मुश्किल से एक मौका हाथ आया, किसानों के कंधे अपने निशाने साधने का पल था, ये करेंगे, वो करेेंगे, ऐसा होगा, वैसा होगा, सब धरा रह गया…! पदों के ढ़ेर पर बैठे काका जी ने दिल्ली दरबार में माथा टिकाई का दिन वह चुना, जिस दिन उनकी सबसे ज्यादा जरूरत वहां थी, जहां के वह मेहमान मुखिया बनकर रह गए हैं…! इस समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे से विमुख होकर उनका दिल्ली कूच कर जाना इस बात का इशारा करता है कि वो मन ही मन तय कर चुके, अपने बस की नहीं है भैया…! उनकी इस पीठ दिखाई ने यह भी साबित कर दिया कि मिस्टर बंटाधार अब भी पार्टी के मुखपृष्ठ पर ही विराजे हुए हैं…! प्रदेश की व्यवसायिक राजधानी में उनकी आमद ने उनके वजन को बेशक बढ़ाया ही है…! राजधानी की जिम्मेदारी काकाजी उन्हें दे गए, जो बार-बार उनके अधिकार क्षेत्र में घुसपैंठ करने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। पिछली सफल पारी का हवाला देते हुए और अपने दिल्ली रिश्तों से उम्मीद रखते हुए उनकी उम्मीदें अब भी बुलंद हैं कि काका जगह खाली करें तो वे आसन पर आ बैठेंं…! यह तर्क भी मुनासिब नहीं माना जा सकता कि भैया जी की किसान छवि के चलते उन्हें यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी…! अपनी उपेक्षा से बहराए हुए भैया जी कई बार इशारे दे चुके हैं कि पलायन का सिलासिला अभी थमा नहीं है, कोई भी लहर उन्हें भी बहाकर ले जा सकती है…! बिना ठोस तैयारी और अनमने ढंग से किए गए बंद आह्वान ने लोगों को जता दिया कि काकाजी महज सिंहासन के लिए ही नाकाबिल नहीं हैं, बल्कि विपक्षी भूमिका भी उनके बस की नहीं है…!

पुछल्ला
बाबूजी जरा धीरे चलो…
साहब के सिर कलेक्ट्री ऐसी चढ़ी है कि छोटे अफसरों को किसी बिसात ही नहीं रखते। प्रदेश की व्यवसायिक राजधानी में सबसे बड़े साहब बनकर बैठे श्रीमान ने भरी मीटिंग एक सीनियर अफसर को ऐसी डपट लगाई कि शर्म के मारे उनके दिल के हर कोने से आवाजें आने लगीं। लोगों की सेहत के फिक्रमंद साहब को बच्चों की तरह माट साब की डांट खाने की आदत नहीं थी, लेकिन सरेआम अपना गर्म पारा दिखाने वाले साहब की यह पुरानी आदत है कि वे अपने आगे किसी को कुछ मानते ही नहीं।

खान अशु

 

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