हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहिता वेमुला, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कन्हैया कुमार और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ऋचा सिंह के साथ जो कुछ हुआ और जिस तरह विश्वविद्यालयों में माहौल बना उसमें बदलाव की चैतन्य सुगबुगाहट तो दिखी, लेकिन उसके समग्र परिवर्तनकारी आंदोलन में तब्दील होने का स्वरूप बनता नहीं दिखा. साफ तौर पर यह एहसास हो रहा है कि देश के छात्रों के बीच रोहित, कन्हैया, ऋचा जैसे जुझारू छात्र नेता तो हैं लेकिन उन्हें बांधकर बृहत्तर लक्ष्य की तरफ ले चलने वाले जयप्रकाश नारायण जैसे मार्गदर्शक राजनीतिक व्यक्तित्वों का अकाल है.
आप पूरे परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो आपको यह कमी दिखेगी और चिंता में डालेगी. लोहिया और जयप्रकाश के नाम पर दुकानें बहुत सारे लोगों की भले ही चल रही हों, लेकिन ऐसे वास्तविक व्यक्तित्व की कमी देश शिद्दत से महसूस कर रहा है. रोहित, कन्हैया, ऋचा के प्रकरणों पर नेता, पत्रकार और मीडिया संगठनों ने अलग-अलग पत्ते फेंटे और छात्रों के चेहरों को बारूद बना कर अपने-अपने मतलब की बंदूकों में भर-भर कर धांय-धांय फायर किया और उसका खूब फायदा उठाया. यही नेता और मीडिया प्रतिष्ठान देश की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक-व्यवस्था के परिवर्तन में असली बाधक हैं. परिवर्तन की सुगबुगाहटों पर यही तत्व पानी डालते हैं और छात्रों केसाथ खड़े दिखने का छद्म भी भरते हैं.
आप गौर करें, रोहित वेमुला की आत्महत्या के उभरते प्रकरण को जेएनयू मसले ने और पुख्ता किया या उसे पंगु बनाया. रोहित वेमुला की आत्महत्या का मसला गरमाता और जेएनयू होता हुआ दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य विश्वविद्यालयों तक पहुंचता, देशव्यापी शक्ल लेता, उसके पहले ही देशविरोधी और अफजलवादी नारे लगा कर उस आंदोलन की धार को किन तत्वों ने कुंद बनाया, किन तत्वों ने उसे पंगु बनाया और संगठित हो रहे छात्रों को दूर बिदकाया? इस असली सवाल का जवाब तलाशने में किसी की रुचि नहीं है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला प्रकरण से ही बात शुरू करते हैं. रोहित वेमुला पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के नाते पिछड़ा था या मातृपक्ष के नाते दलित था, बहस का विषय यह नहीं होना चाहिए था. रोहित जैसे शोध छात्रों का उत्पीड़न जो उसे आत्महत्या करने तक के लिए विवश कर दे, यह संवेदनशील विषय और कारण छात्रों के आंदोलन को समग्रता देने के लिए काफी था. लेकिन सारे राजनीतिक दल रोहित के मृत्यु-वरण पर अलग-अलग शामियाने टांग कर बैठ गए और पूरी धारा को एक खास वोटोन्मुखी राजनीतिक दिशा पकड़ाने में लग गए.
ऐसा आंदोलन जो सामाजिक-अकादमिक शक्ल लेता और पूरे देश के छात्रों को सजग-सतर्क करता, गोलबंद करता, उसे नियोजित रूप से राजनीतिक-अंधकूप की तरफ दिग्भ्रमित किया गया. मीडिया ने भी इस आंदोलन के तीखे बनते तेवर को कुंद करने और भरमाने की पूरी कोशिश की, जिससे परिवर्तनकामी छात्र-शक्ति एकाग्र लक्ष्य-बेधी होने से वंचित रह गई.
रोहित वेमुला की आत्महत्या, हत्या के उकसावे जैसा संज्ञेय अपराध है, लेकिन अपराध तय हो और उस पर आधारित आंदोलन केंद्रीकृत हो, उसके पहले ही उसमें सियासत का मट्ठा डाल दिया गया. जेएनयू प्रकरण में देशविरोधी और अफजलवादी नारेबाजी से कन्हैया कुमार को अलग कर देखें और उसकी बातें सुनें तो उसमें रोहित वेमुला इश्यू को जाग्रत करने की छटपटाहट दिखती है, लेकिन जिस नकारात्मक आबोहवा में कन्हैया का आकस्मिक प्रादुर्भाव हुआ, उसने कन्हैया की छटपटाहट को खास फ्रेम में कस दिया. 17 जनवरी 2016 को रोहित वेमुला की आत्महत्या से उछला सवाल, सवाल ही बन कर रह गया.
सारे राजनीतिक दल, सारा मीडिया समूह और सारा बुद्धिजीवीनुमा समूह राष्ट्रविरोध को उचित ठहराने या अनुचित ठहराने की प्रतिद्वंद्वी पतंगें उड़ाने में लगा रहा और पूरा मसला कटी पतंग की तरह भक्क-काटा हो गया. रोहित की नेट फेलोशिप रोके रखने, छात्रावास से निकाल बाहर करने और इससे विवश होकर उसके आत्महत्या कर लेने का मसला धार पकड़े उसके पहले ही उसका बंटाधार करने की तिकड़में रच दी गईं.
आप कहीं यह सुन रहे हैं कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में पिछले एक दशक में नौ दलित छात्र आत्महत्या कर चुके हैं या पूरे देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में इस दरम्यान करीब 18 दलित छात्रों ने आत्महत्या की! यह बात कहां और क्यों हवा हो गई! कभी सोचा आपने! राजनीतिक स्वार्थों को ताक पर रख कर कोई जेपी या लोहिया सरीखा व्यक्तित्व रोहित या कन्हैया जैसे छात्रों को मार्गदर्शन देता तो ये सवाल अनुत्तरित नहीं रहते. इनका जवाब भी मिलता और ऐसे सवालों के भविष्य में पैदा होने की संभावनाओं पर भी कारगर कुल्हाड़ी चलती.
राजनीतिक दलों की पशुवृत्ति के कारण ही फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के प्रकरण में छात्रों का गैरपरिणामी इस्तेमाल हुआ और राजनीतिक रोटियां सेंक ली गईं. काशी हिंदू विश्वविद्यालय से विजिटिंग प्रोफेसर गांधीवादी संदीप पांडेय को नक्सलवादी बता कर निष्कासित कर दिया गया और कोई चूं भी नहीं बोल पाया. सिद्धार्थ वरदराजन जैसे वरिष्ठ पत्रकार का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भाषण नहीं होने दिया गया.
