आर्थिक गतिविधियों के इन प्राइमरी-सेकेंडरी सेक्टरों के बाद तीसरी श्रेणी सेवा क्षेत्र की है, जो राज्य में खूब फल-फूल रहा है. होटल-रेस्तरां, मोबाइल, सूचना तकनीक और वाहनों का व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है. पिछले आठ-नौ वर्षों से राज्य के जीडीपी में इस क्षेत्र का सबसे अधिक योगदान रहा है. 2013-14 में भी यही हुआ. आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि राज्य में बिजली की उपलब्धता बढ़ रही है. अब मांग और उपलब्धता के बीच अंतर बहुत बड़ा नहीं रहा, लेकिन यह खुशी उधार की है.

kisaaanयह कहना तो सही नहीं है कि बिहार में विकास की गाड़ी बेपटरी हो गई है, पर उसकी गति ज़रूर धीमी हो गई है. राज्य में पिछले सवा नौ वर्षों से उनका (नीतीश) राज-पाट है. अपने शासनकाल में उन्होंने राज्य से जुड़े कुछ राजनीतिक मिथ तोड़े, जिनमें पिछड़ापन भी एक रहा. बीते कुछ दशकों की आर्थिक जड़ता के कारण यह मान लिया गया था कि इस पिछड़े राज्य में विकास की गाड़ी नहीं चलाई जा सकती. निराशा की अंधेरी सुरंग में फंसे इस राज्य के हालात उन्होंने सुधारे, क़ानून का राज कायम किया और यहां आम तौर पर सत्ता के इकबाल का एहसास हुआ. लोगों में जान-माल सुरक्षित होने की उम्मीद जगी और उन्हें सुशासन बाबू कहा जाने लगा. इसके साथ ही विकास के मोर्चे पर फीलगुड का माहौल बना, विकास की गाड़ी पटरी पर आई और राज्य में पूंजी निवेश के नए-नए प्रस्ताव आने लगे. बिहारी समाज में आर्थिक समृद्धि के मोर्चे पर नए क्षितिज छूने की उम्मीद जगी. इस नई उम्मीद ने नीतीश कुमार को विकास पुरुष का खिताब दिया. अब दसवें वर्ष में यह खिताब ख़तरे में फंसा दिखता है. हालांकि, जद (यू) के नीतीश भक्त राजनेता और नौकरशाह इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं.
नीतीश सरकार ने अपने नौवें आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बीते दिनों विधान मंडल के दोनों सदनों में पेश की. वित्तीय वर्ष 2014-15 की इस रिपोर्ट में मूलत: वित्तीय वर्ष 2013-14 का ब्यौरा ही पेश किया गया. इस रिपोर्ट में नीतीश राज से जुड़े अनेक मिथ तार-तार हुए हैं. यह रिपोर्ट न स़िर्फ बहुत सारी बातें साफ़ करती है, बल्कि स्पष्ट संकेत देती है कि विकास के मोर्चे पर राज्य सरकार अब पिछड़ने लगी है. राज्य की विकास दर तो नीचे चली ही गई, कृषि जैसी आर्थिक गतिविधि के मोर्चे पर भी स्थिति नकारात्मक रही. नीतीश कुमार ने सत्ता संभालते ही विकास दर को नई ऊंचाई दी और उनके कार्यकाल में सदैव यह दहाई में रही. वित्तीय वर्ष 2006- 07 में विकास दर 16.18 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. इन नौ वर्षों में एक ऐसा भी दौर रहा, जब बिहार की विकास दर अनेक उन्नत राज्यों से बहुत अधिक रही और यह पिछड़ा राज्य सबसे उन्नतशील माना गया. किसी उल्लेखनीय पूंजी निवेश के बगैर केवल कठोर राजनीतिक इच्छाशक्ति की बदौलत विकास की नई ऊंचाइयां छूने के मोर्चे पर बिहार देश में उदाहरण माना जाने लगा, लेकिन यह तमगा ठिकाऊ नहीं रहा. राज्य की विकास दर अस्थिर बनी रही और इसमें घट-बढ़ होती रही. बावजूद इसके किसी भी साल यह दहाई से नीचे नहीं आई. वित्तीय वर्ष 2011-12 में विकास दर 10.24 प्रतिशत पर आ गई. सबसे ताज़ा आंकड़ा 2013-14 का है, जिसमें राज्य की विकास दर दहाई से नीचे यानी 9.92 प्रतिशत रह गई है. राज्य सरकार विकास दर में इस गिरावट के लिए सूखा और बाढ़ को ज़िम्मेदार बता रही है. हालांकि, पिछले कई वर्षों से राज्य में प्रकृति-चक्र ऐसा नहीं रहा कि विकास दर नीचे लुढ़का दे. लेकिन, राज्य सरकार प्रकृति के सिर ठीकरा फोड़कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है.
सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होने की लाख कोशिश करे, विकास दर में गिरावट के कारण सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में बिखरे पड़े हैं. नीतीश सरकार ने राज्य को दूसरी हरित क्रांति का केंद्र बनाने का दावा पूरे ताम-झाम के साथ किया था. इसके लिए सारी व्यवस्थाएं की गईं. कृषि विकास के लिए दस वर्षीय कृषि रोडमैप तैयार किया गया, जिसे पांच-पांच साल के दो चरणों में पूरा होना था. इसके लिए कुछ
विशेषज्ञों की तैनाती भी हुई और कृषि कैबिनेट का गठन किया गया. लेकिन हुआ क्या? राज्य के ताज़ा आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, यहां कृषि का विकास नकारात्मक रहा है. राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका योगदान घट गया है. पहले जीडीपी में कृषि का योगदान 27 प्रतिशत था, जो अब 22 प्रतिशत रह गया है. कृषि के उत्पादन में भी लगभग 12 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, जबकि वित्तीय वर्ष 2012-13 में 9.23 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई थी. पशुपालन एवं मत्स्य पालन जैसे प्राथमिक क्षेत्रों में भी गिरावट रही. हालांकि, राज्य के जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान बढ़ा है, नाममात्र का ही सही. जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान 18.1 प्रतिशत से बढ़कर 18.4 प्रतिशत हो गया है. राज्य सरकार इसे लेकर अपनी पीठ खुद थपथपा सकती है, लेकिन आर्थिक विकास में रुचि रखने वाले और इसकी प्रकृति के जानकार औद्योगिक क्षेत्र की इस गति से संतुष्ट तो कतई नहीं हो सकते. राज्य में स्वीकृत औद्योगिक इकाइयों के प्रस्तावों के ज़मीन पर उतरने की गति कोई उम्मीद नहीं जगाती.
सर्वेक्षण के अनुसार, 1,891 स्वीकृत निवेश प्रस्तावों में से केवल 272 ज़मीन पर हैं. इनमें भी अधिकांश खाद्य प्रसंस्करण कार्य से जुड़े हैं और लघु एवं घरेलू उद्योग के दायरे में आते हैं. रिपोर्ट से यह भी साफ़ होता है कि राज्य के विकास में विनिर्माण क्षेत्र की भूमिका कतई
महत्वपूर्ण नहीं रही और यह कल्पनाशील प्रोत्साहन एवं तैयारी की अपेक्षा रखता है. यह जानना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राज्य सरकार ने ढाई लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश प्रस्ताव अव्यवहारिक मानकर निरस्त कर दिए हैं. यह एवं ऐसे अन्य कार्य राज्य के औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया और गति को स्पष्ट करते हैं. बिहार में पर्यटन को उद्योग का दर्जा हासिल है, पर पर्यटन के नाम पर केवल यात्रियों के बिहार आने तक के आंकड़ों पर ही सरकार ज़्यादा भरोसा करती है. बिहार आने वाले लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. लेकिन वे कौन लोग हैं? वस्तुत: बिहार आने वाले अधिकांश पर्यटक बौद्ध और जैन तीर्थयात्री होते हैं, क्योंकि उनके बड़े तीर्थस्थल इस राज्य में है. वनों एवं वन्यजीवों से जुड़े पर्यटन को विकसित करने की किसी कोशिश की जानकारी यह सर्वेक्षण रिपोर्ट नहीं देती है. पर्यटकों को आवास एवं परिवहन आदि सुविधाएं देने के लिए क्या किया गया है अथवा किया जा रहा है, यह इस सर्वेक्षण से पता नहीं चलता.
