भोपाल ब्यूरो रात्रि कालीन कर्फ्यू का पालन कराने को लेकर काजी कैंप इलाके में हुए विवाद और इस दौरान महिलाओं से मारपीट को लेकर अब कई सवाल खड़े हैं। सवालों के घेरे में पुलिस जवान, क्षेत्र की सियासत, विभिन्न आयोगों की भूमिका है। साथ ही इस अमानवीयता, महिला अत्याचार और पुलिस के बर्बरतापूर्ण व्यवहार को लेकर क्षेत्रीय जनता की खामोशी सबसे ज्यादा रेखांकित की जा रही है।
पुलिस कार्यवाही पर सवाल
तीन थाना क्षेत्र (गौतम नगर, हनुमानगंज और टीला जमालपुरा) से घिरा क्षेत्र काजी कैंप आमतौर पर चोबीस घंटे खुला रहने वाले बाजार के रूप में विख्यात है। आठ आठ घंटों की तीन पालियों में खुलने वाली यहां की दुकानों पर अक्सर देर रात से जमावड़ा लगना शुरू होता है, जो अलसुबह तक आबाद रहता है। तीनों थाना क्षेत्रों की यहां बराबर निगरानी और दबे शब्दों में कहें तो वसूली हमेशा से जारी रही है। यही वजह है कि पिछले साल लॉक डाउन के दौरान भी गलियों के अंदर की अधिकांश दुकानें खुलती रही हैं। पुलिस की मौजूदगी और निगरानी में मुख्य मार्ग पर स्थित कई दुकानों का कारोबार भी बदस्तूर चलता रहा है। इसी हालत को इस बार शुरू किए गए रात्रिकालीन कर्फ्यू के दौरान भी जारी रखा गया। यही वजह है कि रात नौ बजे शुरू होने वाले कर्फ्यू को लेकर रात ग्यारह बजे बवाल मचा। पुलिस की मनमानी मुराद पूरी न होने पर विवाद हुआ और हालात घर में मौजूद महिलाओं और बच्चों की बेरहम पिटाई तक पहुंच गया। घटना के बाद जांच के लिए पुलिस प्रशासन द्वारा महिला अधिकारी को नियुक्त करते समय इस बात का सवाल नहीं किया गया कि किसी कार्यवाही से पहले महिला पुलिस बल को बुलाने की कोशिश क्यों नहीं की गई? सवाल यह भी उठ रहा है कि पुलिस जवानों पर चाय, गर्म पानी या पत्थर फेंके जाने की कार्यवाही के जुर्म में दोषी महिलाओं को गिरफ्तार कर कानूनी कार्रवाई करने की बजाए घर में तोड़फोड़ करने का अधिकार पुलिस प्रशासन को किसने दिया?
सियासत की खामोशी
महिला अत्याचार को लेकर किसी तरह का विरोध उठाने वालों में कांग्रेस की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सामने आए हैं। जबकि पुराने भोपाल में मौजूद दो जन प्रतिनिधियों ने इस मामले में खामोश धारण कर रखी है। विपक्ष की भूमिका में होने के बावजूद इन जन प्रतिनिधियों की खामोशी की वजह आपसी गुटबाजी को बताया जा रहा है। इसके पाले के लोग, उसके पास मदद की गुहार लेकर क्यों पहुंचे, की खींचतान में पीड़ितों को किसी दर से सियासी सिंपैथी या मदद नहीं मिल पाई।
आयोगों की क्या उपयोगिता?
आमतौर पर छोटे छोटे मामलों में खुद संज्ञान ले लेने की दलील रखने वाले विभिन्न आयोग इस मामले में खामोश बैठे हैं। मानवीय अधिकारों के रक्षक, महिला उत्पीडन के लिए आवाज उठाने वाले और बच्चों के प्रति होने वाली हिंसा पर बवाल मचा देने वाले आयोग इस मामले में फिलहाल शिकायत होने का इंतजार कर रहे हैं। यहां तक कि अल्पसंख्यकों के लिए बेहतर व्यवहार और व्यवस्था की सिफारिश सरकार को पहुंचाने वाले राज्य अल्पसंख्यक ने भी मामले की तरफ नजर नहीं उठाई है। गौरतलब है कि वर्तमान में राज्य महिला आयोग और राज्य अल्पसंख्यक आयोग में मौजूद पदाधिकारी कांग्रेस द्वारा नामित हैं। इन्हें सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने का एक बेहतर मौका मिल सकता था, लेकिन दोनों पदाधिकारी (शोभा ओझा और नूरी खान) फिलहाल अपने अधिकारों की लड़ाई में ही लगे हुए हैं, जिसके चलते सत्तारूढ़ पार्टी और उसके तंत्र के खिलाफ वे कुछ बोलना ही नहीं चलते।
सहमी हुई जनता
काजी कैंप इलाके में पिछले एक सप्ताह में पुलिसिया प्रकोप का ये दूसरा मामला है। इससे पहले यहां होली के दिन अघोषित लॉक डाउन के दौरान पुलिस और दुकानदारों के बीच विवाद हो चुका है। कलेक्टर के आदेश के विपरीत यहां दुकानें बंद करने पर जोर दिया गया था। कॉरोना के नाम पर पुलिस द्वारा अपनाई जा रही हठधर्मिता को लेकर आमजन उस समय कुछ बोले थे और न ही महिलाओं और बच्ची की बेरहम पिटाई के बाद वे किसी विरोध की तरफ बढ़ पा रहे हैं।