कर्नाटक विधानसभा चुनाव को न सिर्फ इसके असाधारण परिणामों के नतीजे में शुरू हुए ड्रामे के लिए याद किया जाएगा, बल्कि उसे देश के इतिहास में सबसे खर्चीले विधान सभा चुनाव के रूप में भी याद किया जाएगा. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के अध्ययन के मुताबिक यहां पार्टियों और उम्मीदवारों ने कुल 9,500 से 10,500 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. यह खर्च 2013 के विधानसभा चुनाव के खर्च से दोगुना है. दिलचस्प बात यह है कि इसमें प्रधानमंत्री की रैलियों पर होने वाले खर्चे का हिसाब नहीं है. सीएमएस के आकलन के मुताबिक यदि इसी रफ़्तार से आगे होने वाले चुनावों पर भी खर्च होता रहा तो 2019 के लोक सभा चुनाव का कुल खर्च 50,000 से 60,000 करोड़ तक पहुंच जाएगा.
जब चुनावों के रुझान आने लगे और भाजपा का आंकड़ा 120 के ऊपर पहुंच गया तो दिल्ली से लेकर बंगलुरू तक भाजपा के खेमे में जश्न की लहर दौड़ गई. ढोल पीटे गए, मिठाइयां बांटी गईं, नाच-गाना हुआ. भाजपा की तरफ से कार्यक्रम बनाए गए. मुख्यमंत्री पद के दावेदार बीएस येदियुरप्पा ने दिल्ली आने की घोषणा कर दी. लेकिन खेल अभी बाक़ी था. कुछ ही देर बाद भाजपा का आंकड़ा घटने लगा और घटते-घटते बहुमत के जादूई अंक से नीचे गिर गया. फिर भी लग रहा था कि सरकार बनाने में उसको मुश्किल नहीं होगी, लेकिन अंतिम नतीजे आते-आते भाजपा के जीत का आंकड़ा 104 रह गया. अब उसे बहुमत के लिए 8 विधायकों की दरकार थी.
मणिपुर, गोवा और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार न बना पाने का दंश सह चुकी कांग्रेस ने एक नया पासा फेंक दिया. उसने जनता दल सेक्युलर के कुमारस्वामी, जिन्हें 37 सीटें मिली थीं, के समक्ष मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव रख दिया. इस प्रस्ताव को कुमारस्वामी ने बिना समय गंवाए मान लिया. उधर भाजपा के सारे तय कार्यक्रम रद्द होने लगे. जश्न का माहौल ठंडा पड़ने लगा. येदियुरप्पा ने दिल्ली आने का अपना कार्यक्रम रद्द कर राज्यपाल से मुलाक़ात की और आनन-फानन में सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. सूत्रों के हवाले से आई ख़बरों के मुताबिक उन्होंने राज्यपाल से कहा था कि वे हर हाल में उन्हें ही सरकार बनाने का निमंत्रण दें.
उधर कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर के विधायक राज भवन पहुंच कर राज्यपाल के समक्ष परेड करना चाहते थे, लेकिन राज्यपाल ने केवल उनके प्रतिनिधियों को ही अन्दर आने की इजाज़त दी. कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर ने अपने विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र राज्यपाल को सौंपा. बहरहाल राज्यपाल ने पूरे एक दिन का समय लिया और दूसरे दिन यानि 16 मई को बीएस येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दे दिया और बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 15 दिन का समय दिया. ज़ाहिर है भाजपा के पास नंबर नहीं थे, फिर भी राज्यपाल ने उसे पहले सरकार बनाने को कहा. कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और आधी रात को सुनवाई के लिए अदालत खोला गया. दूसरे दिन यानी 17 मई की सुबह बीएस येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली.
इस शपथग्रहण की दिलचस्प बात यह थी कि अमित शाह या नरेन्द्र मोदी इस में शामिल नहीं हुए थे. शपथ लेने के कुछ घंटे बाद ही बीएस येदियुरप्पा हरकत में आ गए. वे सदन में अपना बहुमत साबित करने का इंतज़ार किए बिना हरकत में आ गए और कई अधिकारियों का तबादला कर दिया और किसान क़र्ज़ मा़फी का फैसला भी कर दिया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 18 जून को कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर की याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने अंतरिम फैसले में येदियुरप्पा को 28 घंटे के भीतर सदन में बहुमत साबित करने को कहा.
लेकिन यह पंक्तियां लिखे जाने तक जोड़-तोड़ से सम्बंधित अफवाहों का बाज़ार भी गर्म है. विपक्षी खेमे का दावा है कि उनके विधायकों को 100-100 करोड़ की पेशकश की जा रही है. साथ में सूत्रों के हवाले से टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ का सिलसिला भी जारी है कि भाजपा विपक्षी खेमे के 8 विधायकों के सम्पर्क में है. बहरहाल कर्नाटक का नाटक जारी है. बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में अंतत: कौन सा दल जीतेगा, यह महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि हारा कौन?