किसी बुद्धिजीवी की खाल पर इसका असर भी नहीं पड़ा. इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्ष ऋचा सिंह को सार्वजनिक रूप से पीटा गया, लेकिन छात्र-जगत चुप रहा! ऋचा सिंह का एडमिशन गलत साबित कर उन्हें विश्वविद्यालय से निकालने और छात्र संघ के अध्यक्ष पद से हटाने केसंस्थानिक षडयंत्रों के खिलाफ छात्रों की बोलती बंद है! ऋचा सिंह का कसूर यह है कि विवादास्पद ओएसडी की नियुक्ति का उन्होंने विरोध किया था. ऋचा सिंह का अपराध यह है कि उन्होंने योगी आदित्यनाथ के विश्वविद्यालय परिसर में कार्यक्रम का विरोध किया था.
ऋचा सिंह और उनकी कुछ मित्रों को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अधिकारियों के सामने पिछले ही साल 20 नवम्बर को बुरी तरह पीटा गया था, लेकिन यह घटना आज तक दबी रही. क्यों दबी रही? यह मामला तब क्यों खुला जब रोहिता वेमुला की आत्महत्या हो गई और कन्हैया गिरफ्तार होकर जेल चला गया? जिस विश्वविद्यालय में 90 साल बाद कोई महिला छात्र संघ अध्यक्ष चुनी जाती हो, उस पर गर्व करने के बजाय उसे अपमानित किए जाने पर छाया कायराना मौन छात्र-शक्ति के बिखराव की क्रूर सनद देता है.
यह उस विश्वविद्यालय का हाल है जो कभी चंद्रशेखर आजाद से लेकर समाजवादी चंद्रशेखर और प्रगतिशील विश्वनाथ प्रताप सिंह तक की प्रेरणा-पीठ रहा. आज इन विश्वविद्यालयों के छात्र संगठन राजनीतिक दलों का हित साधने के लिए उपकरण मात्र बन कर रह गए हैं.
यह विचित्र संयोग ही है कि कभी पूरे देश में राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन का जोरदार आंदोलन सृजित करने वाले संघर्ष-केंद्र पटना विश्वविद्यालय के छात्र आज चुप हैं, लेकिन उसी पटना विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता लालू यादव रोहित या कन्हैया प्रकरण पर काफी मुखर हैं. उसी पटना विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार काफी मुखर हैं.
लालू नीतीश और उनके जैसे कई नेता 74 आंदोलन के ही उत्पाद हैं, जिस आंदोलन का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया था और सत्ता केंद्र की चूलें हिला दी थीं. पर आज कोई जेपी जैसा नहीं है. जेपी आंदोलन के सियासी प्रतिउत्पादों में भी उस व्यक्तित्व का निर्माण नहीं हो सका, जो आज की युवा-सुगबुगाहट को व्यवस्था परिवर्तन के व्यापक आंदोलन में परिवर्तित कर सके. सारे नेताओं के अपने-अपने स्वार्थ के घेरे हैं, जिसकी वजह से व्यापक संभावनाएं खंडित होकर बिखर जाती हैं.
ये स्वार्थ भारतीय लोकतंत्र पर इस कदर हावी हैं कि जिन शक्तियों ने जेपी आंदोलन के खिलाफ षडयंत्र किया, जिन शक्तियों ने जेपी आंदोलन को कुचलने और बिखेरने केसारे उपक्रम किए, जिन शक्तियों ने जेपी को जेल में ठूंस कर नियोजित रोगी बना कर अशक्त बना दिया, जिन शक्तियों ने जेपी आंदोलन के वृक्ष पर सवार होकर उसकी शाखाएं काटने की हरकतें कीं, वही शक्तियां आज रोहित-कन्हैया मसले पर जोर-जोर से रुदालियां गा रही हैं और व्यवस्था केव्यापक परिवर्तन की लड़ाई को गति देने के बजाय उसे वोट के संकुचन में ही घेरे रखना का कुचक्र कर रही हैं.
आज देश के किसी भी विश्वविद्यालय में कोई छात्रसंघ, स्थानीय (विश्वविद्यालयीय) स्तर पर भी दबाव बनाने लायक नहीं बचा है. इसके लिए राजनीतिक दल ही दोषी हैं, जिन्होंने सत्ता में आते ही छात्र संघों के चुनाव प्रतिबंधित किए. राजनीतिक दलों को हमेशा से यह डर सताता रहा है कि छात्र एकीकृत हुए तो व्यवस्था हिल जाएगी. राजनीतिक दलों में यह डर 74 आंदोलन के बाद अधिक गहरा गया है. वैसे आजादी के आंदोलन के बाद जितने भी निर्णायक आंदोलन हुए वे सब छात्रों और युवकों की भागीदारी के कारण नतीजाजनक बने.
1960 के दशक का पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघजनित बिहार आंदोलन, 1969 का तेलंगाना आंदोलन, 1974-75 का जेपी आंदोलन और 1981 का असम आंदोलन छात्र-शक्ति के कारण ही कामयाब हो पाया. लेकिन आज पूरे देश की छात्र-शक्ति में राजनीतिक पार्टियों का घुन लग गया है. 60 से लेकर 80 के बीच का दो दशक जूझारू छात्र आंदोलनों के रूप में जाना जाता है. लेकिन आपातकाल के बाद सारे राजनीतिक दलों ने मिल बैठ कर छात्रों की आंदोलनकारी भूमिका का राजनीतिक दखलंदाजी के बतौर अर्थायन किया और छात्र-शक्ति को हतोत्साहित और नपुंसक करने की सिलसिलेवार साजिशें रचीं. इसमें वह पार्टी भी शामिल थी जिसने आपातकाल लागू किया था और वह भी जो उसकी गोद में जाकर बैठ गई थी और वह भी जिसने जेपी आंदोलन के फलस्वरूप सत्ता हासिल की थी.
उसके बाद बड़े ही नियोजित तरीके से युवकों को जाति और धर्म में विभाजित किया गया. सत्ताधारी दलों ने अपने-अपने कब्जे वाले राज्यों में विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया. लिंगदोह समिति ने बाकी की कसर पूरी कर दी. विश्वविद्यालयों के अ-राजनीतिकरण के नाम पर छात्र संघों का चुनाव प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन छात्रों को राजनीतिक मुहरा बना कर रखने का बद-चलन बदस्तूर जारी रहा.
इसी बीच असम छात्र आंदोलन के जरिए देशभर में एक सुगबुगाहट फिर से पैदा हुई, लेकिन कड़े संघर्ष के बाद असम में सत्ता हासिल करने वाला ऑल असम स्टूडेंट यूनियन लोगों का दीर्घजीवी-भरोसा कायम रखने में कामयाब नहीं हो पाया. छात्र आंदोलनों पर समीक्षात्मक नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि देश के युवाओं पर सबसे अधिक डॉ. राम मनोहर लोहिया के आंदोलन और बाद में जेपी आंदोलन ने व्यापक प्रभाव डाला है. राजनीति में लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, दिग्विजय सिंह (बिहार वाले), वशिष्ठ नारायण सिंह, नरेंद्र सिंह जैसे समाजवादी नेताओं की पूरी पीढ़ी जेपी आंदोलन की ही फसल है.
