आम तौर पर मीडिया ख़बरों का पीछा करता है. कई बार ख़बरें मीडिया का पीछा करती हैं. एकाध बार ख़बरों का सूखा भी होता है. उस वक्त मीडिया को कुछ नहीं से कुछ भी निकालना होता है. आख़िरकार, खबरें तो-भले ही भुला देने लायक होकर या दूसरे रूप में- मीडिया के बिना भी बनी ही रहेंगी, लेकिन मीडिया का काम बिना ख़बरों के नहीं चल सकता.
मुंबई के अनुपस्थित मतदाताओं पर मीडिया का हो-हल्ला कुछ इसी तरह की गैर-ख़बरी ख़बर थी.
2004 में मुंबई के 47 फीसदी मतदाताओं ने वोट डाले थे. 2009 में यह संख्या 44 फीसदी हो गई. पिछली बार की तुलना में कुछ ही कम. तुरंत ही हमारे आघात और भय के विशेषज्ञों ने फतवा जारी करते हुए पूछा कि आख़िर उन एक लाख मुंबईवालों का क्या हुआ, जिन्होंने मुंबई पर हमले के बाद हाथों में मोमबत्ती लेकर टेलीविजन के पर्दे पर धावा बोल दिया था, एक नई क्रांति तक लाने की धमकी दे दी थी? हमारे विद्वानों के मुताबिक वे नागरिक अपने 15 मिनट की प्रसिद्धि के बाद वापस अपने सिगरेट और शराब की पार्टियों में व्यस्त हो गए हैं. उन प्रदर्शनकारियों ने सालों से अपनी तकलीफों को सहा है. इन लोगों को वोटिंग बूथ तक लाने के लिए कुछ गंभीर रणनीतिक बातचीत करनी होगी. अगर लोकशाही की कीमत सूरज की झुलसती किरणों को झेलना है, तो क्यों नहीं हम वोट के इंटरनेट तक पहुंचने का इंतजार करते हैं? वैसे भी, यह अधिक दूर नहीं है. हम लोग सूचना प्रौद्योगिकी के बादशाह हैं. नहीं?
तथ्य हालांकि किसी दूसरे सवाल में छिपे हैं. यह धनी वर्ग की अनुपस्थिति से संबंधित नहीं है, बल्कि ग़रीबों के बहिष्कार से जुड़ा मसला है. मुंबई के अधिकतर अनुपस्थित मतदाता, या तो तनाव के कगार पर खड़ा मध्यवर्ग है या भुखमरी के कगार पर खड़ा ग़रीब है. उन्होंने पांच साल पहले भी मत नहीं डाले और इस बार भी नहीं डाला.
मतदान प्रतिशत में चार फीसदी की गिरावट आसानी से समझी जा सकती है, जब तक आप मोमबत्ती लिए सितारों (सेलिब्रिटीज) की छवि से अभिभूत नहीं हैं. 2004 में मुंबई के मुसलमानों ने गुजरात दंगों की वजह से दुखी होकर और एनडीए सरकार को हराने के लिए आक्रामक तरीके से मतदान किया था. इसी वजह से औसत मतदान 47 फीसदी तक पहुंच गया था. इस बार वे कांग्रेस से उदासीन थे और भाजपा-शिवसेना से गुस्साए. कोई भी ऐसा नहीं था, जिसे वोट देने के लिए सोचा जा सके. कांग्रेस ने एक बार फिर अपने पांच साल टालमटोल में गंवा दिए और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की, जिसमें 92-93 के दंगों के दोषियों के नाम भी दिए गए थे. मुसलमानों की दूसरी मांग-जैसे नौकरियों में आरक्षण- के बारे में तो मज़ाक ही चल पड़ा है कि दूसरे समुदायों को तो नौकरियां मिलीं और मुसलमानों को मिला केवल जांच आयोग का झुनझुना.
