स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार  वर्ष  2005 में यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री ने पुलिस सुधार के महत्व और सुझाई गई स़िफारिशों पर प्रकाश डाला. इंद्रजीत गुप्ता एक केंद्रीय मंत्री के रूप में दूसरे ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस संदर्भ में पत्र लिखा.

वर्ष 1977 में धर्मवीर की अगुवाई में एक सरकारी संगठन राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एनपीसी) का गठन किया गया, जिसका काम भारत में पुलिस व्यवस्था की कार्य प्रणालियों की समीक्षा करना था. साथ ही इस आयोग ने नागरिकों के प्रति पुलिस व्यवस्था को जवाबदेह बनाने के लिए भी कई सुझाव दिए. एनपीसी ने पुलिस सुधार के मामले में आठ विस्तृत रिपोर्ट पेश कीं और पुलिस कल्याण, प्रशिक्षण एवं सार्वजनिक संबंधों के मामले में भी कई स़िफारिशें कीं.
हालांकि जब 1981 में पूर्ववर्ती सरकार सत्ता में लौटी तो उसने राष्ट्रीय पुलिस आयोग को भंग कर दिया और एनपीसी की सभी रिपोर्टों को भी ख़ारिज कर दिया. इन रिपोर्टों की स़िफारिशें धूल फांकने लगीं और यह अ़फवाह फैली कि एनपीसी की सभी रिपोर्टों को सार्वजनिक लाइब्रेरी से हटा दिया गया. स़िर्फ आयोग के कुछ अधिकारियों के पास ही इन रिपोर्टों की महज़ चंद प्रतियां थीं. अगले बीस सालों तक यह रिपोर्ट धूल फांकती रही, पुलिस ग़ैर ज़िम्मेदारी से अपना काम करती रही और आम आदमी भी इसके प्रति अनभिज्ञबना रहा.
1990 के मध्य में जब राजनीतिक समीकरण बदला तो उम्मीद की एक किरण नज़र आई और कुछ उत्साही लोग इन सुधारों की कोशिशों के लिए एक मंच पर आए. 1996 में एन के सिंह एवं प्रकाश सिंह पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत हुए और दोनों इसी उद्देश्य के लिए ग़ैर सरकारी संगठन के ज़रिए एक मंच पर आए. इनके साथ कुछ अन्य लोगों ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें एक नए पुलिस अधिनियम की ज़रूरत की बात कही गई. उन्होंने यह भी मांग की कि मौजूदा पुलिस व्यवस्था में आंतरिक जवाबदेही की प्रक्रिया कमज़ोर है और राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा दिए गए सुझाव इस दिशा में कारगर साबित हो सकते हैं. उनकी यह भी मांग थी कि पुलिस पर बाह्य नियंत्रण नहीं होना चाहिए और इसके बेहतरीन अधिकारियों को व्यवस्था में शीर्ष पदों पर होना चाहिए. यह इशारा देश भर में शीर्ष पदों पर राजनीति से प्रभावित नियुक्तियों की ओर किया गया है. उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह पुलिस द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न से पुलिस के प्रति आम लोगों का विश्वास घटा है.
इसी दौरान 1997 में जब सरकार बदली तो पहली बार गृहमंत्री ने पुलिस सुधार से संबंधित मामलों पर पहल की शुरुआत की. गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता राष्ट्रीय पुलिस आयोग की स़िफारिशों से भलीभांति वाक़ि़फ थे. उन्होंने 23 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने कहा कि पुलिस व्यवस्था में हद से ज़्यादा राजनीतिक प्रभाव है. पुलिस की कार्य प्रणालियों में जवाबदेही का ज़िक्र तक नहीं है और न ही जनता की समस्याओं को बेहतर ढंग से हल करने की कोई प्रणाली है.
कई वर्षों तक चर्चा के बाद यह पाया गया कि इन मुद्दों पर गृह मंत्रालय के भीतर एवं बाहर ही मतभेद हैं. ऐसा माना गया कि पुलिस स्वयं इन सुधारों को लागू करने की कोशिशों के प्रति अनिच्छुक थी. हालांकि इंद्रजीत गुप्ता द्वारा उठाए गए क़दमों का किसी भी राज्य सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया. विभिन्न स्तरों पर लोगों के निहित स्वार्थ भी पुलिस सुधारों को लागू करने के रास्ते में रोड़ा बन रहे थे. इस दौरान राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और एनजीओ कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्‌स इनिशिएटिव ने पुलिस सुधार के मुद्दे को उठाया और प्रकाश सिंह एवं एन के सिंह के साथ न्यायालय में मुक़दमा दर्ज़ कराया. पहली बार कुछ लोगों और सीएचआरआई ने देश भर में छोटे एवं बड़े स्तर पर कार्यशालाएं आयोजित कर जनता को यह बताया कि पुलिस सुधार आख़िर है क्या? राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने क्या स़िफारिशें की थीं और दूसरे देशों में इस संदर्भ में कौन-कौन से क़दम उठाए गए हैं? पहली प्रतिक्रिया पुलिस और लोगों से जो मिली, वह उत्साहवर्द्धक थी. लोगों ने पुलिस व्यवस्था के प्रति अपना असंतोष ज़ाहिर किया. कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने भी इन कार्यशालाओं में हिस्सा लिया और अपनी राय ज़ाहिर की. साथ ही इन अधिकारियों ने सुधार को लागू करने में आने वाली समस्याओं का भी ज़िक्र किया.