भाजपा के सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद, अश्विनी कुमार चौबे, सुषमा स्वराज, विजय गोयल जेपी आंदोलन या छात्रसंघ से पैदा हुए नेता हैं. कांग्रेस के सीपी जोशी, अजय माकन, भाकपा के डी. राजा, माकपा के प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी वगैरह सब छात्रसंघ की ही उपज हैं. जेपी आंदोलन ने न सिर्फ इंदिरा गांधी की तानाशाही का कारगर प्रतिकार किया था बल्कि सारे दलों को एकीकृत कर कांग्रेस का एकाधिकार भी खत्म किया था. लेकिन सत्ता के प्रलोभन में सारे दल मेढ़कीय समूह साबित हुए और संपूर्ण क्रांति का नारा पूर्ण रूप से टांय टांय फिस्स हो गया.
आप देशभर के विश्वविद्यालयों पर निगाह डालें, सभी जगह छात्र संगठन छोटे-छोटे स्वार्थों को पूरा करने में लगे हैं. ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिक पार्टियां. राजनीतिक पार्टियां छात्रों को भौतिक सुविधाओं की अफीम चटा-चटा कर मत्त कर रही हैं. कोई छात्र नेता ठेकेदार बन गया तो कोई बिल्डर. कोई जमीन कब्जे करा रहा है तो कोई मकान. कोई छात्र नेता विधान परिषद में नॉमिनेशन का आश्वासन पाकर मस्त है तो कोई राज्यसभा का.
किसी को सरकारी उपक्रम का चेयरमैन बना कर लालबत्ती दे दी तो किसी को सत्ता-शक्ति की फूंक मार दी. सब एंठे-एंठे घूम रहे हैं और पावन छात्र-शक्ति को पतित बना रहे हैं. बीएचयू कैंपस कभी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अखाड़ा हुआ करता था, अब संकीर्ण राजनीति का अड्डा बन गया है. छात्रसंघ राजनीतिक दलों की इकाइयों, या कहें उपकरणों के बतौर काम कर रहे हैं. जाति, धर्म और क्षेत्रवाद जैसे मुद्दों पर छात्र राजनीति उसी तरह चल रही है जिस तरह राजनीतिक पार्टियां चल रही हैं.
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय हो या इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, बीएचयू हो या एएमयू, पटना विश्वविद्यालय हो या लखनऊ विश्वविद्यालय, सब जगह के छात्रसंघ जाति और धर्म से जुड़े राजनीतिक मसले कंधों पर उठाए घूम रहे हैं. उस्मानिया यूनिवर्सिटीज के फोरम फॉर प्रोटेक्शन ऑफ यूनिवर्सिटीज (एफपीयू) का मंतव्य है कि नेताओं को शिक्षा के कैंपस से दूर रहना चाहिए.
एफपीयू ने विश्वविद्यालय परिसरों के राजनीतिकरण की निंदा की है. तमाम बौद्धिक संस्थानों और बुद्धिजीवियों का भी मत रहा है कि शिक्षा परिसर राजनीति का प्रयोगस्थल न बनें. शिक्षा परिसरों को तार्किक-अकादमिक बहस के केंद्र के तौर पर विकसित करना चाहिए और छात्रसंघ को इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में मदद देनी चाहिए. लेकिन हुआ है उसका ठीक उल्टा. राजनीतिक दलों ने शिक्षा परिसरों को राजनीति का एनाटॉमी डिपार्टमेंट बना कर रख दिया है.
छात्र आंदोलन से सत्ता तक पहुंचे लोगों ने ही छात्र राजनीति की हत्या कर दी : संतोष भारतीय
जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे और आपातकाल में जेल की सजा काट चुके वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय कहते हैं कि गांधी के बाद जेपी ने ही 1974 आंदोलन के रूप में देश का सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा किया था. उन्होंने छात्रों में आंदोलन की प्रेरणा जगाई थी और यह भी शिक्षा दी थी कि समाज में कैसे सम्पूर्ण बदलाव लाया जा सकता है. आज की राजनीति से लोग घृणा करने लगे हैं. 64 करोड़ के बोफोर्स घोटाले से सरकार बदल गई थी जबकि आज लाखों करोड़ का घोटाला होने के बाद भी कुछ नहीं होता. जनता में निराशा का भाव है.
इसलिए देश के आमजन समेत युवाओं को जागना होगा. तभी देश की तस्वीर बदल सकती है. संतोष भारतीय आजादी के बाद के काल को दो खंडों में बांटते हैं. कहते हैं कि 1975 के पहले देश के विश्वविद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक एक लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया की परम्परा थी. इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत विभिन्न विभागों तक समितियां गठित होती थीं और उनमें बाकायदा सचिव समेत अन्य पदाधिकारी चुने जाते थे. पूरी प्रक्रिया में छात्र संगठनों की बाकायदा हिस्सेदारी होती थी.
विभिन्न राजनीतिक दलों से विचारधारात्मक रूप से संलग्न छात्र संगठनों के वैचारिक शिविर लगते थे. कॉलेजों में छात्रों की ही कमेटी बाकायदा पार्लियामेंट्री बोर्ड की तरह प्रत्याशी तय करती थी और चुनाव हुआ करता था. पूरी लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली का छोटा प्रतिरूप विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों में दिखाई पड़ता था. आजादी के बाद से लगातार विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक-वैचारिकी निर्माण के बाद प्रगाढ़ हुए विचारधारात्मक लगाव के कारण ही छात्रों ने देश में फैले भ्रष्टाचार और अराजकता के खिलाफ आंदोलन का रास्ता चुना था और इसी वजह से जेपी नेे आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया था.
उसी आंदोलन के फलस्वरूप छात्र नेताओं को 1977 में सत्ता हासिल हुई लेकिन उन्हीं लोगों ने देश की मौलिक लोकतांत्रिक छात्र राजनीति की हत्या कर दी. इस तरह 1977 के बाद का कालखंड पूरी तरह बदल जाता है. जिन छात्र नेताओं ने छात्र आंदोलन के बूते सत्ता हासिल की, उन्हीं छात्र नेताओं ने छात्र राजनीति का सत्यानाश कर दिया. दरअसल जेपी भी इसी वजह से नाराज हुए थे और अंत तक नाराज ही रहे. छात्र आंदोलन के जरिए सत्ता तक पहुंची जमात को छात्र समुदाय से ही खतरा महसूस हुआ।
कॉरपोरेट और बाजारवादियों को भी छात्र आंदोलन से ही डर था, लिहाजा वे सब एक हो गए और बड़े ही नियोजित तरीके से शिक्षा परिसरों में छात्र राजनीति में सक्रिय छात्र नेताओं को पहले तो जातीय समूहों में बांटा, भौतिक स्वार्थों और सुविधाओं की लत लगाई और विरोधाभासों को हवा देकर छात्र संगठनों केचुनावों पर रोक लगा दी. राजसत्ता ने छात्र नेताओं को प्रलोभनों में फंसाया और विदेशों की चकाचौंध से परिचित करा कर उनका ध्यान भटकाया. इन सब वजहों से छात्र आंदोलन पूरी तरह भटक गया और कुंद हो गया.
