उन्नीस सौ तीस के दशक के दौरान अर्जेंटीना दुनिया के पांच सबसे अमीर देशों में शामिल हुआ करता था, लेकिन लोक-लुभावन नीतियों और संरक्षणवाद को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्था का बंटाधार कर दिया गया. वर्तमान समय में उसे उधारी माफ़ करने के लिए काफी टेस्ट देने पड़ रहे हैं, जिनका कारण बड़ी मात्रा में बकाया ॠण है. देश की ऐसी अवस्था मशहूर राजनेता जुआन पेरोन और उनकी पत्नी इवा पेरोन की वजह से हुई. उन्होंने मतदाताओं को रिश्वत दी, ट्रेड यूनियनों को जीवित रखा, किसानों को खुश रखा और राष्ट्रीय स्रोतों को बर्बाद हो जाने दिया.
अगर अर्थव्यवस्था गलत तरीके से चलाई जाती है, तो ख्याति पाना बहुत ही आसान काम है. यह बहुत ही आसान है कि आप ग़रीबों की मदद के नाम पर किसी भी मांग को सब्सिडी की चाशनी में लपेट कर पेश कर दें. ज़्यादा आबादी वाले ग़रीब देशों में ग़रीबों और आम आदमी के नाम का काफी दुरुपयोग किया जाता है.
एलपीजी सिलेंडर कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसका इस्तेमाल लगभग 75 प्रतिशत के आस-पास ग़रीब जनता द्वारा किया जाता हो. इसके बावजूद इसमें सब्सिडी देने को इस तरह देखा जाता है, जैसे यह कोई ग़रीबों को मदद देने वाला काम हो. ऐसे लोग, जो कार और मोटर साइकिल चलाते हैं, उनका मानना है कि वे संघर्षशील मध्य वर्ग में आते हैं. लेकिन, एक ऐसे ग़रीब देश में, जहां आय में इतना बड़ा अंतर है, वहां यह वर्ग ऊपरी 15 प्रतिशत हिस्से में आता है. यह वर्ग सक्षम है और राजनीतिक रूप से मजबूत भी. यहां तक कि वामदल भी मध्य वर्ग को सब्सिडी दिए जाने पर विरोध प्रदर्शन करते रहते हैं. इसके बावजूद मध्य वर्ग कभी-कभी पेट्रोल, डीजल, बिजली और पानी पर सब्सिडी पा सकता है.
सब्सिडी हमेशा महंगी पड़ती है, चाहे आपूर्तिकर्ता ओएनजीसी हो या फिर राज्य बिजली बोर्ड हों. भारत का बिजली और पानी आपूर्ति के मामले में रिकॉर्ड काफी खराब रहा है. कारण यह है कि इन सेवाओं के किसी भी सरकारी आपूर्तिकर्ता से लोग लागत मूल्य से भी कम पैसे लेने की उम्मीद करते हैं. अगर आपको घाटा होता रहेगा, तो आप सेवाएं बेहतर करने के लिए और पैसा कहां से लगाएंगे. आपूर्ति के बाद कम पैसा अदा किए जाने के कारण आम बजट पर असर पड़ता है, जिससे बोझ बढ़ता है. सभी लोग आयकर नहीं अदा करते और जो करते भी हैं, वे इसके बारे में शिकायत करते हैं. इस वजह से ग़रीबों को और भी ज़्यादा कर अदा करना पड़ता है, जो वैट, सेल्स टैक्स और एक्साइज टैक्स के रूप में होता है. इस प्रकार मध्य वर्ग को दी गई सब्सिडी का खामियाजा ग़रीब लोगों को भुगतना पड़ता है.
अब प्रत्येक वर्ष राजस्व कुल खर्च से कम हो रहा है, जिसकी वजह से देश पर कर्ज बढ़ता जा रहा है. सरकार जो कर्ज लेती है, उसे सार्वजनिक कर्ज के रूप में ही जोड़ा जाता है. सार्वजनिक कर्ज देश के स्वास्थ्य बजट से लगभग तीन गुना से भी ज़्यादा होता है. इस तरह अगर देखा जाए, तो सब्सिडी ग़रीब लोगों को फ़ायदा नहीं पहुंचा पा रही है, बल्कि देश को नुक़सान पहुंचा रही है. नई सरकार काफी मुश्किलों का सामना कर रही है. यह एक बड़े बहुमत से चुनी गई सरकार है. इसलिए इसे खराब नीतियों के लिए गठबंधन धर्म का बहाना करने की ज़रूरत नहीं है, जैसा कि पूर्ववर्ती सरकारें कर रही थीं (हाल में एक ऐसा ़फैसला मुंबई में लोकल ट्रेन में सफर करने वालों के लिए लिया गया कि लोकल ट्रेनों के किराये का निर्धारण मेट्रो शहरों के लिए अलग से करना होगा). पहले से ही खराब नीतियों का अंबार लगा हुआ है. विशेष रूप से मदद के नाम पर दी जा रही सब्सिडी बंद करनी होगी. सरकार को कुछ कड़े क़दम ज़रूर उठाने होंगे, चाहे इसके लिए शुरुआत में उसकी लोकप्रियता थोड़ी कम ही क्यों न हो.
सरकार के लिए अपना पहला बजट सदन में रखने का मौक़ा बेहद अनोखा है. यह उसके लिए स्वयं को साबित करने का एक बेहतरीन मौक़ा है. चुनाव में हुए खर्च से भी सरकार पर बोझ बढ़ा है. बीते वर्षों में दिखाया गया बजट घाटा पुरानी बात हो चुकी है. इस साल के लिए बजट घाटा कितना होगा, यह बता पाना अभी मुश्किल है. 2013-14 में यह घाटा कम करने के लिए काफी तैयारियां की गई थीं. ब्रिटेन में बजट के उत्तरदायित्व को लेकर एक कार्यालय बनाया जा चुका है, जो घाटे के बजट पर निगाह रखता है. यह एक स्वतंत्र शाखा है, जो सरकार के बजट पर पूरी निगाह रखती है. ऐसा भारत में भी किया जाना चाहिए. लेकिन, हमें 10 जुलाई का इंतजार तो करना ही होगा, जब सरकार अपना बजट पेश करेगी. तब हम यह देख सकेंगे कि बीती सरकार की त्रासदियों को यह सरकार कितना बेहतर कर पाई है. सरकार के पास कुछ अपने तो कार्यक्रम होंगे ही, साथ-साथ पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की कुछ विशेष योजनाएं भी हैं, जैसे मनरेगा और खाद्य सुरक्षा क़ानून. बीते साल का काफी उधार भी होगा. वास्तविकता में 2014-15 का बजट घाटा दिखाए जाने वाले घाटे से 5.5 प्रतिशत ज़्यादा हो सकता है. लेकिन, अगर मरीज को स्वस्थ करना है, तो उसे कई कड़वी दवाएं पिलानी पड़ेंगी. नरेंद्र मोदी का गुड गवर्नेंस का वादा कुछ कठोर निर्णयों की मांग कर रहा है. और, यह तभी संभव हो पाएगा, जब काफी हद तक बीमार
से बीमारी दूर कर दी जाए. अच्छे दिन तभी आएंगे!
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