मुस्कुराते चेहरे के साथ सुसाइड करने वाली अहमदाबाद की 23 साल की आयशा… बीते शनिवार उसने साबरमती नदी में कूदकर सुसाइड कर लिया। सुसाइड से पहले आयशा ने हंसते हुए एक वीडियो भी बनाया था। आयशा की हंसी के पीछे छिपे दर्द की परतें अब धीरे-धीरे खुलने लगी हैं। वकील जफर पठान के मुताबिक आयशा की शादी राजस्थान के जालौर के रहने वाले आरिफ से 2018 में हुई थी। आरिफ का एक लड़की से अफेयर था। प्रेमिका पर पैसे लुटाने के लिए ही वह आयशा के पिता से रुपयों की मांग करता था। आयशा 3 साल सब सहती रही, डिप्रेशन के चलते गर्भ में ही उसने अपना बच्चा भी खो दिया था।
आयशा के दुनिया से जाने के बाद बड़े सवालों के फिर समाज के सामने आ खड़े होने का सिलसिला शुरू हो गया है। मजहब कोई भी हो, जाति-वर्ग कोई भी हो, लेकिन समाज के माथे पर एक बड़े कलंक की तरह चस्पा हो चुके दहेज रूपी दानव ने कई बेटियां लीली हैं, आगे यह नहीं होगा, इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं है। आयशा का दर्द अगर हर वह व्यक्ति, जो किसी बेटी का बाप, किसी बहन का भाई है, अपने साथ जोड़कर देखे और इस कलंक को मिटाने के लिए खुद से एक तेहरीर लिखना शुरू करे तो संभवत: समाज के इस टीके से निजात पाने का कोई रास्ता निकाला जा सकता है।
सस्ती और सरल शादियां, बिना दिखावे और बिना लालच के होने वाले रिश्ते, किसी से प्रतिस्पर्धा और उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसी धारणा छोड़कर, अपनी बेटी के लिए सुविधाएं और सहूलियतें जुटाने के मन के भ्रम से बाहर निकलकर रिश्ते किए जाने लगें तो मुश्किलें उस हद तक न जाएं, जिस हद तक आयशा ने खुद को खड़ा पाया।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता मुनव्वर कौसर कहते हैं कि महजब-ए-इस्लाम में शादियों को आसान बनाने और सबकी पहुंच तक जाने का फरमान है।
लेकिन बदले दौर में इसका रूप भयावह होता दिखाई देने लगा है। महंगी शादियां, बड़े खर्च और बेतहाशा उम्मीदों के संचार ने शादियों को टिकाऊ, लंबी चलने वाली और भरोसेमंद होने के रास्ते की बाधा बना दी है। पिछले कई दशक से चली रही इस विकृति पर आयशा मामले ने एक बार फिर से सोचने की दिशा दी है।
लोगों को इस बारे में गंभीर चिंतन करना चाहिए और शुरूआत खुद से करते हुए ऐसी शादियों को बहिष्कार करने की पहल करें, जहां दहेज देने और लेने की कवायदें पूरी हो रही हैं। मजहबी उलेमाओं को भी इसके लिए अपना दायित्व निभाने की जरूरत है। वे शादियों की तकरीब और इससे पहले होने वाली तैयारियों में इस तरह की शर्तें आयद करें कि लोग महंगी शादियों से बचने पर मजबूर हों। कोशिश यह भी होना चाहिए कि इस तरह का कोई हलफनामा भी निकाह रजिस्ट्रेशन के दौरान दोनों पक्षों से लिखवाया जाए, कि शादी के दौरान दहेज से लेकर फिजूलखर्ची तक कोई कवायद नहीं की जाएगी।
सामाजिक कार्यकर्ता सैयद फैज अली कहते हैं कि वे लंबे समय से स्वच्छता अभियान को लेकर काम कर रहे हैं।