जेएनयू प्रकरण को संतोष भारतीय छात्र आंदोलन नहीं मानते, वे कहते हैं कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या का प्रकरण एक बड़ा संवेदनशील मसला है, लेकिन जेएनयू प्रकरण वैचारिक स्वतंत्रता की लंबी परम्परा में उच्छृखंल होकर अभिव्यक्ति की मर्यादा भूल जाने का महज परिणाम भर है. इसीलिए न तो इसे राजनीतिक दलों को अधिक तूल देना चाहिए था और न मीडिया को। हां, रोहित वेमुला का मसला एक व्यापक आंदोलन की शक्ल ले सकता था। इसने छात्रों के बीच थोड़ी सुगबुगाहट पैदा भी की थी, लेकिन इसमें कॉरपोरेट-बाजारवादी अवसरवाद से वंचित निराश तत्वों के कूद पड़ने से, यह व्यापक आंदोलन का स्वरूप नहीं ले सका और कुछ स्थानों पर टिमटिमा कर रह गया…
सब सत्ता पाने के हथकंडे हैं : राजनाथ शर्मा
लोहियावादी चिंतक राजनाथ शर्मा की राय अलग है. शर्मा कहते हैं कि राष्ट्रविरोधी नारों की बुनियाद पर कोई आंदोलन मजबूती से खड़ा नहीं हो सकता. डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ रहे वरिष्ठ समाजवादी चिंतक राजनाथ शर्मा कहते हैं कि जेएनयू में हुई राष्ट्र विरोधी घटना के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वामपंथियों का चरित्र हमेशा से संदेहास्पद रहा है. चाहे रूस के साथ, चाहे चीन से युद्ध के समय और चाहे आपातकाल का लगना हो. सभी स्थितियों में वामपंथियों के बारे में बहुत ही सटीक टिप्पणी डॉ. राममनोहर लोहिया ने की थी कि कम्युनिस्टी कीड़ा कांग्रेसी कूड़े पर पलता है, कूड़ा साफ तो कीड़ा साफ.
वामपंथी किसी भी राष्ट्रद्रोही गतिविधि मे लिप्त होकर उसे प्रगतिशील रूप देने का प्रयास करते हैं. इस देश में गांधी जी के विचारों, उनकी बातों का पालन न करके कांग्रेस को पुनर्जीवित रखा और सत्ता के लालच में डूबे एक परिवार जिसके चलते इस देश में लगभग सौ जगहों पर गोलियां चलाकर नरसंहार किया गया, जिसमें बस्तर के सैकड़ों आदिवासियों को गोली का शिकार बनाया गया. आपातकाल लगाकर मौलिक अधिकारों का हनन हुआ तथा लोकतंत्र को समाप्त करने का प्रयास किया गया. लाखों लोग जेल गए.
कई हजार लोगों के परिजन बीमारी और भुखमरी के शिकार हुए. मुझको भी जेल में ठूंस दिया गया, फाकाकशी की हालत में मेरी पत्नी जो बीमार हुईं आज तक टीबी से रोगग्रस्त हैं. जेपी आंदोलन के बाद हुए सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ता पर काबिज होने के लिए भिन्डरांवाला जैसे लोग तैयार किए गए जिसके चलते पुनः सत्ता में आने के लिए पवित्र अम्रतसर पर हमला हुआ और भारी नरसंहार हुआ. दिल्ली में सुनियोजित ढंग से सिखों को जलाया गया और हत्याएं की गई. दोगलेपन का प्रमाण देने वाली लिट्टे नीति बनाई.
जिस परिवार ने सत्ता के लिए भारत का विभाजन कराया. जिसमें करीब चौदह लाख लोगों की मौत हुई. वही परिवार पुनः सत्ता पर काबिज होने के लिए भारतीय लोकतंत्र की पवित्र संस्था संसद भवन पर हमला करने वाले अफजल गुरु की फांसी और देश को तोड़ने वाले राष्ट्रविरोधी तत्वों से मिलकर सत्ता पर वापस आने की बेचैनी में लिप्त है. न इन्हें देश की नैतिकता, देशभक्ति और न ही सहिष्णुता की चिंता है. इन्हें सत्ता की बेचैनी है, जो देश की जनता को गुमराह कर रही है. लोहियावादी राजनाथ शर्मा कहते हैं कि इतिहास गवाह है कि हिटलर को कम्युनिस्टों ने पैदा किया.
पहले विश्वयुद्ध के बाद वर्साय की संधि में ब्रिटेन और फ्रांस ने पराजित जर्मनी को बुरी तरह अपमानित किया था. जर्मनी के आहत राष्ट्रीय स्वाभिमान को कॉमरेड पहचान नहीं पाए. वह जर्मनी के जन आक्रोश को पकड़ नहीं पाए. वह भूल गए कि मजदूरों को रोटी तो चाहिए लेकिन राष्ट्रीय स्वाभिमान की कीमत पर नहीं. हिटलर ने इसका फायदा उठाया. कम्युनिस्टों ने जो गलती जर्मनी में की, वही गलती वे अब जेएनयू में दोहरा रहे हैं. भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी- जैसे नारे कम्युनिस्टों की ताबूत की आखिरी कील बनेंगे. देखते रहिए.
भारत से नहीं, भारत में आज़ादी चाहिए : कन्हैया
जमानत पर छूटने के बाद जेएनयू पहुंचे छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने परिसर में जो भाषण दिया, उसकी खूब चर्चा रही. प्रस्तुत हैं भाषण के प्रमुख और प्रासंगिक अंश…
- इस देश के संविधान में, इस देश के कानून में और इस देश की न्याय प्रक्रिया में भरोसा है. इस बात का भी भरोसा है कि बदलाव ही सत्य है. हम बदलाव के पक्ष में खड़े हैं और यह बदलाव होकर रहेगा.हमें पूरा भरोसा है अपने संविधान पर. हम पूरे तरीके से खड़े होते हैं अपने संविधान की उन तमाम धाराओं को लेकर जो प्रस्तावना में कही गई हैं, समाजवाद-धर्मनिरपेक्षता-समानता.
