कोई क्यों न सरकार पर गुस्सा हो. अगर ईद पर भी एक-दूसरे को बधाई न दे पाएं तो ईद मनाना बेकार हो जाता है. ईद त्योहार ही प्यार, मोहब्बत और भाईचारे का है. सारी दुनिया में इसे हर्ष- उल्लास के साथ मनाया गया, लेकिन कश्मीर में लोग घरों से बाहर नहीं निकल पाए. न उन्होंने कपड़े नए पहने, न सिवइयां खाईं, जिन्होंने खाईं, उन्हें भी मीठी नहीं लगीं, क्योंकि ईद से महीने भर पहले से कर्फ्यू में घाटी थी. अ़फसोस इस बात का कश्मीरियों को था कि वे एक-दूसरे से गले मिलना तो दूर, बधाई भी नहीं दे सके. इसकी वजह सरकार का कश्मीर में एसएमएस सर्विस को रोक देना रहा. वहां लैंडलाइन और मोबाइल सर्विस चल रही है, लेकिन मैसेज और इंटरनेट बंद हैं. आज आम लोग मोबाइल से फोन करना महंगा मानते हैं, लेकिन संदेश देना सस्ता होता है. सारी दुनिया में, विशेषकर भारत में त्योहारों पर अब मोबाइल एसएमएस ही भेजे जाते हैं. बड़े शहरों में तो एसएमएस ट्रैफिक कभी-कभी जाम भी हो जाता है. कश्मीर में लोग इससे वंचित रहे. उनका दर्द सरकार में समझे कौन.
कश्मीरियों की मासूमियत, कश्मीरियों का सीधापन हमारे लिए बचाव का आसान रास्ता बन गया. हमारे यहां से अच्छा चावल जाता था, लेकिन वह कश्मीर जाने के बजाय बाज़ार पहुंच जाता था तथा मोटा चावल कश्मीर के लोगों को मिल पाता था. कश्मीर में सत्ता पर क़ाबिज़ लोग पचास साल तक भ्रष्टाचार में पीएचडी करते रहे और भारत सरकार के पास सुनने का समय नहीं रहा.
हक़ीक़त यह है कि मोबाइल कंपनियां इसके पीछे नज़र आती हैं. वे किसी न किसी फैसला लेने वाली ताक़त के साथ मिलकर मोबाइल कॉल की संख्या बढ़ाकर मुना़फा कमा रही हैं. आ़िखर लोग मजबूरी में एसएमएस सुविधा न होने की वजह से कॉल करेंगे ही. प्रशासन में बैठे लोगों की समझ में क्यों नहीं आता कि खुद की उनकी अक्षमता की वजह से समस्या ज़्यादा खड़ी हो रही है. एसएमएस बंद हैं, लेकिन कश्मीर में रोजाना हज़ारों की संख्या में प्रदर्शन हो रहे हैं. किसी बच्चे या जवान की मौत होती है तो उसके जना़जे में हज़ारों लोग शामिल होते हैं. कैसे संदेश पहुंचते हैं एक-दूसरे के पास.
कश्मीर का दर्द आज तक देश के सामने आया ही नहीं. हमने हमेशा कश्मीर को भारत के सामंती चश्मे से देखा. हमने कभी कश्मीर को अपने साथ माना ही नहीं. चाहे भारत की सरकार रही या भारत का मीडिया, हमने कश्मीर के दर्द पर हमेशा नमक छिड़का. हम भूल गए कि आज़ादी के समय हम भारत देश के स्वाभाविक व जन्मजात नागरिक थे, लेकिन कश्मीर के लोगों के पास तो विकल्प चुनने का मौक़ा था. कश्मीर एक आज़ाद रियासत थी, जहां के महाराजा ने कश्मीर का विलय भारत में किया था. विलय के समय और बाद में कश्मीरियों को आश्वासन दिए गए थे. हमें पता था कि हम यह आश्वासन पूरे नहीं कर पाएंगे, लेकिन हमने कभी इसकी वजहें कश्मीरियों को नहीं बताईं.
