गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में 28 सदस्यों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने हाल में जम्मू-कश्मीर की दो दिवसीय यात्रा पूरी की. प्रतिनिधिमंडल यहां शांति बहाली की दिशा में कोई कदम उठाने में नाकाम रहा. प्रतिनिधिमंडल 4 सितंबर की सुबह श्रीनगर एयरपोर्ट से सीधे डल झील के किनारे स्थित शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर पहुंचा, जहां उन्होंने दिन भर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मुलाकात की. पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, डेमोक्रेटिक पार्टी नेशनलिस्ट आदि के नेताओं ने प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात कर कश्मीर समस्या पर बातचीत की. यह कोई असाधारण बात नहीं थी क्योंकि ये सभी दल और नेता कश्मीर समस्या पर भारत सरकार के बुनियादी दृष्टिकोण का पूरा समर्थन करते हैं यानी ये सभी दल जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं और भारत के संविधान के साथ वफादारी की शपथ भी लेते रहते हैं. ये सभी राजनीतिक दल और उनके नेता कश्मीर में जारी अलगाववादी आंदोलन का विरोध कर रहे हैं और आए दिन नई दिल्ली जाकर वहां केंद्र सरकार के अधिकारियों और विभिन्न पार्टियों के नेताओं से अक्सर मिलते रहते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि कश्मीर में अमन कायम कर पाना इन नेताओं और इन पार्टियों के वश में नहीं है. अगर इनके वश में होता तो उन्होंने ऐसा बहुत पहले कर लिया होता. सच तो ये है कि कश्मीर में शांति बहाली पीडीपी और बीजेपी की गठबंधन सरकार के अख्तियार में भी नहीं है. अगर ऐसा होता तो कश्मीर में दो महीने से लगातार कर्फ्यू नहीं लगा होता. इस दौरान यहां 70 से अधिक लोग मारे नहीं गए होते और करीब 200 लोगों की आंखों की रोशनी नहीं चली गई होती. यहां इंटरनेट और मोबाइल फोन बंद नहीं होते. न्यूज चैनलों पर प्रतिबन्ध नहीं लगा होता. हर गांव में रोजाना हजारों, लाखों लोगों के जुलूस नहीं निकलते. दो महीने के दौरान दो हजार से अधिक नौजवान गिरफ्तार नहीं हुए होते. पुलिस थानों में दो माह के दौरान हजारों एफआईआर दर्ज नहीं हुए होते. राज्य सरकार ने यहां कब की शांति बहाल कर ली होती. लेकिन सच्चाई ये है कि कश्मीर के हालात पर राज्य या केंद्र सरकार ने अपना नियंत्रण खो दिया है. इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है जब किसी सरकार को जनता को काबू में रखने के लिए लगातार दो महीने तक बगैर ढील दिए कर्फ्यू लगाये रखना पड़ा है. पिछले 26 साल के हिंसात्मक दौर में यह पहली बार हुआ है कि सिर्फ दो महीने में लोगों और सुरक्षा बलों के बीच झड़पों में दस हजार लोग जख्मी हुए हैं और दर्जनों लोग उम्र भर के लिए आंखों की रोशनी खो चुके हैं. यकीनन और बिना किसी भय के ये बात कही जा सकती है कि राज्य सरकार कश्मीर के हालात पर अपना नियंत्रण खो चुकी है और यहां शांति बहाल करना इसके बस की बात नहीं रही है. सरकार दावा कर रही है कि कश्मीर में हालात बिगाड़ने के लिए पाकिस्तान ने सैकड़ों करोड़ रुपए यहां भेजे हैं. लेकिन एक असहाय सरकार की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि एक वृहद, संगठित खुफिया नेटवर्क, पुलिस फोर्स और दूसरी एजेंसियों के होते हुए भी यह सरकार दो महीने में इस बात का कोई सबूत पेश नहीं कर सकी कि यहां बाहर से पैसा भेजा गया है. जाहिर है कि किसी दूसरे देश से आने वाले सैकड़ों करोड़ रुपए बोरियों में लादकर पैदल सीमा पार तो नहीं लाए गए होंगे. ये रकम अगर यहां पहुंचाई गई है और सरकार के मुताबिक यहां उपद्रवियों में बांटी गई है, तो क्या वजह है कि सरकार इतने बड़े मामले में किसी एक शख्स को भी गिरफ्तार नहीं कर सकी है? क्या ये इस बात का सबूत नहीं है कि सरकार अपनी नाकामियों पर परदा डालने के लिए या तो झूठ कह रही है कि बाहर से पैसा आया है या फिर सरकारी खुफिया तंत्र इतना कमजोर