- किसी के प्रति कोई नफरत नहीं है. खासकर विद्यार्थी परिषद के प्रति तो कोई भी नफरत नहीं है. पूछिए क्यों? वो इसलिए कि हमारे कैंपस का जो विद्यार्थी परिषद है वो दरअसल बाहर के विद्यार्थी परिषद से ज्यादा बेहतर है और मैं कहना चाहता हूं वो सारे लोग जो अपने आप को राजनीतिक विद्वान समझते हैं तो एक बार पिछले अध्यक्ष पद चुनाव में जो हालत हुई है विद्यार्थी परिषद उम्मीदवार की, उसका वीडियो देख लीजिए. जो जेएनयू का विद्यार्थी परिषद है उसको जब हमने पानी-पानी कर दिया तो बाकी देश में क्या होगा इसका अंदाजा लगा लीजिए. इसीलिए विद्यार्थी परिषद के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है क्योंकि हम लोग सच में लोकतांत्रिक लोग हैं. हम लोग सचमुच संविधान में भरोसा करते हैं इसीलिए विद्यार्थी परिषद को दुश्मन की तरह नहीं, विपक्ष की तरह देखते हैं और लोकतंत्र में भरोसा करते हैं.
- आज मैं सिर्फ अपना अनुभव आपको बताऊंगा, क्योंकि पहले पढ़ता था, सिस्टम को झेलता कम था. इस बार पढ़ा कम है, झेला ज्यादा है. पहली बात ये है कि जो प्रक्रिया न्यायालय के अधीन है उसके ऊपर मुझे कुछ नहीं कहना है. सिर्फ एक बात कहनी है कि इस देश की तमाम वो जनता जो सच में संविधान से प्रेम करती है, जो बाबा साहब के सपनों को सच करना चाहती है, वो इशारों ही इशारों में समझ गई होगी कि हम क्या कह रहे हैं. जो मामला न्यायालय में है उस पर मुझे कुछ नहीं कहना है.
- ये मत समझिएगा कि कुछ छात्रों के ऊपर एक राजनीतिक हथियार की तरह देशद्रोह का इस्तेमाल किया गया है. इसको ऐसे समझिएगा कि मैंने ये बात अक्सर बोली है अपने भाषणों में, हम लोग गांव से आते हैं, मेरे परिवार से भी शायद आप लोग मुखातिब हो चुके हैं तो हमारे हर रेलवे स्टेशन पर जिसको टेशन कहा जाता है वहां पर जादू का खेल होता है. जादूगर दिखाएगा जादू, बेचेगा अंगूठी, मनपसंद अंगूठी और जिसकी जो इच्छा है वो अंगूठी पूरा कर देगी ऐसा जादूगर कहता है.इस देश के भी कुछ नीति निर्माता हैं वो कहते हैं काला धन आएगा. हर-हर मोदी, महंगाई कम होगी. बहुत हो गई मत सहिए, अबकी बार ले आइए, सबका साथ सबका विकास, वो सारे जुमले आज लोगों के जेहन में हैं. हालांकि हम भारतीय लोग भूलते जल्दी हैं लेकिन इस बार का तमाशा इतना बड़ा है कि भूल नहीं पा रहे हैं, तो कोशिश ये है कि उन जुमलों को भुला दिया जाए और ये जुमलेबाज जो कर रहे हैं और इसको कैसे भुलाया जाए तो ऐसा करो इस देश के तमाम जो रिसर्च फेलो हैं उनका फेलोशिप बंद कर दो.लोग क्या करने लगेंगे? कहेंगे फेलोशिप दे दीजिए, फेलोशिप दे दीजिए, फिर करेंगे कि अच्छा ठीक है जो 5 हजार और 8 हजार देता था वही जारी रहेगा. मतलब बढ़ाने का मामला गया. बोलेगा कौन? जेएनयू. तो जब आपको गालियां पड़ रही हैं चिंता मत कीजिएगा, जो कमाए हैं वही खा रहे हैं आप लोग. इस देश में जो जनविरोधी सरकार है उस जनविरोधी सरकार के खिलाफ बोलेंगे तो उनका सायबर सेल क्या करेगा? वो छेड़छाड़ वाला वीडियो भेजेगा. वो आपको गालियां भेजेगा और वो गिनेगा कि आपके डस्टबिन में कितने कंडोम हैं? लेकिन ये बहुत गंभीर समय है इसीलिए इस गंभीर समय में हम लोगों को गंभीरता से कुछ सोचने की जरूरत है.
- प्रधानमंत्री जी ने ट्वीट किया है, कहा है सत्यमेव जयते. मैं भी कहता हूं प्रधानमंत्री जी आपसे भारी वैचारिक मतभेद है लेकिन सत्यमेव जयते चूंकि आपका नहीं, इस देश का है, संविधान का है. मैं भी कहता हूं सत्यमेव जयते. और सत्य की ही जय होगी.
- जेएनयू पर हमला एक नियोजित हमला है इस बात को आप समझिए और ये नियोजित हमला इसलिए है कि आप यूजीसी से जुड़े आंदोलन को दबाना चाहते हैं. ये नियोजित हमला इसलिए है कि रोहित वेमुला के इंसाफ के लिए जो लड़ाई लड़ी जा रही है उस लड़ाई को वे खत्म करना चाहते हैं. इस देश की सत्ता ने जब-जब अत्याचार किया है, जेएनयू से बुलंद आवाज आई है और हम उसी को दोहरा रहे हैं और हम बार-बार ये याद करा रहे हैं कि तुम हमारी लड़ाई को खत्म नहीं कर सकते.
- क्या कह रहे हैं? एक तरफ देश की सीमाओं पर नौजवान मर रहे हैं. मैं सलाम करना चाहता हूं उनको जो लोग सीमा पर मर रहे हैं. मेरा एक सवाल है. जेल में मैंने एक बात सीखी है कि जब लड़ाई विचारधारा की हो तो व्यक्ति को बिना मतलब की पब्लिसिटी नहीं देना चाहिए. इसलिए मैं उस नेता का नाम नहीं लूंगा. भाजपा के एक नेता ने लोकसभा में कहा कि नौजवान सीमा पर मर रहे हैं. मैं पूछना चाहता हूं कि वो आपका भाई है? या फिर इस देश के अंदर जो करोड़ों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जो रोटी उगाते हैं हमारे लिए और उन नौजवानों के लिए, जो उस नौजवान के पिता भी हैं उसके बारे में तुम क्या कहना चाहते हो? वो इस देश के शहीद हैं कि नहीं? ये सवाल हम पूछना चाहते हैं कि जो किसान खेत में काम करता है, मेरा बाप, मेरा ही भाई फौज में भी जाता है और वही मरता है और तुम देश के अंदर एक झूठी बहस मत खड़ी करो. जो देश के लिए मरता है वो देश के अंदर भी मरते हैं, देश की सीमा पर भी मरते हैं. हमारा सवाल है कि तुम संसद में खड़े होकर किसके खिलाफ राजनीति कर रहे हो? वो जो मर रहे हैं उनकी जिम्मेवारी कौन लेगा? लड़ने वाले लोग जिम्मेवार नहीं हैं, लड़ाने वाले लोग जिम्मेवार हैं.
- देश के अंदर जो समस्या है, क्या उस समस्या से आजादी मांगना गलत है? ये क्या कहते हैं किससे आजादी मांग रहे हो? तुम्हीं बता दो कि क्या भारत ने क्या किसी को गुलाम कर रखा है? नहीं, तो सही में भारत से नहीं मांग रहे हैं. भारत से नहीं मेरे भाईयों, भारत में आजादी मांग रहे हैं. से और में, में फर्क होता है.
