राजनीतिक लोकतंत्र का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना है सरकार और विपक्ष के बीच का अंतर. भारत की बात करें, तो यहां की राजनीतिक प्रणाली में शुरू से ही एक सशक्त विपक्ष की परिकल्पना रही है. इसकी परंपरा आज़ादी के बाद से ही पड़ी. चाहे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी हों या हिरेन मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया हों या नाथ पाई, जेबी कृपलानी हों या मधु लिमये, इनकी राजनीति तत्कालीन सरकारों के काम-काज, नीतियों की निगरानी करने पर आधारित थी. लोकतंत्र में अगर सरकार चलाने के लिए एक सत्ताधारी पार्टी की आवश्यकता होती है, तो विपक्ष की भूमिका को भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता. हालिया लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों ने व्यापक जीत दर्ज़ की. लोकसभा की कुल 545 सीटों में से भाजपा ने अकेले 282 सीटें जीतीं, तो उसकी अगुवाई वाले एनडीए ने 336 सीटों पर सफलता हासिल की. कांग्रेस पार्टी को स़िर्फ 44 सीटों से ही संतोष करना पड़ा.
एक तरफ़ यह भाजपा के लिए ऐतिहासिक जीत है, तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक हार. इसी जीत-हार से एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है कि विपक्ष की भूमिका क्या होगी. सवाल यह सामने आ रहा है कि संसद में विपक्ष का संकट खड़ा हो गया है. सवाल उठने लगा है कि संसद में एक कमजोर विपक्ष के होने से क्या असर पड़ेगा. संसद में विपक्ष के नेता का चुनाव करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है, क्योंकि किसी भी दल के पास वह आंकड़ा नहीं है, जिससे वह विपक्ष की भूमिका निभा सके. ग़ौरतलब है कि विपक्ष का दर्जा पाने के लिए कुल सीटों की 10 फ़ीसद सीटें जीतना ज़रूरी होता है, लेकिन 16वीं लोकसभा के चुनावी नतीजों में दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस को 44 और जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके 37 सीटों के साथ तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है.
विपक्ष के गठन के लिए 54 सीटों की आवश्यकता थी, जो कोई भी दल नहीं पा सका. ऐसे में प्रश्न उठना लाजिमी है कि आख़िर विपक्ष की भूमिका क्या होगी. हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जबकि कोई भी दल संसद में विपक्ष की योग्यता पाने लायक तयशुदा सीटें जीतने में असफल रहा. वर्ष 1984 में राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने 414 सीटें जीती थीं. तब एक नई क्षेत्रीय पार्टी तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) ने 30 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी और मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा प्राप्त किया था. लेकिन, उस वक्त संसद में विपक्ष में लोकदल के चौधरी चरण सिंह, जनता पार्टी के मधु दंडवते एवं बीजू पटनायक, सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी, सैफुद्दीन चौधरी एवं वासुदेव आचार्य और सीपीआई के इंद्रजीत गुप्ता जैसे बड़े दिग्गज नेता थे.
हालांकि, 16वीं लोकसभा काफी अलग है. भाजपा की भारी बहुमत से जीत ने विपक्ष के अस्तित्व पर सवाल उठा दिया. साथ ही शरद पवार, वासुदेव आचार्य, गुरुदास दासगुप्ता, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव एवं फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं की ग़ैर मौजूदगी के चलते विपक्ष बिल्कुल नेतृत्व विहीन नज़र आ रहा है. वहीं, मुलायम सिंह ने जीत दर्ज़ की है, लेकिन उनकी पार्टी में अन्य नेताओं के रूप में उनके दो भतीजे और एक बहू साथ देने के लिए मौजूद होंगे. ऐसे में विपक्ष की भूमिका काफी हद तक तृणमूल कांग्रेस और एआईएडीएमके के रुख पर निर्भर करेगी. इनमें जयललिता के भाजपा से बेहतर संबंधों का लाभ मोदी सरकार को मिल सकता है, लेकिन ममता बनर्जी के निर्देश पर तृणमूल कांग्रेस के नेता सरकार को हर विधेयक पर चुनौती देते नज़र आ सकते हैं. तृणमूल कांग्रेस के पास 34 सांसद हैं और यह संख्या ज़रूरी नहीं कि हर मुद्दे-विधेयक पर संसद को सरकार मन मुताबिक़ चलने दे. इसके अलावा बीजू जनता दल (बीजद) के पास भी 20 सांसद हैं, लेकिन उसका रुख अभी स्पष्ट नहीं है. हालांकि, नवीन पटनायक ने शुरू में भाजपा के प्रति नरम नज़रिया रखने का संकेत दिया था. फिर भी यही कहा जा सकता है कि भाजपा सरकार के सामने विपक्ष में कोई ऐसा नेता नहीं होगा, जो उसे संसद में होने वाली बहसों में घेर सके, उसकी नीतियों पर सोचने को विवश कर दे. हालांकि, अगर कांग्रेस गंभीरता से भाजपा की अगुवाई वाली सरकार की स्क्रूटनी करना चाहती है, तो उसमें कमलनाथ, मल्लिकार्जुन खड़गे, वीरप्पा मोइली, के वी थॉमस एवं अमरिंदर सिंह के साथ-साथ शशि थरूर, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी. इसके अलावा एनसीपी के तारिक़ अनवर, जेडी (एस) के एच डी देवेगौड़ा, वामपंथी मो. सलीम जैसे अनुभवी नेता भाजपा को संसद में घेर सकते हैं. फिर भी, 15वीं लोकसभा के दौरान भाजपा ने बतौर विपक्षी पार्टी जो रणनीति अपनाई थी, उस समस्या से उसे खुद दो-चार नहीं होना पड़ेगा. तब भाजपा किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर संसद चलने ही नहीं देती थी. इसी वजह से कुछ सत्र पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ गए. इस बार ऐसा होने की आशंका कम है.
कमज़ोर विपक्ष कितना कारगर
Adv from Sponsors