शहर को साफ, स्वच्छ और सुंदर बनाने की मुहिम में उन्हें बेहतर सफलता भी मिली है। सरकारों और समाज ने उनके काम को सराहा, पसंद किया और प्रोत्साहित भी किया है। लेकिन आयशा मामले के बाद उन्हें महसूस हुआ कि महज घर, मुहल्ला और शहर साफ रखकर हम किसी स्वच्छता तमगे से खुश नहीं हो सकते। असल सफाई जहन की, दिमाग और दिल की है, जिसके जरिये जिंदगियों को सुंदर बनाया जा सकता है। दहेज और महंगी शादियों के नाम पर कई बेटियों की डोलियां न उठ पाने के हालात और दहेज की कभी खत्म न होने वाली भूख के चलते दम तोड़ती बेटियों को इंसाफ दिलाने के लिए किसी एक बड़ी मुहिम की जरूरत है। स्वच्छता का अभियान अब महज घरों के कचरों को निगम की गाडिय़ों में पहुंचाने, मुहल्ले की सफाई रखने और डस्टबीन में गीला-सूखा कचरा रखने से पूरी नहीं होगी।
अब जरूरत लोगों के मन पर छाई लालच की गहरी परत को साफ करने की है। इसके लिए शुरूआत जल्दी ही की जाएगी। शुरूआत खुद से होगी, इसका दायरा समाज और शहर से निकलकर देशभर में पहुंचाने की नीयत है। आगे जुडऩे वाले लोगों के साथ इस काम को दुनिया के दूसरे देशों तक भी पहुंचाए जाने की कोशिश की जा रही है। वरिष्ठ पत्रकार मुशाहिद सईद खान और जफर आलम खान कहते हैं कि सरकारों के भरोसे किसी सुविधा की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन अपने आसपास फैली मुश्किलों को दूर करने के लिए खुद हमें ही आगे आना होगा।
दोनों पत्रकार लंबे समय से ऐसी लड़कियों के शादी समारोह का बहिष्कार कर रहे हैं, जिनमें बड़े भोज, भव्यता और दिखावा शामिल होता है। अपने तौर पर चलाई गई इस मुहिम को वे आगे बढ़ाते हुए अपने मित्रों, साथियों, रिश्तेदारों तक पहुंचाने में कामयाब हुए हैं। आगे कोशिश यह है कि यह दायरा बढ़ते हुए समाज के हर उस शख्स तक पहुंचे, जो महंगी शादियों और दहेज के मुखालिफ खड़े होने की नीयत तो रखता है, लेकिन खुद को अकेला महसूस करता है।
एमटीएफसी के चैयरमेन मोहम्मद तारीक न किसी पहचान के मोहताज हैं और न ही आर्थिक रूप से किसी कमी के शिकार। दहेज विरोध और महंगी शादियों का बहिष्कार का परचम उठाए बरसों से चल रहे हैं। जब उनकी बेटी के निकाह का मौका आया तो लाख मलानतें और उलाहने सुनने के बाद भी उन्होंने सादगी को आगे रखा। मस्जिद में निकाह और घर से चंद रिश्तेदारों की मौजूदगी में बेटी की बिदाई कर उन्होंने एक सामाजिक संदेश देने की कोशिश की। दोस्तों, रिश्तेदारों और मिलने-मिलाने वालों की तरफ से शिकायतों की बड़ी फेहरिस्त आई, लेकिन उन्होंने अपने इरादों को बदले बगैर अपने इरादों को मजबूत रखते हुए कहने से ज्यादा करने की तहरीर को पूरा किया।
पीढिय़ों से शादी-ब्याह की रस्मों को अंजाम देने के लिए जाने जाने वाले पं. पंकज शर्मा हमेशा से दहेज प्रथा का विरोध करते आए हैं।
दादा और पिता से मिले संस्कारों को वे हर उस महफिल या समारोह में सामने रखने से गुरेज नहीं करते, जहां दहेज या मंहगे आयोजन की कहानी को बल दिया जा रहा होता है। किसी के बुलावे पर पहले तो जाने से इंकार होता है, लेकिन अगर ऐसे किसी आयोजन में शामिल होने की उनकी शर्त होती है कि उनकी दहेज विरोधी बातों को सुनने की हिम्मत सभी मेहमानों को करना होगी। शर्त यह भी होगी कि उनकी बातों से मीनमेख निकालने का अधिकार महज उसी को होगा, जो उनके विचारों से सहमति रखता हो।
खान आशु