- विज्ञान में कहा गया है कि जितना दबाओगे उतना ज्यादा प्रेशर होगा. लेकिन इनको विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है. क्योंकि विज्ञान पढ़ना एक बात है, वैज्ञानिक होना दूर की बात है. तो वो लोग जो वैज्ञानिक सोच रखते हैं अगर उनके साथ संवाद स्थापित किया जाए तो इस मुल्क के अंदर जो आजादी हम मांग रहे हैं, भुखमरी और गरीबी से, शोषण और अत्याचार से, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार के लिए, वो आजादी हम लेकर रहेंगे, और वो आजादी इसी संविधान के द्वारा इसी संसद के द्वारा और इसी न्यायिक प्रकिया के द्वारा हम सुनिश्चित करेंगे. इसी मुल्क में ये हमारा सपना है. यही बाबा साहब का सपना था. यही साथी रोहित का सपना है.
- आज माननीय प्रधानमंत्री जी का, आदरणीय बोलना पड़ेगा ना? क्या पता किसको छेड़छाड़ करके फिर से फंसा दिया जाए. तो माननीय प्रधानमंत्री जी कह रहे थे, स्टालिन और ख्रुश्चेव की बात कर रहे थे. मेरी इच्छा हुई कि मैं टीवी में घुस जाऊं और उनका सूट पकड़कर कहूं मोदीजी थोड़ी हिटलर की भी बात कर लीजिए. छोड़ दीजिए हिटलर की. मुसोलिनी की बात कर दीजिए, जिसकी काली टोपी लगाते हैं. जिससे आपके गुरु जी गोलवलकर साहब मिलने गए थे और भारतीयता की परिभाषा जर्मन से सीखने का उपदेश दिया था.
- दो स्तर पर लड़ाई रहेगी. पहली जो जेएनयू छात्र संघ का अपना एजेंडा है हम उसको लेकर आगे बढ़ेंगे और दूसरा जो देशद्रोह का आरोप लगाया गया है उस आरोप के खिलाफ हम संघर्ष को तेज करेंगे और इस बात को झंडेवालान या नागपुर में नहीं तय करेंगे, विद्रोही भवन में तय करेंगे, अपने जेएनयू छात्र संघ के दफ्तर में तय करेंगे, अपने संविधान से तय करेंगे जो हमको लड़ने का अधिकार देता है. अपनी संविधान सम्मत लड़ाई को आगे बढ़ाएंगे और तमाम टीचर, तमाम वो लोग हमारे साथी, जिनके ऊपर देशद्रोह का आरोप लगा है और जो लोग जेल में हैं उमर और अनिर्बान उनकी रिहाई के लिए संघर्ष करेंगे. अदालत तय करेगी कि क्या देशद्रोह है और क्या देशभक्ति है.
जेपी के चेलों ने ही दे दी आदर्शों की तिलांजलि : सुरेंद्र किशोर
जेपी आंदोलन के साक्षी रहे बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं कि आज बिहार विधानसभा में उन नेताओं और संगठनों के सदस्यों की संख्या खासी है जो जेपी आंदोलन के सहभागी थे. भाजपा, जदयू और राजद के प्रमुख नेतागण 1974-76 के जेपी आंदोलन के स्तम्भ थे. उन्होंने तब महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और कुशिक्षा के खिलाफ हजारों बार सड़कों पर नारे लगाए.
जेल गए, कष्ट सहे और लाठियां खाईं. पर आज इन समस्याओं की स्थिति क्या है? स्थितियां बदतर ही हुई हैं. जेपी आंदोलन से जुड़े नेताओं ने इस बीच केंद्र और राज्यों में शासन चलाए. बिहार में तो 1990 से लगातार वही लोग सत्ता में हैं. लोग अक्सर पूछते हैं कि जेपी के चेलों ने सत्ता में आने के बाद उन चार प्रमुख समस्याओं के समाधान के लिए कितनी कोशिश की? जेपी के अनुयायी सत्ता के नशे में न सिर्फ जेपी को भूल गए, बल्कि उन्होंने जेपी आंदोलन के आदर्शों को भी तिलांजलि दे दी. कुछ ने मंडल को प्रमुखता दी तो कुछ अन्य ने मंदिर को.
बदलाव की अंतरशक्ति दिख रही है : अखिलेंद्र प्रताप
इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष व ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेंद्र प्रताप सिंह हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला प्रकरण और जेएनयू में कन्हैया कुमार गिरफ्तारी प्रकरण पर छात्रों की सक्रियता और एकजुटता को नई शुरुआत के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि राजनीतिक दलों का स्वर इन छात्रों के समर्थन का है, नेतृत्व का नहीं है. राजनीतिक दल छात्रों के समर्थक भर हैं.
अखिलेंद्र हैदराबाद-जेएनयू प्रकरण को विचारधारात्मक आग्रह का आंदोलन बताते हैं और कहते हैं कि इस बार के आंदोलन में अंबेडकर के प्रति समर्पण का भाव है. कन्हैया भी रोहित को ही आइकॉन मानता है. यह बदलाव की अंतरशक्ति को दर्शा रहा है. इसमें पूरा समूह ही नेतृत्व करता दिख रहा है. छात्रों के बीच से ही नेतृत्व प्रस्फुटित होगा. अखिलेंद्र कहते हैं कि भारतवर्ष विभिन्न विचारधाराओं के साथ चलने वाला देश है. एक खास विचारधारा को आरोपित करने का तौर-तरीका अलोकतांत्रिक है. जेएनयू में लगाए गए देश विरोधी और अफजलवादी नारों के बारे में उनका मानना है कि जेएनयू में हुई नारेबाजी आपत्तिजनक तो है, पर यह राष्ट्रद्रोह नहीं है.
यादवपुर विश्वविद्यालय ने देश के लोगों को चौंकाया है
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देशद्रोही नारे लगने के सात दिन बाद कोलकाता के यादवपुर विश्वविद्यालय (जेयू) में फिर से उसी घटना की पुनरावृत्ति निश्चय ही अनेक लोगों के लिए चौंकाने वाली घटना थी. जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के विरोध में एक रैली निकाली गई और उसमें अफजल गुरु की जय-जयकार हुई. जेएनयू में 9 फरवरी को छात्रों की एक सभा में देशद्रोही नारे लगे थे. फिर 16 फरवरी को यादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र जुलूस की शक्ल में निकले और सड़कों पर नारे लगाते हुए घूमे.
