछले महीने दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में गांधीजनों की दो दिवसीय बैठक आयोजित की गई थी. इस बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों में उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए, इस पर विस्तृत चर्चा हुई. उक्त बैठक में वयोवृद्ध गांधीवादी नारायण देसाई, गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही, एस एन सुब्बाराव, सर्व सेवा संघ की पूर्व अध्यक्ष राधा भट्ट और अमरनाथ भाई के अलावा गांधीवादी लेखक-पत्रकार कुमार प्रशांत और गिरिराज किशोर भी शामिल थे. अगले दिन कुछ अख़बारों में यह ख़बर प्रकाशित हुई कि गांधीवादी लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को सशर्त समर्थन देंगे. जब इस बाबत गांधीवादी बुद्धिजीवियों से पूछा गया, तो उन्होंने इस तरह की बातों को नकार दिया. दरअसल, गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुई उक्त बैठक में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के प्रोफेसर प्रो. आनंद कुमार भी शामिल थे. यह बैठक पूरी तरह ग़ैर-राजनीतिक था, लेकिन प्रो. आनंद कुमार की मौजूदगी और उनके संबोधन से आम आदमी पार्टी को समर्थन देने संबंधी भ्रम पैदा हुआ.
किसी ज़माने में समाजवादी छात्र राजनीति करने वाले और अब आम आदमी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले प्रो. आनंद कुमार को पार्टी ने उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली से लोकसभा का टिकट दिया है. आम आदमी पार्टी को हर वर्ग के लोगों और बुद्धिजीवियों का समर्थन कैसे मिले, इसके लिए वह निरंतर प्रयास भी करते रहते हैं. ग़ौरतलब है कि वयोवृद्ध गांधीवादी नारायण देसाई के ज्येष्ठ पुत्र नचिकेता भी आम आदमी पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं. नारायण देसाई गुजरात में रहते हैं. नचिकेता के ज़रिए ही कुछ समय पहले प्रो. आनंद कुमार नारायण देसाई से मिलने अहमदाबाद आए और आम आदमी पार्टी के लिए गांधीवादियों का समर्थन मांगा. सूत्रों के मुताबिक़, नारायण देसाई ने साफ़ शब्दों में कह दिया कि वह सर्व सेवा संघ से जुड़े हैं, इसलिए किसी पार्टी को समर्थन करना उनके सिद्धांत के विरूद्ध है.
समाजवादियों में संदिग्ध रहे हैं प्रो. आनंद कुमार
प्रो आनंद कुमार को क़रीब से जानने वाले बताते हैं कि वह छात्र राजनीति के समय से ही संदिग्ध रहे हैं. उन दिनों समाजवादी युवजन सभा में भी दो गुट थे. एक मधु लिमये का तो दूसरा राजनारायण का. प्रो. आनंद कुमार राजनारायण के गुट में शामिल थे. वर्ष 1971-72 के बीएचयू छात्रसंघ चुनाव में संतोष कुमार कपूरिया ने बतौर निर्दलीय छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की. हालांकि, कुछ ही समय बाद संतोष कुमार कपूरिया की हत्या कर दी गई. लिहाज़ा बीएचयू में छात्रसंघ अध्यक्ष का पद रिक्त हो गया. प्रो. आनंद कुमार ने भी छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. छात्रनेता कपूरिया की हत्या के बाद प्रो. कुमार को उनके स्थान पर अध्यक्ष बनाया गया. छात्रसंघ चुनाव के इतिहास में संभवतः यह पहला मौक़ा था, जब किसी पराजित उम्मीदवार को अध्यक्ष बना दिया गया. हालांकि, बाद में बीएचयू छात्रसंघ चुनाव के नियमावली में संशोधन किया गया. नए प्रावधानों के मुताबिक़, छात्रसंघ के उपाध्यक्ष का पद सृजित किया गया, ताकि अध्यक्ष की मृत्यु या उनके इस्ती़फे के बाद छात्रों द्वारा चुना गया व्यक्ति ही