फील गुड फैक्टर
कर्नाटक चुनाव से पूर्व जो आकलन किए जा रहे थे, उसमें कांग्रेस का पलड़ा भारी दिखाया जा रहा था. खास तौर पर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया द्वारा लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा दिए जाने को उनके ट्रम्प कार्ड के तौर पर देखा जा रहा था. लेकिन एग्जिट पोल के बाद भाजपा और कांग्रेस के बीच मामला बराबरी पर आकर रुकता दिखा. यहां त्रिशंकु विधानसभा की सम्भावना प्रबल हो गई थी. ऐसे में जनता दल सेक्युलर को किंगमेकर के रूप में दिखाया जा रहा था.
ऐसे में कांग्रेस यह मान गई कि शायद उसे बहुमत न मिल सके. इसलिए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की तरफ से यह बयान आया कि दलित मुख्यमंत्री के लिए वो अपना पद छोड़ सकते हैं. त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में यह इशारा था जनता दल सेक्युलर के लिए, जो किसी भी हालत में सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहती थी. लेकिन जैसे विधान सभा की आखिरी तस्वीर उभर कर सामने आई किंगमेकर, किंग बनाने का दावेदार बन गया. कांग्रेस ने जनता दल सेक्युलर के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद की पेशकश की, जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया.
ऐसे में इस चुनाव ने बंगलुरू की सत्ता की कुर्सी के दावेदार तीनों पक्षों (यानी कांग्रेस, भाजपा और जनता दल सेक्युलर) को अच्छा महसूस करने का मौक़ा दिया. भाजपा ने बेहतर महसूस किया, क्योंकि वो सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी. कांग्रेस ने भी अच्छा महसूस किया, क्योंकि उसे सबसे अधिक वोट मिले और पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले में उसका मत प्रतिशत भी बढ़ा. वहीं जनता दल सेक्युलर इसलिए खुश है, क्योंकि उसने अपना पुराना प्रदर्शन लगभग दोहराया है और उसे बैठे-बिठाए मुख्यमंत्री की कुर्सी का ऑफर मिल गया है.
अधिक वोट, सीटें कम
कर्नाटक में कांग्रेस को भाजपा से कम सीटें मिली हैं, लेकिन उसका वोट प्रतिशत और कुल वोट भाजपा से कहीं अधिक है. कांग्रेस को कुल 38 प्रतिशत वोट मिले, जबकि भाजपा को 36.2 प्रतिशत. यदि वोटों का अंतर देखा जाए तो कांग्रेस को भाजपा से 6 लाख अधिक वोट मिले. अब सवाल यह उठता है कि ऐसा हुआ क्यों? दरअसल इसकी वजह यह है कि भाजपा की 104 सीटों में से कांग्रेस 80 प्रतिशत सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और जनता दल सेक्युलर की 37 सीटों में से 68 प्रतिशत पर दूसरे स्थान पर रही. यानी भाजपा के मुकाबले में कांग्रेस अधिक सीटों पर दूसरे स्थान पर रही. इसलिए उसके वोटों की संख्या बढ़ गई. दरअसल यह पहला मौक़ा नहीं है जब ऐसी स्थिति पैदा हुई हो, उत्तराखंड विधान सभा चुनाव में एक बार ऐसा हो चुका है.
अब क्षेत्रवार ढंग से कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाली सीटों पर एक नज़र डालते हैं. पुराना मैसूर क्षेत्र में भाजपा को 16 सीटों पर कामयाबी मिली, जबकि कांग्रेस को 20 और जनता दल सेक्युलर को 25 सीटों पर कामयाबी मिली. बम्बई कर्नाटक एक लिंगायत बहुल क्षेत्र है, जहां इसबार भाजपा अपनी स्थिति मज़बूत करने में कामयाब हुई है. यहां भाजपा ने 26 सीटें जीती हैं, जबकि पिछले चुनावों में उसे केवल 13 सीटें मिली थीं. इस क्षेत्र में कांग्रेस को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है. पिछले चुनावों में कांग्रेस को यहां 30 सीटें मिली थीं, जो अब घटकर केवल 13 रह गई हैं. लिंगायत बहुल क्षेत्र के ये आंकड़े साबित करते हैं कि लिंगायतों ने कांग्रेस के उस दांव को ख़ारिज कर दिया जिसमें मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा दे दिया था.
साथ में नतीजे यह भी साबित करते हैं कि लिंगायत समुदाय पर अब भी येदियुरप्पा की पकड़ मज़बूत है. हैदराबाद कर्नाटक में भाजपा को केवल 15 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस को 21 सीटें. हालांकि कांग्रेस पिछले चुनाव के अपने प्रदर्शन को बरक़रार नहीं रख पाई और उसका आंकड़ा 23 से नीचे गिर गया, लेकिन तेलुगु आबादी वाले क्षेत्र ने यह सन्देश ज़रूर दे दिया कि वो भाजपा से नाराज़ हैं. साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील तटीय कर्नाटका में भाजपा ने बाजी मारी. उसने क्षेत्र की 19 सीटों में से 16 पर कामयाबी हासिल की जबकि कांग्रेस का आंकड़ा 3 पर सिमट गया. पिछले चुनाव में कांग्रेस को यहां 13 सीटें मिली थीं. बंगलुरू शहरी ने एक बार फिर इस अवधारणा को गलत साबित किया कि शहरी क्षेत्र पर भाजपा की पकड़ मज़बूत है. यहां भाजपा को 11 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस को 13 और जनता दल सेक्युलर को सीटें मिलीं.