कुछ युवक इस जुलूस में नारे लगा रहे थे, अफजल बोले आजादी, गिलानी बोले आजादी, जो तुम न दोगे आजादी, तो छीन के लेंगे आजादी. इसके बाद नारे लगे, मोदी का हिंदुत्व नहीं सहेंगे, मोदी की ब्राह्मणगीरी नहीं सहेंगे. इस जुलूस में इशरत जहां के पक्ष में भी नारे लगे जिस पर लश्करे तैयबा जैसे उग्रवादी संगठन से जुड़े होने का आरोप है. यादवपुर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर सुरंजन दास से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि देशद्रोही नारे लगाने वाले युवक फ्रिंज एलीमेंट थे यानी दरकिनार हुए युवक थे. वे विश्वविद्यालय से बाहर से आए थे.
जब उनसे पूछा गया कि क्या वे इस मामले की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराएंगे तो उनका जवाब था, नहीं. यह वाइस चांसलर का काम नहीं होता. विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति की आजादी की स्वस्थ परंपरा रही है लेकिन जिन लोगों ने देशविरोधी नारे लगाए, विश्वविद्यालय की यूनियन उनके खिलाफ है. यूनियन ने इसे लिखित रूप से कहा है.
कोलकाता का यादवपुर विश्वविद्यालय बीच-बीच में सुर्खियों में आता रहा है. 11 जनवरी को यूनियन के चुनाव के लिए छात्रों ने वाइस चांसलर सुरंजन दास का 56 घंटे तक घेराव किया था. सुरंजन दास इतिहास के गहरे जानकार हैं और पश्चिम बंगाल में शैक्षणिक जगत में उनकी प्रतिष्ठा है. उनकी सारी ऊर्जा विश्वविद्यालय को शांत और व्यवस्थित रखने में लगी रहती है. लेकिन लोगों के मन में यह प्रश्न बना हुआ है कि एक विख्यात शैक्षणिक संस्थान में ऐसी घटना कैसे हो गई? देशद्रोह के नारे लगाने वाले ये लोग अचानक कहां से प्रकट हो गए? विश्वविद्यालय में कश्मीर, मणिपुर और नगालैंड की आजादी के पोस्टर किन तत्वों ने लगाए?
पश्चिम बंगाल में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में वामपंथी और धुर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित अनेक छात्र हैं. स्पष्ट है कि वे दक्षिणपंथी विचारधारा वाली केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ हैं. पिछले साल जनवरी 2015 में यादवपुर विश्वविद्यालय के फेडरेशन ऑफ आर्ट्स स्टूडेंट (एफएएस) ने कला संकाय के छात्रों की यूनियन का चुनाव लड़ा.
उसके एक साल पहले यानी सन 2014 में चारों पदों, जनरल सेक्रेटरी, असिस्टेंट जनरल सेक्रेटरी (दिवा काल), असिस्टेंट जनरल सेक्रेटरी (सांध्य काल) और चेयरपरसन पदों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की छात्र इकाई स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) का कब्जा था. लेकिन पिछले साल धुर वामपंथी संगठन (माओवाद समर्थक) यूनाइटेड स्टूडेंट्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूएसडीएफ) ने तीन सीटों पर कब्जा कर लिया. एसएफआई की झोली में सिर्फ एक पद जनरल सेक्रेटरी (सांध्य काल) का ही आया.
इस साल ये चुनाव अभी होने हैं. तो धुर वामपंथी विचारधारा के लोगों ने यदि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना के समर्थन में जुलूस निकाला और नारे लगाए तो यह उतनी चौंकाने वाली घटना नहीं है. खासतौर से पश्चिम बंगाल में जहां वामफ्रंट सरकार 34 सालों तक सत्ता में रही हो, वहां वामपंथी विचारधारा में एक पीढ़ी जन्मी है और इसी विचारधारा में पढ़ लिख और विमर्श कर जवान हुई है. लेकिन वामफ्रंट के शासनकाल में देशविरोधी नारे कभी नहीं लगे. सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस तो ऐसे तत्वों के खिलाफ है.
तब ये कौन लोग हैं जिन्होंने छात्रों के इस विरोध जुलूस के बीच आकर देशविरोधी नारे लगाए? कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि ये बाहरी तत्व हैं जो विश्वविद्यालय के छात्रों के समर्थन के बहाने जुलूस में घुस आए और देश विरोधी नारे लगाने लगे. इन्हें विदेशों से मदद मिलती है. पर, ऐसे आरोपों का कोई प्रमाण नहीं है. उधर कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि गिनती के कुछ तत्व अपने देश में ऐसे भी हैं जो देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं और उनके पीछे बड़ी ताकतें काम कर रही हैं. ऐसे तत्व अपने छद्म रूप की खाल में युवा छात्रों से सहानुभूति बटोरना चाहते हैं और अपने आकाओं की मुराद पूरी करते हैं.
इस बीच अच्छी खबर यह है कि खुफिया एजेंसियां इस घटना के परिप्रेक्ष्य में सक्रिय हो गई हैं और उन्होंने गहन पड़ताल शुरू कर दी है. वैश्विक आंकड़ों को देखें तो अपना देश वैसे भी शिक्षा के क्षेत्र में काफी पीछे है. ऐसे में विश्वविद्यालयों में बेचैनी और राजनीतिक उथल-पुथल शैक्षणिक माहौल को कहां ले जाएगा? बुद्धिजीवियों की चिंता यही है.
जेएनयू इस शहादत को भी याद रखना चाहिए था
जेएनयू के छात्र संघर्ष और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर तमाम चर्चाएं हुईं, लेकिन किसी भी छात्र नेता ने, नेता ने या स्वनामधन्य पत्रकार ने जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष शहीद चंद्रशेखर को याद नहीं किया. कई बार जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे प्रखर छात्र नेता चंद्रशेखर की हत्या को ताजा परिप्रेक्ष्य में भी याद रखने की जरूरत है. 1994-95 में चंद्रशेखर जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे. चंद्रशेखर लगातार दो साल तक छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव जीतते रहे. 31 मार्च 1997 को बिहार के सीवान जिले में बथानी टोला नरसंहार के खिलाफ आयोजित एक सभा को संबोधित करते समय चंद्रशेखर की हत्या कर दी गई थी. चंद्रशेखर बिहार में राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ जूझारू अभियान चला रहे थे.
चंद्रशेखर की हत्या बिहार के कुख्यात माफिया सरगना शहाबुद्दीन ने कराई थी. जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या कराने वाले माफिया सरगना शहाबुद्दीन लालू प्रसाद यादव के खास रहे हैं. उल्लेखनीय है कि लालू प्रसाद यादव ने कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी मसले पर केंद्र सरकार के खिलाफ खूब तल्ख बयान दिए और जेएनयू के इस छात्र नेता के प्रति अपना पूर्ण समर्थन जताया. चंद्रशेखर की हत्या के मामले में असली षडयंत्रकारी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का मसला घनघोर राजनीति में फंसा दिया गया था, वह आज भी रिपोर्ट और प्रति रिपोर्ट की बेमानी कानूनी औपचारिकताओं के मकड़जाल में ही उलझा हुआ है. शहाबुद्दीन जेल में तो हैं, लेकिन चंद्रशेखर हत्याकांड में नहीं.