अध्यक्ष बने न कि कोई पराजित उम्मीदवार. प्रो. आनंद कुमार को लेकर बातें यहीं ख़त्म नहीं होती. अमरचंद्र जोशी उन दिनों काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति थे. उस समय किसी मुद्दे को लेकर बीएचयू के छात्रों ने काफ़ी बड़ा आंदोलन किया. छात्रों के इस रवैये से नाराज़ विश्वविद्यालय प्रशासन ने आनंद कुमार समेत कई छात्रों को निष्काषित कर दिया था. ऐसे समय में छात्रों के साथ खड़ा होने के बजाय प्रो. आनंद कुमार ने गोपनीय रूप से कुलपति अमरचंद्र जोशी से मुलाक़ात की और उनसे माफ़ी मांगी. उसके बाद उनका निष्काषण वापस लिया गया. उनके इस व्यवहार से बीएचयू के छात्रों में बेहद निराशा और नाराज़गी हुई. उसके बाद बीएचयू कैंपस में प्रो. आनंद कुमार माफ़ी कुमार के नाम से पुकारे जाने लगे. जेपी आंदोलन के समय प्रो. आनंद कुमार नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) आ गए. यहां वह समाजवादी युवजन सभा के बजाय फ्री थिंकर्स नामक संगठन के बैनर तले छात्र राजनीति करने लगे. उन्होंने जेएनयू में छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव भी फ्री थिंकर्स के टिकट पर लड़ा और जीत हासिल की. बाद में स्टूडेंट्स फॉर डेमोक्रेटिक सोशलिज़्म बना, जिसमें दिग्विजय सिंह, चेंगल रेड्डी, जसवीर सिंह और सुनील जैसे छात्र नेता शामिल थे.
जेपी आंदोलन के समय ही राष्ट्रीय स्तर की छात्र युवा संघर्ष समिति बनी थी. इस समिति में अरुण जेटली संयोजक और आनंद कुमार सह-संयोजक थे. वर्ष 1975 में देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी गई. इसी दौरान प्रो. आनंद कुमार आंदोलन बीच में ही छोड़कर उच्च शिक्षा हासिल करने शिकागो पहुंच गए. उनके अमेरिका जाने से छात्रों ने एक बार फिर ठगा हुआ महसूस किया. यही वजह थी कि उन दिनों जेएनयू के वामपंथी छात्र इसे लेकर समाजवादी छात्र नेताओं पर खूब व्यंग्य करते थे. बहरहाल, कुछ वर्षों बाद प्रो. आनंद कुमार शिकागो से पढ़कर स्वदेश वापस लौटे और बीएचयू में अध्यापक बन गए. हालांकि, इस बीच उनकी सियासी महत्वकांक्षा पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ चुकी थी. यही वजह थी कि वह स्वार्थवश कभी मुलायम सिंह यादव से नज़दीकियां बढ़ाने की कोशिश करते रहे तो कभी चंद्रशेखर से. प्रो. आनंद कुमार की इसी अवसरवादी स्वभाव से मोहन सिंह और कपिलदेव सिंह जैसे खांटी समाजवादी नेता उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा करते थे.
समस्याओं की जड़ में है मौजूदा आर्थिक नीति: रामचंद्र राही
अभी हाल में दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में गांधीवादियों की दो-दिवसीय बैठक के बाद जिस प्रकार आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की ख़बर आम की जा रही है, उससे यह जानने की जिज्ञासा होती है कि वास्तव में इसके पीछे की हक़ीक़त क्या है. क्या वाक़ई गांधीवादियों ने अरविंद केजरीवाल को समर्थन दिया है या कुछ लोगों द्वारा यह अफ़वाह फैलाई गई है? इन्हीं तमाम मुद्दों पर चौथी दुनिया संवाददाता अभिषेक रंजन सिंह ने गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही से तफ़सील से बातचीत की. प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश…
हाल में गांधी शांति प्रतिष्ठान में गांधीवादियों की एक बैठक हुई, जिसमें आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनाव में समर्थन देने की बात सामने आई है, क्या यह ख़बर सही है ?
– नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है. उस बैठक में आम आदमी पार्टी या किसी दल को समर्थन देने की कोई बात नहीं हुई है. दरअसल, आगामी लोकसभा चुनाव में देश की जनता को जागरूक करने की योजनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिए यह बैठक बुलाई गई थी. इसी तरह की एक और बैठक 18-19 जनवरी बैठक बंगलुरु में हुई थी, जिसमें केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष पी. गोपीनाथन नायर, कुमार प्रशांत के अलावा मैं भी शामिल था.
अन्ना हजारे ने अपने 17-सूत्रीय मांग को लेकर अरविंद केजरीवाल समेत सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था, लेकिन तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को छोड़कर किसी ने भी इसका जवाब नहीं दिया. इसे आप किस रूप में देखते हैं ?
– अन्ना हजारे को गांधीजन काफ़ी पसंद करते हैं. हम लोगों से उनके बेहद अच्छे संबंध हैं. सामाजिक कल्याण में उनका योगदान सराहनीय रहा है. यह बात सही है कि अरविंद केजरीवाल ने अन्ना के 17-सूत्रीय मांगों का कोई लिखित जवाब नहीं दिया है. आम आदमी पार्टी इसे लेकर क्या सोचती है, यह तो उनके नेता ही बता सकते हैं, लेकिन अन्ना के रचनात्मक विचारों से सभी गांधीवादी सहमत हैं.
आम आदमी पार्टी का दावा है कि वह गांधीवादी आदर्शों और मूल्यों की राजनीति कर रही है, इस बारे में आपकी क्या राय है ?
– आज लोकतंत्र संकट के दौर से गुजर रहा है. भारतीय राजनीति में पूंजी हावी है और सभी पार्टियां उसी के पीछे भाग रही हैं. चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक पार्टियां धन, बल और अपराध का इस्तेमाल करती हैं. राजनीति में सत्ता नेताओं के हाथ ही में नहीं, बल्कि जनता के हाथ में भी होना चाहिए. भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए व्यवस्था परिवर्तन करने की ज़रूरत है, लेकिन यह तभी संभव है, जब देश की जनता जागरूक हो जाए.
आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार ख़त्म करने की बात करती है, लेकिन इस पार्टी में शामिल अधिकांश लोग एनजीओ पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं, क्या इसे नए प्रकार का पूंजीवाद नहीं कहेंगे ?
– देश में लागू नई आर्थिक नीति के बाद कॉरपोरेट घरानों का दख़ल बढ़ा है. नई आर्थिक नीति की तीन उपलब्धियां हैं- भ्रष्टाचार, हिंसा और असीम भोगवाद. आम जनता की बात कहने और सुनने वाला कोई नहीं है. आम आदमी पार्टी में किस तरह के लोग शामिल हो रहे हैं, इसे परखने के लिए जनता को ही जागरूक होना पड़ेगा. न सिर्फ एक दल, बल्कि हर पार्टी में शामिल नेताओं का बहिष्कार जनता को ही करना होगा. यह तभी संभव है, जब उनमें जागरूकता आएगी. गांधीवादी सदैव जनता को शिक्षित करने का काम करते हैं.
सर्व सेवा संघ से जुड़े गांधीवादियों ने चुनावों में कभी भागीदारी की है या नहीं?
– जेपी आंदोलन के समय जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर गांधीवादियों ने वर्ष 1977 में पहली बार चुनावों में अपनी भागीदारी निभाई थी. हालांकि, यह भागीदारी चुनाव लड़ने के लिए नहीं थी, बल्कि आपातकाल की ज़िम्मेदार इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ मतदाताओं को जागरूक करने के लिए गांधीवादियों ने अपनी भूमिका निभाई थी. उसी तरह का वातावरण आज देश में फिर उत्पन्न होे गया है. इसलिए गांधीवादियों ने यह निश्चय किया है कि देश की जनता को सजग करने और उन्हें मताधिकार के सही इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया जाएगा.
केजरीवाल को गांधीवादियों का कोई समर्थन नहीं
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