संगठन ने मीडिया को भी जागरूक करने का प्रयास किया है, ताकि वह अपराध पर रिपोर्टिंग के ज़रिए पुलिस की लापरवाही को फोकस कर सके और इस तरह पुलिस सुधार का मुद्दा व्यापक तौर पर सामने आ सके. इस अभियान के तहत धीरे-धीरे माहौल बनाया और कहा गया कि पुलिस सुधार की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता है. यह इतना ज़रूरी है कि इसके लिए ज़रा सी भी प्रतीक्षा से बहुत देर हो जाएगी.
स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार  2005 में यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री ने पुलिस सुधार के महत्व और सुझाई गई स़िफारिशों पर प्रकाश डाला. इंद्रजीत गुप्ता एक केंद्रीय मंत्री के रूप में दूसरे ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस संदर्भ में पत्र लिखा. साथ ही उन्हें संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठने एवं एनपीसी की स़िफारिशों को लागू करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया. हालांकि उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया. आयोग ने कई अहम सुझाव दिए, लेकिन इस देश में इन सुझावों में एक भी परवान नहीं चढ़ पाया. उच्चतम न्यायालय के आदेश पर एवं राष्ट्रीय पुलिस आयोग की स़िफारिशों के 20 साल बाद पुलिस सुधारों पर फिर से विचार करने के लिए एक समिति गठित की गई. इस समिति में कई दिग्गज शामिल थे. जैसे मध्य प्रदेश सरकार की सेवानिवृत मुख्य सचिव श्रीमती निर्मला बुच और प्रख्यात पुलिस अधिकारी जे एफ रिबेरियो. श्रीमती बुच ने समिति की एक बैठक के बाद इस्ती़फा दे दिया और रिबेरियों को समिति का अध्यक्ष बनाया गया, जिन्होंने 1998 एवं 1999 में दो रिपोर्टें पेश कीं. इसके तुरंत बाद एक दूसरी समिति गठित की गई, जिसके द्वारा कई साहसिक स़िफारिशें भी की गईं. गृह मंत्रालय के तहत एक नोडल सेल स्थापित किया गया, जिसमें वोहरा समिति ने आपराधिक गिरोहों, राजनेताओं, सरकारी तंत्र और अन्य विभागों के बीच साठगांठ से निपटने की स़िफारिश की.
आगे चलकर वर्ष 2000 में पद्मनाभैया (आईएएस और केंद्रीय गृह सचिव) की अगुवाई में गृहमंत्री ने पुलिस सुधार की समीक्षा के लिए एक समिति गठित की. इस समिति ने 240 स़िफारिशें कीं, जिसमें बहाली, पदोन्नति, सामुदायिक पुलिस, कार्यकाल सुनिश्चित करना और भ्रष्ट अधिकारियों को हटाने के लिए आचार संहिता पर ज़ोर दिया गया. कमल कुमार (राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के निदेशक एवं आईएएस अधिकारी) की अगुवाई में भी 2004 में एक समीक्षा समिति गठित की गई. इस समिति ने स़िफारिश की कि 1980 से सुझाई गई 49 स़िफारिशों को अमल में लाने की आवश्यकता थी. इसी तरह कई और समितियां भी गठित की गईं. मसलन, मार्च 2003 में न्यायाधीश मालीमथ समिति, धीरेंद्र सिंह समिति आदि. इन सभी ने प्रगतिशील और प्रतिगामी दोनों तरह की स़िफारिशें कीं.
एक बार फिर वर्ष 2005 में संसदीय सलाहकार समिति ने पुलिस सुधार (2005) पर स़िफारिश की कि कांस्टेबलों को और अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए. उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस होना चाहिए. उदाहरण के तौर पर 303 राइफल की जगह आधुनिक राइफल के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. अन्य सभी सुझावों के बीच यह भी स़िफारिश की गई कि  पदोन्नति के बेहतर अवसरों के साथ-साथ कांस्टेबलों और सहायक सब इंस्पेक्टरों की सीधी भर्ती की जानी चाहिए. समिति की दूसरी स़िफारिश थी, 1861 के पुलिस अधिनियम की जगह नए अधिनियम को लाना. दरअसल, सभी समितियों एवं आयोगों ने पुराने क़ानून को बदलने और उसकी जगह लोकतांत्रिक समकालीन क़ानून को लागू करने की सलाह दी है. इन तमाम स़िफारिशों को लागू करने में लापरवाही इस बात की ओर इशारा करती है कि कई स्तरों पर इन सुधारों को लेकर मतभेद है और यह मतभेद आम आदमी की समझ से बिल्कुल परे है.

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