आर्थिक गतिविधियों के इन प्राइमरी-सेकेंडरी सेक्टरों के बाद तीसरी श्रेणी सेवा क्षेत्र की है, जो राज्य में खूब फल-फूल रहा है. होटल-रेस्तरां, मोबाइल, सूचना तकनीक और वाहनों का व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है. पिछले आठ-नौ वर्षों से राज्य के जीडीपी में इस क्षेत्र का सबसे अधिक योगदान रहा है. 2013-14 में भी यही हुआ. आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि राज्य में बिजली की उपलब्धता बढ़ रही है. अब मांग और उपलब्धता के बीच अंतर बहुत बड़ा नहीं रहा, लेकिन यह खुशी उधार की है. बिहार का अपना उत्पादन अब भी उल्लेख के लायक नहीं है और लगभग पूरी बिजली केंद्र से मिल रही है. राज्य में बिजली का औसत उत्पादन 68 मेगावाट प्रतिदिन है, जबकि बाहर से रोजाना 2,761 मेगावाट बिजली खरीदी जाती है. इस बात के लिए खुश हुआ जा सकता है कि बिहार में बैंकों का साख-जमा अनुपात (क्रेडिट-डिपॉजिट रेशियो) बढ़कर 46 प्रतिशत तक चला गया है, लेकिन अभी भी बिहार में ऋण बहुत कम जारी हो रहे हैं, क्योंकि यहां औद्योगिक गतिविधियां वैसी हैं नहीं. बिहार के लोग इस बात से भी खुश हो सकते हैं कि सरकार सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में खर्च को निरंतर बढ़ावा दे रही है और मानव विकास सूचकांक ऊपर चढ़ रहा है. वित्तीय वर्ष 2013-14 में सामाजिक सेवाओं पर प्रति व्यक्ति व्यय 2,423 रुपये हो गया. शिक्षा एवं स्वास्थ्य के साथ-साथ सड़क, पेयजल आदि बुनियादी सुविधाओं के विकास पर बिहार में खासा खर्च हो रहा है.
इन सारी उपलब्धियों के बावजूद एक दुर्भाग्य बिहार का पीछा नहीं छोड़ रहा है, वह यह कि राज्य में विकास के द्वीप बनते जा रहे हैं. यदि बिहार का सच्चे अर्थों में विकास करना है, तो इसके अंधेरे इलाकों में भी विकास की रोशनी पहुंचानी होगी. शिवहर, सीतामढ़ी, सुपौल, अररिया, मधेपुरा, बांका, मधुबनी, अरवल, नवादा, शेखपुरा एवं किशनगंज आदि ज़िलों की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है. पटना, मुंगेर, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर एवं भागलपुर आदि बिहार के विकसित ज़िले हैं, पहले भी थे. पिछले कई वर्षों से (जबसे आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया जा रहा है) शिवहर बिहार का सबसे ग़रीब ज़िला रहा है. वित्तीय वर्ष 2013-14 में बिहार में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 15,650 रुपये रही. पटना में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 63,063 रुपये रही, लेकिन वहीं शिवहर में यह मात्र 7,092 रुपये रही. पटना बिहार में एकमात्र आलोकित द्वीप की तरह है. राज्य के दस ज़िलों की हालत शिवहर जैसी है, तो कुछ की कुछ अंकों से सुधरी हुई मान ली गई है. इन ज़िलों की प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय पांच अंकों तक अभी नहीं पहुंची है, जबकि पटना छठवां अंक छूने को बेताब है. राज्य के आधा दर्जन ज़िले भी ऐसे नहीं हैं, जहां प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय पटना के एक तिहाई भी हो. यह विषमता आने वाले वर्षों में बिहार के आर्थिक-राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर नहीं मानी जानी चाहिए. बिहार की नब्बे प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है और अंधेरे इलाके वे ही हैं, जहां बाढ़ एवं सूखे की मार बहुत तीखी पड़ती रही है. ऐसे अंधेरे इलाकों में सत्ता के इकबाल को चुनौती देने या विकास की गाड़ी पटरी से उतारने के नित नए रास्ते की तलाश की जाती रही है, लेकिन सत्ता-राजनीति तो सदैव एक आभा मंडल तैयार कर अपनी उसी दुनिया में संतुष्ट रहती है. और, यह आभा मंडल निश्‍चित रूप से पटना जैसे नगर (या ज़िले) में ही तो तैयार होते हैं.


आर्थिक सर्वेक्षण के मुख्य बिन्दु

  • कृषि का विकास नकारात्मक रहा है.
  • राज्य के जीडीपी में इसका योगदान घटा
  • कृषि का योगदान 27 से घट कर 22 प्रतिशत हुआ.
  • कृषि उत्पादन में 12 प्रतिशत की गिरावट
  • पशुपालन एवं मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में भी गिरावट
  • जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान बढ़ा है
  • 1,891 स्वीकृत निवेश प्रस्तावों में से केवल 272 ज़मीन पर हैं.
  • 2013-14 में बिहार में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 15,650 रुपये
  • पटना में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 63,063 रुपये
  • शिवहर में यह मात्र 7,092 रुपये रही.
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