हो चुका है कि सैकड़ों करोड़ रुपए सीमा पार से यहां पहुंचाए और बांटे जा रहे हैं, लेकिन सरकार को कानों कान खबर नहीं होती है. उसे कोई सबूत भी नहीं मिलता है. ऐसी स्थिति में यदि सत्ताधारी पार्टियां पीडीपी या बीजेपी या विपक्षी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से मिले भी हैं तो उसका क्या परिणाम निकलना था? बल्कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने तो प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत और मुलाकात के बाद बाहर आकर मीडिया को बताया कि इस प्रतिनिधिमंडल की कोई अधिक विश्वसनीयता नहीं है. ये पूछे जाने पर कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं, तो उमर अब्दुल्ला ने कहा कि अब तक इस तरह के कई प्रतिनिधिमंडल यहां आ चुके हैं. लेकिन इसके नतीजे में न तो कश्मीर का मसला हल हो सका है और न ही स्थाई शांति स्थापित हो सकी है. उमर अब्दुल्ला ने बीजेपी नेता राम माधव के एक ताजा बयान को कोट करते हुए कहा कि माधव कहते हैं कि भारत के संविधान के दायरे में रहकर कश्मीर समस्या का समाधान निकाला जाना चाहिए. उमर अब्दुल्ला का कहना था कि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने संविधान के दायरे में रहकर ही विधानसभा में दो तिहाई की बहुमत से स्वायत्तता का प्रस्ताव पास किया था, लेकिन भारत सरकार ने इसका क्या किया?
पीडीपी के नेता सरताज मदनी ने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात के बाद मीडिया से बात करते हुए कहा कि पीडीपी ने प्रतिनिधिमंडल को बताया कि कश्मीर में स्थायी शांति के लिए कश्मीर समस्या का राजनीतिक हल निकालना आवश्यक है. इस सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात करने वाली दूसरी पार्टियों ने भी अपने बयान में कहा है कि उन्होंने प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर समस्या का समाधान तलाशने और हुर्रियत के साथ बातचीत करने की सलाह दी है. शायद ऐसी ही प्रतिक्रिया मिलने के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल सीताराम येचुरी, डी राजा और असदुद्दीन ओवैसी ने हुर्रियत नेताओं से बातचीत करने की नाकाम कोशिश की.
सीताराम येचुरी और डी राजा श्रीनगर के हैदरपुरा स्थित सैयद अली शाह गिलानी के घर पहुंचे, लेकिन उन्होंने इन दोनों के लिए अपने घर के दरवाजे खोलने से भी इनकार कर दिया. नतीजतन उन्हें वापस लौटना पड़ा. बाकी लोग श्रीनगर के हमहमा ज्वाइंट इन्टरोगेशन सेंटर पहुंचे, जहां यासिन मलिक कैद हैं. यासिन मलिक ने दुआ-सलाम के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को यह कहकर वापस लौटा दिया कि वे बातचीत नहीं करना चाहते हैं. असदुद्दीन ओवैसी ने चश्माशाही जेल जाकर वहां कैद मीरवाइज उमर फारूक से मुलाकात करने की कोशिश की, लेकिन उमर वाइज ने सिर्फ दो मिनट बात करने के बाद उन्हें यह कहकर वापस लौटा दिया कि हुर्रियत ने संसदीय प्रतिनिधिमंडल से न मिलने का फैसला किया है. रात दो बजे इन तीनों अलगाववादी नेताओं की तरफ से जारी किए गए एक साझा बयान में कहा गया कि ये हमारी समझ से बाहर है कि इस प्रतिनिधिमंडल से उम्मीदें क्यों रखी जाएं, जिसे किसी स्पष्ट मुद्दे को आगे बढ़ाने का अधिकार हासिल नहीं.
समीक्षकों का कहना है कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल दरअसल हुर्रियत लीडरों से मिलना ही नहीं चाहता था. उनकी दलील है कि अगर भारत सरकार वाकई हुर्रियत के साथ बातचीत करना चाहती, तो उन्हें सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत से पूर्व औपचारिक निमंत्रण दिया जाता, जिस तरह राज्य सरकार ने अन्य दलों को निमंत्रण पत्र भेजे थे. गौरतलब है कि हुर्रियत को सरकारी स्तर पर ऐसा कोई निमंत्रण नहीं भेजा गया था. बहरहाल, महबूबा मुफ्ती ने पीडीपी की अध्यक्ष की हैसियत से हुर्रियत को एक खत लिख कर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से मिलने की अपील की थी.
दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि यदि सरकार वास्तव में चाहती थी कि हुर्रियत के नेता प्रतिनिधिमंडल से मिलें तो इसके लिए जरूरी था कि उन्हें एक-दो दिन पहले जेलों से रिहा कर दिया जाता, ताकि वे एक-दूसरे से मिलकर, सलाह-मशविरा करते. बहरहाल सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के दो दिवसीय जम्मू-कश्मीर दौरे ने यहां के हालात पर कोई सकारात्मक असर नहीं डाला, बल्कि उनके यहां पहुंचने के पहले ही घाटी में सबसे ज्यादा हिंसा की वारदातें हुईं, जिनमें 600 लोग जख्मी हुए. सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल के कश्मीर दौरे को अगर नाकाम न भी करार दिया जाए तो इसे कामयाब नहीं कहा जा सकता है. सीताराम येचुरी ने हुर्रियत के नेताओं के साथ मुलाकात की नाकाम कोशिश के बाद मीडिया से बातचीत करते हुए एक बुनियादी बात कह डाली. उन्होंने कहा कि कश्मीर में नई दिल्ली के प्रति विश्वसनीयता की कमी पाई जा रही है.
हकीकत ये है कि पिछले 26 साल के दौरान भारत सरकार ने, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल को छोड़ कर, कभी भी कश्मीर समस्या का कोई राजनीतिक हल ढूंढने की गंभीर कोशिश नहीं की. हालांकि हर प्रधानमंत्री ने अपने बयानों में कश्मीर समस्या के हल करने की जरूरतों पर जोर दिया है. वर्ष 1990 में यहां सशस्त्र आंदोलन शुरू होने के कुछ ही समय बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था, कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आजादी की मांग को छोड़ कर किसी भी मुद्दे पर बातचीत की जा सकती है. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने कहा था, कश्मीर समस्या के समाधान के हवाले से आजादी से कम कुछ भी मांग लो. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, कश्मीर समस्या हल करने के लिए संविधान के दायरे में नहीं, बल्कि इंसानियत के दायरे में बातचीत की जानी चाहिए. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, कश्मीर समस्या का समाधान करने के लिए सरहदों को तो बदला नहीं जा सकता, लेकिन उन्हें अप्रासंगिक बनाया जा सकता है. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हाल में कश्मीर के हवाले से इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत के सहारे यह मसला हल करने की बात कही. लेकिन सच तो ये है कि व्यावहारिक तौर पर भारत सरकार की ओर से कश्मीर समस्या का समाधान करने के लिए कोई ठोस उपाय करने के बजाय 2016 में भी कश्मीरी जनता को ताकत के बल पर दबाने की कोशिशें की जा रही हैं. इसकी मिसालें पिछले दो महीने के दौरान यहां देखने को मिल रही हैं.
समीक्षकों का कहना है कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के कश्मीर दौरे की नाकामी की बुनियादी वजह ये है कि नई दिल्ली कीओर से हमेशा कश्मीरियों को बातचीत के नाम पर उलझाने की कोशिशें की गई हैं. साल 2010 के प्रदर्शन में जब सुरक्षा बलों के हाथों 120 आम नागरिक, जिनमें दर्जनों बच्चे भी शामिल थे, मारे गए तो उस वक्त की यूपीए सरकार ने वार्ताकारों की एक तीन सदस्यीय टीम गठित की थी, जिसमें दिलीप पडगांवकर, राधा कुमारी और एमएम अंसारी शामिल थे. उन्हें यह अधिकार दिया गया था कि वे कश्मीर के सभी विचारधारा के लोगों के साथ बातचीत करने के बाद अपनी रिपोर्ट और सुझाव पेश करें. ये टीम कश्मीर में एक साल तक पांच हजार प्रतिनिधिमंडलों से मिली और खुलकर बातचीत की. एक साल बाद जब टीम ने अपनी रिपोर्ट कई सुझावों के साथ पेश की तो भारत सरकार ने उसे डस्टबीन में डाल दिया.
इसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने इस संबंध में अपने बयान में कहा था कि वार्ताकारों को कश्मीर इसलिए नहीं भेजा गया था कि वे हमें बताएं कि वहां के हालात कैसे हैं? सरकार तो पहले से ही जानती है, लेकिन हमने ये टीम इसलिए गठित की थी ताकि कश्मीर के उस वक्त के हालात का दायरा तब्दील किया जा सके यानी हालात बेहतर किए जा सकें. ये एक गृहमंत्री की खुली स्वीकारोक्तिथी कि वार्ताकारों के नाम और कश्मीरी आवाम के साथ धोखा किया गया.