पैसे का रिकॉर्ड तोड़ इस्तेमाल
कर्नाटक विधानसभा चुनाव को न सिर्फ इसके असाधारण परिणामों के नतीजे में शुरू हुए ड्रामे के लिए याद किया जाएगा, बल्कि उसे देश के इतिहास में सबसे खर्चीले विधान सभा चुनाव के रूप में भी याद किया जाएगा. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के अध्ययन के मुताबिक यहां पार्टियों और उम्मीदवारों ने कुल 9,500 से 10,500 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. यह खर्च 2013 के विधानसभा चुनाव के खर्च से दोगुना है. दिलचस्प बात यह है कि इसमें प्रधानमंत्री की रैलियों पर होने वाले खर्चे का हिसाब नहीं है.
सीएमएस के आकलन के मुताबिक यदि इसी रफ़्तार से आगे होने वाले चुनावों पर भी खर्च होता रहा तो 2019 के लोक सभा चुनाव का कुल खर्च 50,000 से 60,000 करोड़ तक पहुंच जाएगा. गौरतलब है कि 2014 के चुनावों में 30,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया गया था. अब सवाल यह उठता है कि यदि चुनाव प्रचार पर इतन पैसा खर्च किया जाएगा तो जन प्रतिनिधियों से ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है? ऐसे में तो हर जीता हुआ उम्मीदवार पहले अगले चुनाव की तैयारी के लिए पैसे जमा करेगा बाद में जनता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में सोचेगा और एक साधारण नागरिक के लिए चुनाव लड़ना असंभव हो जाएगा.
मोदी लहर या कुछ और?
जब चुनाव परिणाम आने लगे और भाजपा का आंकड़ा 120 के ऊपर पहुंच गया तो टीवी चैनलों पर एक बार फिर मोदी लहर के बरक़रार रहने और 2019 में उनकी राह आसान होने का राग अलापा गया. लेकिन सवाल है कि क्या भाजपा की जीत में केवल मोदी फैक्टर है या कुछ और, जिसने कर्नाटक में भाजपा को वैतरणी पार कराई? इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों का चुनाव के अंतिम नतीजों पर असर पड़ा है, लेकिन उससे अधिक प्रभाव भाजपा की रणनीति रहा है, जिसके तहत कई समझौते करने पड़े. जैसे भ्रष्टाचार के आरोप में पार्टी से निष्काषित बीएस येदियुरप्पा को फिर से पार्टी में शामिल करना पड़ा, बेल्लारी के रेड्डी बन्धुओं को भ्रष्टाचार के आरोप में पार्टी से निष्काषित किए जाने के बाद फिर से पार्टी में शामिल करना पड़ा.
इन दोनों क़दमों का भाजपा को फायदा मिला, खास तौर पर लिंगायत बहुल क्षेत्र में येदियुरप्पा का फैक्टर असरदार साबित हुआ. उसी तरह तरह पैसे का इस्तेमाल भी एक बड़ा फैक्ट रहा है, जो भाजपा को उसके प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त दे गया. दूसरी तरफ कांग्रेस की कई गलत चालों ने भी भाजपा का रास्ता आसान किया. मसलन पार्टी ने सिद्धारमैया को छोड़कर राज्य स्तर के किसी और नेता को महत्व नहीं दिया. जबकि भाजपा की ओर से लगभग पूरा केंद्रीय मंत्री परिषद वहां रणनीति बनाने के लिए मौजूद था. कांग्रेस ने ठीक चुनाव अभियान के बीच दिल्ली में रैली बुला कर एक दूसरी गलती की. इस रैली में कुछ सीटें खाली रह गई थीं. हालांकि यह छोटी बात थी, लेकिन भाजपा ने इसका फायदा उठाने में भी देर नहीं किया. लिहाज़ा यह कहा जा सकता है कि इस चुनाव में भाजपा की कामयाबी में मोदी फैक्टर के साथ कई अन्य फैक्टर काम कर रहे थे.
अब रही बात भ्रष्टाचार, महंगाई, किसानों की समस्या और दलितों पर अत्याचार की तो इस चुनाव ने यह साबित कर दिया कि इन बातों का मतदाताओं पर अब कोई खास असर नहीं पड़ता. चुनाव में जो चीज़ काम करती है वो इनसे इतर कुछ और भी है, जिसकी समझ भाजपा को कांग्रेस से अधिक है.
कर्नाटक विधानसभा की दलगत स्थिति
पार्टी कुल सीटें जीते
भाजपा 104
कांग्रेस 78
जनता दल सेक्युलर 37
बीएसपी 01
केपीजेपी 01
निर्दलीय 01
कुल परिणाम घोषित 222