भइयालाल गली से गुजर रहे थे, तभी उनकी नज़र एक जगह चख-चख कर रहे कुछ लोगों पर पड़ी. भइयालाल की जिज्ञासा बढ़ी कि आख़िर बात क्या है? नज़दीक जाकर देखा, तो कल्लन हेयर ड्रेसर, चक्की वाले शर्मा, उनके पड़ोसी राव साहब और आसपास की दो-तीन महिलाएं, सबके सब मिलकर गली बनाने वाले ठेकेदार को कोस रहे थे. वजह यह कि गली बनने के पंद्रह दिनों बाद ही पछाड़ खाने यानी उखड़ने लगी थी.
शर्मा बोले, सारा पैसा हजम कर गया. एक रुपये में स़िर्फ दस-बीस पैसे भर काम करते हैं ये ठेकेदार और सारी रकम डकार जाते हैं. तभी तो देश जहां का तहां है, हमारा इलाका जहां का तहां है, हम अक्सर जलभराव का सामना करते हैं. खुद तो एक काम में दो साल का हिसाब-किताब बना लेते हैं और भुगतने के लिए हमें छोड़ देते हैं.
आप सही कहते हो शर्मा जी, न उसने ढंग से रोड़ी कुटवाई, न मिट्टी डलवाई और सीमेंट के नाम पर तो स़िर्फ खेल होता है, कल्लन हेयर ड्रेसर ने शर्मा की बात का समर्थन करते हुए राव साहब की ओर देखा. राव साहब भला कहां चूकने वाले थे, बोले, अरे भाई, हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है, जिसे देखो उसी का हाथ कमीशनखोरी में काला है, ग़रीबों का निकल गया दीवाला है.
अबकी जब ठेकेदार यहां आसपास नज़र आए, तो उसे घेरकर पीटना चाहिए और फिर पूछना चाहिए कि उसने ऐसा घटिया काम क्यों किया? क्या उसके घर-परिवार, बीवी-बच्चे नहीं हैं? जब ठेकेदार को 100 रुपये के काम में केवल 50-55 रुपये हाथ आएंगे, बाकी के पैसे बाबू-अफसर और नेता खा जाएंगे, तो वह हमारी-आपकी गली में सीमेंट की जगह रेत नहीं मिलाएगा, तो और क्या करेगा? ठेका मिलना-टेंडर पास होना कोई हंसी-ठट्ठे का खेल नहीं है. इस बाबू से उस बाबू, इस अफसर से उस अफसर तक चक्कर पर चक्कर लगाता है ठेकेदार. नेता और पुलिस को पूजता है घाते में.
अमां कविता क्यों कर रहे हो? यहां समस्या पर बात हो रही है, आप हैं कि जहां मौक़ा देखा, तुकबंदी चालू कर दी, चक्की वाले शर्मा जी ने बहस में अपनी टांग अड़ाते हुए कहा.
कविता नहीं कर रहा हूं, बात को अपने अंदाज में कह रहा हूं, राव साहब ने सफाई पेश करते हुए कहा, कविता या तो दु:ख में सूझती है या सुख में. मेरी तुकबंदी का अर्थ बूझोगे, तो समझ जाओगे कि मैंने कविता में आख़िर कहा क्या है. वही बात कही है, जो आप सब कह रहे हैं. जिस समस्या से आप दो-चार हैं, उससे हम कहीं अलग थोड़े हैं.अब तक शांत खड़ी महिलाओं ने भी राव के सुर में सुर मिलाया. एक बोली, हम तो कहते हैं कि अबकी जब ठेकेदार यहां आसपास नज़र आए, तो उसे घेरकर पीटना चाहिए और फिर पूछना चाहिए कि उसने ऐसा घटिया काम क्यों किया? क्या उसके घर-परिवार, बीवी-बच्चे नहीं हैं? कुछ तो डरना चाहिए, सोचना चाहिए कि ऐसा करना पाप है. दूसरी बोली, अरे, उसका परिवार यहां थोड़े ही रहता है, जो वह सोचेगा कि हम गलत कर रहे हैं या सही. हम ठीक कह रहे हैं न?
बिल्कुल नहीं, क्योंकि परिवार कहीं भी रहे, हमारे हर सही-गलत काम का असर उस पर पड़ता ज़रूर है, एक अन्य महिला ने पहले वाली महिला को ज्ञान दिया.
भइयालाल अब तक बड़े ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे. वह कुछ और नज़दीक जाकर बोले, गली निर्माण में गड़बड़ी के लिए ज़िम्मेदार कोई और है, ठेकेदार से कहीं ज़्यादा. अरे भाई, जब ठेकेदार को 100 रुपये के काम में केवल 50-55 रुपये हाथ आएंगे, बाकी के पैसे बाबू-अफसर और नेता खा जाएंगे, तो वह हमारी-आपकी गली में सीमेंट की जगह रेत नहीं मिलाएगा, तो और क्या करेगा? ठेका मिलना-टेंडर पास होना कोई हंसी-ठट्ठे का खेल नहीं है. इस बाबू से उस बाबू, इस अफसर से उस अफसर तक चक्कर पर चक्कर लगाता है ठेकेदार. नेता और पुलिस को पूजता है घाते में. जब 100 के काम पर 55 मिलेंगे, तो 20-25 वह अपने और परिवार के लिए भी तो बचाएगा या नहीं? हम उसे पानी पी-पीकर कोस रहे हैं, क्योंकि वह हमारे सामने आता है. बाकी लोग पर्दे के पीछे आधा पैसा खा जाते हैं, उनका कुछ नहीं बिगड़ता. इसे कहते हैं, करे कोई, सुने कोई. समझे!