यूपीए सरकार ने साल 2005 में जस्टिस सगीर की अगुआई में एक वर्किंग ग्रुप गठित कर उसे ये काम सौंप दिया था कि जम्मू-कश्मीर और केंद्र के बीच रिश्तों को सुधारने के लिए अपनी सिफारिशें पेश करे. इस वर्किंग ग्रुप ने भी पूरी खोज-परख और बातचीत के बाद एक रिपोर्ट केंद्र सरकार को पेश की, लेकिन इस रिपोर्ट को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया. फिर इस सरकार ने 26 साल के दौरान कश्मीरी आवाम और अलगाववादी नेताओं को झांसा देने के लिए समय-समय पर कई शख्सियत को भी इस्तेमाल किया. इनमें एएस दुल्लत, राम जेठमलानी, केसी पंत, एनएन वोहरा और वजाहत हबीबुल्ला जैसे लोग शामिल थे. लेकिन इन शख्सियत ने भारत सरकार के लिए कभी दोबारा कश्मीर में अपनी सेवाएं पेश करने पर अपनी सहमति जाहिर नहीं की. क्योंकि उन्होंने भारत सरकार के भरोसे पर अलगाववादी नेताओं और यहां के आवाम से जो वादे किए थे, वो कभी पूरे नहीं हुए. इस वजह से इन शख्सियत की विश्वसनीयता भी खत्म हो गई और लोगों ने इन पर दोबारा भरोसा नहीं किया. शायद इसलिए कश्मीर को विश्वसनीयता की क़ब्रगाह कहा जाता है, क्योंकि भारत सरकार की गलत नीतियों की वजह से यहां कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है. यही वजह है कि इस बार सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की सार्वजनिक स्तर पर कोई प्रशंसा नहीं हुई. सिर्फ हुर्रियत नेताओं ने ही नहीं, बल्कि बड़े व्यवसायियों और बार एसोसिएशन ने भी प्रतिनिधिमंडल से मिलने से साफ इंकार कर दिया. ये दरअसल विश्वसनीयता की कमी का मामला है. संभव है कि आने वाले कुछ दिनों या हफ़्तों में कश्मीर में हालात सामान्य हो जाएं. क्योंकि इस तरह के हालात हमेशा कायम नहीं रह सकते. लेकिन सच तो ये है कि भारत सरकार हर बीतने वाले दिन के साथ कश्मीर में अपनी विश्वसनीयता खो रही है. यहां तक कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसे मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता और भरोसेमंदी भी भारत सरकार की वजह से जा रही है.
नई दिल्ली के लिए जरूरी है कि वो कश्मीर में आवाम का भरोसा हासिल करने के लिए एक प्रक्रिया शुरू करे जो ईमानदारी की बुनियाद पर हो और वास्तव में समस्या को लेकर गंभीर होे. जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ बढ़ती खाई को पाटना भारत के लिए जरूरी है, क्योंकि अगर ताक़त के बल पर जनता को झुकाना संभव होता तो यहां मौजूद सात लाख फौज पिछलेे 26 सालों में यह काम कर चुके होते.
अमन का जिहादी
बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से कश्मीर की हालत बिगड़ गई है. 70 दिन होने के बाद भी कश्मीर की हालत खराब है. हालांकि इसकी वजह केवल बुरहान वानी का मारा जाना नहीं है. कई सालों से कश्मीर का मुद्दा चला आ रहा है और यह अभी तक नहीं सुलझा है. इसके पीछे कई सारी शक्तियां हैं, जिसकी वजह से कश्मीर की हालत ऐसी हो गई है. अभी पिछले एक महीने में मैं दो बार कश्मीर गया. वहां के स्थानीय व्यापारियों, युवाओं और नेताओं से मिला. उनसे बातचीत की. लोगों का कहना है कि इस समस्या को खत्म करो, कश्मीर का जो भी मसला है, उसका हल एक बार में निकालो.