राष्ट्रभक्ति की एकपक्षीय परिभाषा बंद होनी चाहिए
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोग जो उनसे अलग विचारों को मानने वाले लोग हैं उनपर देशद्रोह का आरोप लगा देते हैं, जबकि खुद इस देश के संविधान और कानून-व्यवस्था का सम्मान नहीं करते. आज देश में एक बहस छिड़ी हुई है. कौन देशद्रोही है और कौन देशभक्त? इसे सावधानी से परखने की जरूरत है. क्या देशभक्त कहलाने के लिए काफी है कि कोई भारत माता की तस्वीर लेकर, वंदे मातरम के नारे लगाकर, भारत का झंडा लहराकर, पाकिस्तान को गाली देकर उन लोगों के साथ मार-पीट करे जो उसके विचारों को नहीं मानते? यदि हम आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर होने वाली हिंसा को गलत मानते हैं तो इस हिंसा को जायज कैसे ठहराया जा सकता है?
इस देश में इस तरह की नीतियां बनाई जाती हैं कि अमीर और अमीर हो जाए और गरीब गरीब ही बना रहे. इस देश के आधे बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. इस देश में करीब चौथाई बच्चे बाल दासता के शिकार हैं. खराब स्वास्थ्य सेवाओं के चलते एक हजार पैदा होने वालों बच्चों में 47 मर जाते हैं. पांच वर्ष तक की उम्र तक पहुंचते पहुंचते इन हजार में से 14 और बच्चे मर जाते हैं. एक लाख बच्चों का जब जन्म होता है तो 200 माएं जन्म देते वक्त मर जाती हैं. जबसे इस देश में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियां लागू हुई हैं, करीब तीन लाख किसान कर्ज के बोझ में आत्महत्या कर चुके हैं. क्या ऐसी नीतियां बनाने वाले जिससे लोगों की मौतें हों और वे बदहाली में जिएं, देशद्रोही नहीं हैं?
इस देश में निजी कम्पनियों के पास सरकारी बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपये ऋण के रूप में बकाया हैं, जिसे बैंकों ने माफ कर दिया हैे. जिस देश में गरीबी की उपर्युक्त स्थिति हो वहां जनता के पैसे को निजी कम्पनियों को यूं ही दे दिया जाए, क्या यह देशद्रोह नहीं? या फिर भ्रष्टाचार करने वाले जो देश का पैसा अपने निजी उपभोग के लिए रख रहे हैं, क्या देशद्रोही नहीं हैं? भाजपा की सभी सरकारों में विदेशी बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने की बात होती है किंतु हमारी अर्थव्यवस्था का काला धन जिससे राजनीतिक दल अपराधी-माफिया या भ्रष्ट उम्मीदवारों को चुनाव जितवा देते हैं और गलत लोग हमारी विधायिका में पहुंच जाते हैं, क्या यह देशद्रोह नहीं है?
विदेशी पूंजी आकर्षित कर अपने यहां कारखाने लगवा कर अपने मजदूरों का शोषण होने देना क्या देशद्रोह नहीं है? देश की प्राकृतिक संपदा पर मुनाफा कमाने का अधिकार देसी-विदेशी कम्पनियों को दे देना क्या देशद्रोह नहीं है? उदाहरण के लिए पेप्सी-कोका कोला हमारा पानी हमें ही ऊंची कीमतों पर बेच कर मुनाफा अमरीका ले जा रही हैं. क्या ऐसी कम्पनियों की मदद करना देशद्रोह नहीं? नकल करके बच्चों को इम्तिहान पास करवा देना, जो इस देश में बड़े पैमाने पर होता है, क्या देशद्रोह नहीं है? क्योंकि हम बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहे हैं.
दूसरी तरफ कोई भी ऐसा काम जिससे इस देश के आम नागरिक का सशक्तिकरण हो रहा हो क्या देशभक्ति नहीं? यदि कोई ऐसे बच्चों को पढ़ा रहा है जो खुद विद्यालय जाने में अक्षम हैं, देशभक्ति का काम नहीं? क्या किसी बेसहारा जिसको इलाज की जरूरत है की मदद करना देशभक्ति का काम नहीं? क्या गरीबों को संगठित कर उनके अधिकारों की लड़ाई में शामिल होना ताकि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार हो देशभक्ति का काम नहीं? क्या किसी पीड़ित या पीड़िता जिसके साथ अत्याचार हो रहा हो, को न्याय दिलाना देशभक्ति का काम नहीं?
क्या सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाना ताकि आम इंसान का नुकसान न हो और सही नीतियों की मांग करना जिससे आम इंसान को लाभ मिले, देशभक्ति का काम नहीं? सरकार के बजट में अपव्यव के खिलाफ बोलना ताकि देश का पैसा बचे और जरूरी कामों में लगे, देशभक्ति का काम नहीं? उदाहरण के लिए रक्षा पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करने के बजाए सरकार को यह राय देना क्या सही नहीं होगा कि सरकार जिन देशों से उसकी दुश्मनी है के साथ संबंध सुधारे ताकि रक्षा का खर्च कम हो और बचा हुआ पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आदि उपलब्ध कराने में लगे ताकि इस देश के और दुश्मन देश के भी गरीब लोगों को राहत मिले. क्या यह देशभक्ति का काम नहीं? यह तो ऐसी देशभक्ति है जिससे अपने देश के साथ पड़ोसी देश का भी फायदा हो.
असल में देखा जाए तो राष्ट्र की अवधारणा भी जाति और धर्म की तरह लोगों को बांटने का काम करती है और ये सभी बांटने वाली श्रेणियां कृत्रिम या मानव निर्मित हैं. राष्ट्र का तो अंततोगत्वा वह हश्र होना चाहिए जैसा आधुनिक यूरोप में हुआ है. जहां अब देश की सीमाओं पर न तो फौजें हैं और न ही एक सीमा से दूसरी सीमा में जाने के लिए किसी पासपोर्ट या वीसा की जरूरत पड़ती है. दक्षिण एशिया में भी जरूर ऐसा दिन आएगा जब हम एक देश से दूसरे देश में ऐसे चले जाएंगे जैसे एक जिले से दूसरे जिले में प्रवेश कर रहे हों.
इस तरह के राष्ट्र में उग्र तेवर वाले दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की कोई ज्यादा भूमिका नहीं रह जाती. क्योंकि इनका अस्तित्व तभी तक है जब तक सामने कोई दुश्मन, वास्तविक अथवा कल्पित, खड़ा किया गया हो. यह इनकी सबसे बड़ी विडम्बना है. इसलिए इनका सारा का सारा कार्यक्रम दुश्मन को केंद्र में रख कर होता है. यानी इनका अस्तित्व दुश्मन के अस्तित्व पर टिका हुआ है. इसलिए समझदार लोग इनकी बातों में नहीं आते.
(लेखक मैगसेसे पुरस्कार विजेता हैं)