गुस्से की वजह से 2009 में मुसलमान वोट बिखर गए हैं. वे उन राज्यों में कांग्रेस के ख़िला़फ हैं जहां यह सत्ता में है. जैसे महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और असम में. हालांकि, कई जगहों पर मुसलमान कांग्रेस के लिए वोट भी कर रहे हैं, जहां कांग्रेस सत्ता में नहीं है. जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश. हालांकि 2004 की तरह की कोई एकजुटता इस बार देखने को नहीं मिल रही है. केरल में एक तबके ने वाम के अमेरिका-विरोधी रवैए का सकारात्मक समर्थन किया है, लेकिन 16 मई को ही पता चलेगा कि क्या इस रवैए ने सरकार-विरोधी हवा का रुख़ मोड़ा है या नहीं? बंगाल में-जहां, सबसे अधिक संख्या में अल्पसंख्यक मतदाता हैं-भी मत बंटे हुए हैं.
वैसे, उदासीनता की यह स्थिति शायद किसी और विकल्प का रास्ता तैयार कर सकती है. सबसे लोकप्रिय उम्मीद तो अभी एक मुस्लिम बसपा की है. एक अध्ययन के मुताबिक मुसलमान मतदाता लगभग 74 लोकसभा सीटों पर परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं. पिछली लोकसभा में केवल 37 मुस्लिम सांसद थे. सबसे अधिक मुसलमान सांसद (46) वर्ष 1980 में थे, जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने मुसलमानों को वापस अपने पाले में खींच लिया था और उनको अधिक प्रतिनिधित्व भी दिया था. उसके बाद से लगातार इस संख्या में कमी ही आती गई. कांग्रेस दिल्ली के हरेक मुसलमान का वोट चाहती है, लेकिन एक भी मुस्लिम उम्मीदवार घोषित करने से हिचकती है. यह सवाल तो खड़े करता ही है.
सफलता को चाहना और पाना अलग बातें हैं. लगभग दो दशकों और नेतृत्व की दो पीढ़ियों-कांशीराम और मायावती-के बाद ही दलितों का वोट हाथी के निशान से चिपक सका. मुस्लिम समुदाय के पास एकता के लिए आवश्यक समय और धैर्य भी नहीं है.
लगभग 30 छोटी पार्टियां चुनावी परिदृश्य पर अपना शेयर पाने के लिए ज़ोर लगा रही हैं. इनमें तमिलनाडु की मुस्लिम मुनेत्र कषगम जैसी खांटी पार्टी भी है. केरल की मुस्लिम लीग के अलावा असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की एयूडीएफ ही एकमात्र सार्थक प्रयास है, जिसने विधानसभा में नौ सीटें जीती थीं और इससे भी अहम बात यह कि 20 और सीटों पर कांग्रेस की नींद हराम कर दी थी. इसने अपने पंख फैलाते हुए महाराष्ट्र और बंगाल में भी अपना प्रभाव जमा लिया है. हालांकि, लोगों की उत्सुकता इसमें है कि आजमगढ़ केंद्रित उलेमा काउंसिल उत्तर प्रदेश में कैसा प्रदर्शन करती है. इस समूह ने बाटला हाउस इनकाउंटर के बाद यूपीए सरकार के न्यायिक जांच से मना करने के बाद और पुलिस द्वारा आजमगढ़ के युवाओं का शैतान के तौर पर चित्रण करने के बाद अपना आधार खासा बढ़ाया है.
इस तरह के बिखरे प्रयासों का परिणाम संभव है कि एक ही सांसद के रूप में मिले, वह भी शायद असम से जहां मौलाना अजमल उलटफेर कर सकते हैं. वैसे, अहम तो यह होगा कि चुनावी नतीजों के बाद कैसे गठजोड़ बनते हैं. क्या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर सामूहिक कर्तव्य की जीत होगी और भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा दोष-अविश्वास- भी दूर होगा?
कोई भी आविष्कार अगले जीनियस की प्रतीक्षा करता है. एक ऐसे कैमरे, जो मानव मस्तिष्क को पढ़ सके, की जरूरत है. टेलीविजन छाप राजनीति ने नेताओं के बीच की चीख-चिल्लाहट को ही राजनीति का जामा पहना दिया है. ऐसा शायद इसलिए कि कैमरे ने हमें चौंेकाने की कला भुला दी है. कोई अलग तरह का राजनेता मिलने की उम्मीद नहीं है, इसी वजह से हमें एक अलग कैमरे की ही ज़रूरत है. यह कम से कम दिमाग़ की तहों में घुसकर ख़बरें तो निकालेगा.
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