कश्मीर में मैं सभी वर्ग के लोगों से मिला. किसानों का अलग मामला है. उनका कहना है कि हमारे सेब के व्यापार के लिए सरकार से सुविधा चाहिए. व्यापारियों की अलग परेशानी है. व्यापारी कहते हैं कि हम दोनों तरफ से पीसे जाते है. सरकार कहती है कि दुकान खोलो, आतंकवादी कहते हैं बंद करो. किसकी बात मानें. आतंकवादियों की मानेंगे तो आर्मी वाले परेशान करते हैं. सरकार की बात मानते हैं तो आतंकवादी हमारी दुकान जला देते हैं. कश्मीर के लोगों के पास काम नहीं है. उनके पास इनकम का कोई साधन नहीं है. कश्मीर में मुझे एक टैक्सी वाला मिला. उसने मुझसे कहा कि वह भी पत्थर मारेगा. मैने पूछा कि क्यों मारोगे? उसका कहना था कि हमारा दो महीने से काम बंद है. कुछ दिनों में ठंड की शुरुआत हो जाएगी, टूरिज्म बंद हो जाएगा, तो हम खाएंगे क्या? सवाल है कि हिंदुस्तान में इतनी अधिक इंडस्ट्री है. क्या हम वहां के लोगों को इंडस्ट्री में नौकरी नहीं दे सकते? कश्मीर के युवाओं का विश्वास जीतना होगा. उनसे कोई बात ही नहीं करता. कश्मीर में नेता जाते हैं, नेताओं और अलगाववादियों से बात करते हैं. इन युवाओं का कहना है कि अलगाववादी हमारे नेता नहीं हैं, आप सीधे हमसे बात करो. हमसे पूछो कि हमें क्या चाहिए? आज की हालत में वहां युवाओं का कोई नेता नहीं है. कश्मीर में कोई कहता है कि हमको आजाद कश्मीर चाहिए, कोई कहता है कि हमें पाकिस्तान में जाना है और कोई कहता है कि हमें हिंदुस्तान के साथ रहना है. यह मसला नया नहीं है. यह मसला आजादी के दूसरे दिन ही उठा था. कश्मीर हमको अलग चाहिए. आज तक इस मसले का हल नहीं किया गया. राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए इस मसले को जिंदा रखा है. कश्मीर के लोगों को आप कहते हैं कि बुरे हैं, अच्छे नहीं हैं, पाकिस्तान के लोगों से मिले हुए हैं. लेकिन, जब कश्मीर में चुनाव होते हैं तो अलगाववादी धमकियां देते हैं, लेकिन इसके बावजूद 74 प्रतिशत लोग मतदान करते हैं और अपनी सरकार चुनते हैं. इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि वे लोग भारत को अपना मानने वाले हैं. इसलिए पहले उनको समझना पड़ेगा, उनको अपनाना पड़ेगा और उनको प्यार से जीतना पड़ेगा. उन्हें बंदूक की गोली से नहीं जीता जा सकता.
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर गई. किससे बात हुई? सीएम, एमएलए और कुछ नेता. क्या इस प्रतिनिधिमंडल ने आम लोगों से बात की. युवाओं से बात की. सड़कों पर जाकर लोगों से बात किया क्या? नहीं. सुरक्षा में रहकर सबको बुलाकर बात करोगे तो आम आदमी को क्या समझ आएगा. मेरा मानना है कि उनका गुस्सा शांत करने में बहुत समय लगेगा. उनका गुस्सा भारत से नहीं है, केवल सरकार और आर्मी से है.
जोड़ो भारत अभियान ने एक शांतिवार्ता 2 अक्टूबर को कश्मीर के लाल चौक पर रखी है. हम हजारों लोगों के साथ उस्मानाबाद से कश्मीर तक जाएंगे. 2 अक्टूबर को लाल चौक पर कश्मीरी लोगों के साथ, कश्मीर के अमन के लिए, कश्मीरी लोगों की खुशहाली के लिए एक प्रार्थना सभा करेंगे. वहां हम कश्मीरी युवाओं से बात करेंगे. हमारा जा़ेडो भारत अभियान शुरू हो चुका है. यह कोई यात्रा नहीं है. यह जनजागृति अभियान है कि चलो कश्मीर. यहां से लोग तो जाएंगे नहीं. हमारा सबसे बड़ा प्रयास है कि कैसे कश्मीर के अधिक से अधिक लोग इस शांति प्रार्थना में आएं. हम वहां अमन के सिपाही, अमन के जिहादी बनकर जा रहे हैं.
मैं मानता हूं कि उन्हें प्यार की जरूरत है. उन्हें यह नहीं मालूम है कि वह पत्थर क्यों उठा रहे हैं? मैं समझता हूं कि सरकार के अलावा, समाज को भी कश्मीर समस्या के समाधान के लिए प्रयास करना चाहिए. हमें समझना होगा कि कश्मीर हमारा है, कश्मीर के लोग हमारे हैं. सरकार और समाज को मिलकर कश्मीर के लिए काम करना होगा.