कश्मीरियों की मासूमियत, कश्मीरियों का सीधापन हमारे लिए बचाव का आसान रास्ता बन गया. हमारे यहां से अच्छा चावल जाता था, लेकिन वह कश्मीर जाने के बजाय बाजार पहुंच जाता था तथा मोटा चावल कश्मीर के लोगों को मिल पाता था. कश्मीर में सत्ता पर क़ाबिज़ लोग पचास साल तक भ्रष्टाचार में पीएचडी करते रहे और भारत सरकार के पास सुनने का समय नहीं रहा. कश्मीर में आज़ादी के चालीस साल बाद तक न स्कूल, न स्वास्थ्य, न उच्च शिक्षा, न रोज़गार और न ही विकास की कोई योजना बनी. राष्ट्रीयकृत बैंक पर्यटन उद्योग की रीढ़ माने जाने वाली टैक्सी के लिए कश्मीरियों को नई कार के लिए लोन नहीं देते थे, जबकि पांच सितारा होटलों या बाहरी लोगों को यही लोन आसानी से मिल जाता था. आज भी देश के किसी भी हिस्से में स़फर कीजिए, चाहे रेल से या हवाई जहाज से आपको बंगाली, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, गुजराती सभी भाषाभाषी यात्री मिल जाएंगे, क्योंकि वे हर जगह काम करते हैं, लेकिन कहीं भी कश्मीरी बोलने वाला नहीं मिलेगा. कश्मीर के लोगों को हमने कश्मीर से बाहर निकलने ही नहीं दिया, उनके लिए न कश्मीर में रोज़गार के अवसर हैं और न ही कश्मीर के बाहर. कश्मीर के लोगों की तकली़फ हमें हमेशा पाकिस्तान प्रेरित लगी. देश के दूसरे हिस्सों में समस्याओं की कमी नहीं है. किसान, मज़दूर, छात्र, दलित, पिछड़े, आदिवासी सभी विकास और लोकतंत्र से अलगाव की समस्याओं से परेशान हैं और आवाज़ भी उठाते हैं, पर उन्हें पाकिस्तान प्रेरित नहीं माना जाता. हमारी बेरुखी, हमारी संवेदनहीनता और हमारे द्वारा पोषित भ्रष्टाचार से पीड़ित कश्मीर के शुरुआती विरोध को पाकिस्तान ने समर्थन भी दिया और हवा भी दी. कश्मीर के लोगों के एक हिस्से को लगा भी कि पाकिस्तान के साथ जाना बेहतर होता. पर यह सोच दस साल के भीतर बदल गई. कश्मीरियों को पाकिस्तान वाले कश्मीर की हक़ीक़त और खुद पाकिस्तान में पैदा हुई समस्याओं पर पाकिस्तान की बेबसी का जैसे ही एहसास हुआ, वे पाकिस्तान की भाषा से अलग भाषा बोलने लगे. जो पाकिस्तान अपनी समस्याएं सुलझाने में पूर्णतया असफल राष्ट्र का दर्जा पा रहा तो, जो आतंकवाद, भ्रष्टाचार और ग़रीबी से जूझने में अफ्रीकी देशों की बराबरी कर रहा हो, वह कश्मीर के बारे में स़िर्फ ज़ुबानी हमदर्दी ही दिखा सकता है, यह कश्मीरियों की समझ में आ गया है.
लेकिन इस सारी कहानी में भूख, ग़रीबी, बेकारी, विकासहीनता और भविष्य काला होने का दर्द कश्मीरियों में इतना हौसला भर गया कि वे आंख में आंख डालकर बात करने लगे. जान देना उनके लिए खेल बन गया है, वैसे ही, जैसे कश्मीर में कुछ तत्वों का जान लेना खेल बन गया है. देश में कहीं प्रदर्शन हो, पहले लाठीचार्ज, फिर आंसू गैस, वाटर कैनन और फिर गोली चलती है, पर कश्मीर में स़िर्फ गोली चलती है और वह भी सर या सीने को निशाना बनाकर. कश्मीर की धरती से हमें प्यार है या हम वहां के लोगों से भी प्यार करते हैं. क्या वहां के बच्चे हमें अपने बच्चों जैसे नहीं लगते? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते हैं कि कश्मीर में नौजवानों के साथ बच्चे भी प्रदर्शन में हिस्सा लेने लगे हैं. उन्हें अगर यह चिंता में डालता है तो वह इसे कश्मीर में सुरक्षाबलों को क्यों नहीं बतलाते?
क्यों नहीं हम कश्मीरियों को बतलाते कि आटोनॉमी का मतलब क्या है और क्यों इसकी बहस वहां नहीं होने देते. उन्हें अगर अब भी नहीं हम यह विश्वास दिलाएंगे कि हम उन्हें अपने जैसा मानते हैं तो कब विश्वास दिलाएंगे. पूरी कश्मीर घाटी भारत को अपना दुश्मन मानने लगी है, कोई सभ्य भाषा में यह बात कहता है तो कोई सख्त और नंगी भाषा में. अ़फसोस इस बात का है कि भारत के राजनैतिक दलों के पास, जिसमें सत्तारूढ़ और विपक्ष शामिल है, कश्मीर को लेकर न कोई समझ है, न जानकारी है और न कोई योजना है. ठीक यही हाल कश्मीर के राजनैतिक दलों का भी है. वे भी कश्मीर को लेकर एकराय नहीं हैं. कश्मीर के सभी मुख्यमंत्री वहां केंद्र के एजेंट माने गए. शेख अब्दुल्ला सबसे बड़े नेता हुए, पर उनके साथ हुआ व्यवहार कश्मीरियों को आज भी गुस्सा दिलाता है. फारूक़ अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला के बीच कश्मीरी थोड़ा फर्क़ करते हैं. उन्हें लगता है कि उमर अब्दुल्ला अगर समस्या के समाधान का रास्ता भी शुरू कर सकें तो यह बड़ी उपलब्धि होगी. कश्मीरियों को लगता है कि उमर अब्दुल्ला उनका चेहरा हैं, लेकिन उन्हें वह अपरिपक्व भी मानते हैं. यह छाप भी उमर ने अपनी नादानियों से छोड़ी है.
आज कश्मीर की समस्याओं को टालने या अनदेखा करने का समय नहीं है. देर न हो, इससे पहले सरकार और राजनीतिक तंत्र को अपनी ग़लती सुधारनी होगी तथा कश्मीरियों को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम उनके जीने के अधिकार का सम्मान करते हैं और उन्हें वैसी ही इज़्ज़त देते हैं, जैसे किसी और देशवासी को देते हैं. सुरक्षाबलों को सख्त हिदायत मिलनी चाहिए कि सर या सीने पर गोली नहीं चलाई जाए. आतंकवादियों और घुसपैठियों के लिए बनी गोली अपने ही बच्चों और नागरिकों पर चलाना अपराध है. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी पर इतिहास बनाने या बिगाड़ने की ज़िम्मेदारी है. आज व़क्त है कि हम मा़फी भी मांगें, ग़लती भी सुधारें और एक नई शुरुआत करें, जिससे कश्मीर का रहने वाला भारत का नागरिक होने की भावना से अपने को अलग न माने.