आज बिस्तर पर बीमार पड़ी राधिका कभी दोस्तों के बीच टेकी के नाम से पहचानी जाती थी. टेकी यानी टेक्नोलॉजी की दीवानी. दरअसल राधिका इस जेनरेशन के उन बहुत सारे लोगों जैसी है, जिनके लिए तकनीक ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा है. उसके रूटीन पर नज़र डालें तो यह साफ दिखाई देता है कि उसकीज़िंदगी में तकनीक कितनी अहम चीज़ थी. उसके दिन की शुरुआत अपने मोबाइल और डेस्कटॉप पर मैसेज देखने से होतीं.
वह दिन भर अपने सेलफोन से एसएमएस करती रहती थी, यहां तक की क्लास के बीच में भी, जिसकी शिकायत स्कूल से कई बार मिल चुकी थी. घर में वह या तो कंप्यूटर पर चैट करने में बिज़ी रहती थी या मोबाइल पर लगी रहती थी. ज़ाहिर है, उसकी इन हरक़तों से उसके मां-बाप भी परेशान थे.
इतने कि आख़िरकार स्कूल से एक और शिकायत आने के बाद उन्होंने राधिका को घर में बंद रहने की सज़ा दे दी और उसका मोबाइल भी छीन लिया. अगले कुछ दिनों में राधिका बुरी तरह से बीमार हो गई. उसकी ख़राब तबीयत का कारण न तो उसके मां-बाप को समझ में आया, न ही इलाज कर रहेडॉक्टरों को. घबराहट, घुटन और बुख़ार ने उसे बिस्तर पर क़ैद कर दिया. दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी हालत कुछ ऐसी हो गई जैसे उसके शरीर का कोई हिस्सा काट दिया गया हो. वैसे यह बात सही ही है.
हमारी ईज़ाद की गई तकनीक हमारी ज़िंदगी का हिस्सा ऐसे बन चुकी है जैसे हमारे रगों में दौड़ रही हो. राधिका कोई अकेली नहीं है, ऐसे लाखों लोग हैं जिनको लगता है कि अगर ज़िंदगी में तकनीक न हो तो जीना ख़त्म हो जाएगा. मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि इंसान हमेशा से किसी का साथ चाहता है. भले वह इंसान हों या जानवर. शायद यही वजह है कि हम जानवरों को पालतू बनाकर घरों में जगह देते हैं. जीवित वस्तुओं से इस प्यार को साइंस की भाषा में बायोफीलिया कहते हैं. हालांकि तकनीक के बढ़ते क़दमों ने हमारे औज़ारों को, मशीनों को भी एक नई ज़िंदगी दी है. ज़िंदा चीज़ों की जगह अब तकनीक के औज़ार ले रहे हैं. तकनीक से प्यार इस तरह बढ़ गया है कि उसने दीवानगी की शक्ल ले ली है. ज़ाहिर है, यह एक बीमारी है. इस बीमारी को कहते हैं-टेक्नोफीलिया. सोते-जागते, खाते-पीते हर व़क्त तकनीक से जुड़े रहने की इस बीमारी को समझना-आसान नहीं होता. इस बीमारी के शिकार लोगों को भी यह पता नहीं चलता कि वे किस मुसीबत में हैं. मुसीबत भी ऐसी कि काम करने में सुविधा पाने की कोशिश ही समस्या बन जाती है. कंप्यूटर, मोबाइल और ऐसे तमाम उपकरणों ने हमारी ज़िंदगी में जगह बना ली है. धीरे-धीरे उनका दखल इतना ज़्यादा हो गया कि हम अपने आस-पास के लोगों को नज़रअंदाज़ करने लगे. मनोविज्ञान के शोध छात्र नवीन चौहान बताते हैं कि ऐसे लोग धीरे-धीरे चिड़चिड़े हो जाते हैं, दूसरों से मिलना जुलना पसंद नहीं करते और उनके स्वास्थ्य पर इसका असर दिखता है. कर्ई माता-पिता अपने बच्चों के वीडियो गेम या इंटरनेट से चिपके रहने से परेशान रहते हैं, यह भी एक तरह का टेक्नोफीलिया ही है. कभी-कभी व़क्त के साथ इसमें बदलाव आ जाता है लेकिन कभी यह जीवन भर की परेशानी बन जाती है. हालांकि ऐसा नहीं है कि टेक्नोफीलिया कोई नई चीज़ है, और इसका असर केवल इस जेनरेशन में देखा गया है. तकनीक हमेशा से लोगों को आकर्षित और मोहित करती रही है. इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब लोग अपने औज़ारों से मोहब्बत करते थे, तब हथियारों को जान से ज़्यादा संभाल कर रखते थे. कई आविष्कारकों ने अपने और अपने आविष्कार के बीच के प्रेम के बारे में विस्तार से लिखा है. 1499 में लिखी गई हाईपनेरोटोमेकिया पॉलिफिली नाम की किताब का नायक इमारतों से प्यार करता है. इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि तकनीक की दीवानगी कोई नई ची़ज नहीं है. हाल के समय में तकनीक का विकास बेहद तेज़ी से हुआ है, और उसी तेज़ी से टेक्नोफीलिया भी फैला है. अजीब बात है कि जिस तकनीक का इस्तेमाल लोग अंधाधुंध लोगों से जुड़ने के लिए कर रहे हैं, असलियत में वही उसे दूसरों से दूर कर रही है. टेक्नोफीलिया का कोई इलाज नहीं है, न ही इसेरोकने के लिए कोई दवा दी जा सकती है. हां, इसे समझा जा सकता है. राधिका के मामले में उसके मां-बाप ने यही ग़लती की. वे तकनीक के प्रति उसकी दीवानगी को उसकी शरारत मानते रहे और उसकी सज़ा दे दी. होना तो यह चाहिए था कि वे राधिका की तकनीक की ज़रूरत को समझें. ऐसे लोग तकनीक के बिना नहीं रह सकते, इनकी हालत किसी नशे के आदी की तरह ही है. ज़रूरत इस बात की है, पहले ऐसे लोगों की समस्या को समझा जाए. फिर उन्हें धीरे-धीरे इस बारे में बताया जाए और तकनीक के इस्तेमाल को कम करने की कोशिश की जाए. साथ ही ऐसे लोगों के साथ व़क्त बिताया जाए, क्योंकि अक्सर अकेलेपन में ही गैजेट और तकनीक हमारे साथी बन जाते हैं. ऐसे लोगों को प्रकृति की ख़ूबसूरती से भी वाक़ि़फकराना चाहिए.
टेक्नोफीलिया कोई शारीरिक रोग नहीं, एक मानसिक स्थिति है. इसे केवल साथ और समझदारी से ख़त्म किया जा सकता है. वैसे भी तकनीक को हमने अपने फायदे के लिए बनाया है, उससे प्यार करने में कोई द़िक्क़त नहीं है. बस प्यार एक हद में रखें ताकि ज़िंदगी पूरी तरह से जी सकें. कहते हैं न कि -और भी ग़म हैं ज़माने में….
कहीं हद पार तो नहीं कर रहा तकनीक से प्यार ?
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