जदयू के बागी विधायकों को तारीख पर तारीख दी जा रही है. बागी नेता ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू का आरोप है कि विधानसभा अध्यक्ष जदयू प्रमुख के दबाव में काम कर रहे हैं. लगता है, उन्होंने यह मन पहले ही बना लिया है कि क्या करना है. दूसरी तरफ़ श्रवण कुमार कह रहे हैं कि बागियों के पास कोई ठोस आधार नहीं है, इसलिए उन्हें और मौक़ा न देते हुए उनके ख़िलाफ़ फौरन कार्रवाई करनी चाहिए. कुछ इसी तरह की भाषा नीतीश कुमार भी बोल रहे हैं. उन्होंने कहा कि पार्टी से बगावत करने वालों को सबक सिखाया जाना चाहिए, ताकि भविष्य के लिए उदाहरण बने. विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू, राहुल कुमार, नीरज बबलू और रवींद्र राय की सदस्यता समाप्त करने का मामला फिलहाल स्पीकर के पास है. उक्त विधायक पार्टी के निर्देश एवं व्हिप का उल्लंघन करके निर्दलीय उम्मीदवारों के प्रस्तावक बने और उन्हें वोट दिए. नीतीश ने कहा, मैंने सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग पढ़ी है. उन्हें वहां से भी राहत नहीं मिलने वाली. बागियों को मालूम होना चाहिए कि उन्हें न तो थैली वाले (राज्यसभा चुनाव के निर्दलीय प्रत्याशी) बचा पाएंगे और न भाजपा वाले.
नीतीश कुमार भले ही दावा करें, पर उनका उपर्युक्त मंतव्य पूरी तरह ग़ैर संवैधानिक एवं प्रासंगिक विधिक प्रावधानों के विपरीत है. दरअसल बड़े नेताओं, विशेषकर सत्ता से जुड़े नेताओं की परेशानी यह है कि वे स्वयं को सर्वज्ञानी समझ बैठते हैं और उनके राजनीतिक अथवा विधिक सलाहकर भी वही बात बताते हैं, जो उन्हें पसंद हो. पता नहीं नीतीश कुमार सुप्रीम कोर्ट की किस रूलिंग (नियम) का हवाला दे रहे हैं, किंतु प्रसंगवश उनकी सुविधा एवं जानकारी के लिए यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि संविधान की दसवीं अनुसूची (दल परिवर्तन के आचार पर निर्रहता के बारे में उपबंध) के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय का अद्यतन एवं अंतिम प्रासंगिक न्याय-निर्णय न्यायमूर्ति ए कबीर एवं न्यायमूर्ति टी एस थॉमस द्वारा कर्नाटक से संबंधित केस संख्या-4444-76 (2011) बालचंद्र एम जानकी होली वगैरह बनाम बी एस येदियुरप्पा वगैरह के मामले में 13 मई, 2011 को दिया गया (2011, 750-पृष्ठ एक). यह वर्तमान में बिहार से संबंधित ज्ञानू सिंह वगैरह के मामले में न स़िर्फ अत्यंत प्रासंगिक है, बल्कि इसी न्याय-निर्णय को इस मामले में लागू करना क़ानूनी एवं संवैधानिक बाध्यता है. यहां यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद-141 के अनुसार उपर्युक्त न्याय-निर्णय को क़ानून का दर्जा प्राप्त है.
दल बदल क़ानून की व्याख्या एवं विश्लेषण करते हुए अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक के तत्कालीन बालचंद्र एन जानकी होली सहित भाजपा के 13 विधायकों की सदस्यता रद्द करने संबंधी तत्कालीन स्पीकर का आदेश निरस्त कर दिया था. प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि कर्नाटक का मामला बिहार के वर्तमान मामले से अधिक गंभीर था, क्योंकि बालचंद्र एम जानकी होली एवं अन्य कथित बागी विधायकों ने राज्यपाल को लिखकर दिया था कि उन्होंने तत्कालीन येदियुरप्पा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है. अब इस बात का विश्लेषण आवश्यक एवं प्रासंगिक है कि दसवीं सूची के प्रावधानों के आधार पर किन परिस्थितियों में सदस्यता समाप्त की जा सकती है. संविधान की दसवीं अनुसूची के 2 (1)(क) एवं (ख) में निरर्हता का प्रावधान है, जिसके तहत दो ही स्थितियों में सदस्यता समाप्त की जा सकती है. पहला यह कि संंबंधित सदस्य ने स्वेच्छा से पार्टी छोड़ी है और दूसरा यह कि उसने सदन के अंदर पार्टी व्हिप का उल्लंघन किया हो. लेकिन, वर्तमान मामले में विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू एवं उनके 17 साथियों में से किसी ने न तो स्वेच्छा से दल छोड़ा है और न सदन के अंदर पार्टी के निर्देशों-व्हिप का उल्लंघन किया है. सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त न्याय-निर्णय एवं नियमन के आलोक में ऐसे मामलों में किसी तरह के अगर-मगर अथवा व्यक्तिगत धारणा की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती. इसी पृष्ठभूमि में संसदीय कार्य मंत्री श्रवण कुमार द्वारा विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष दिया गया आवेदन पूरी तरह उनकी व्यक्तिगत धारणा पर आधारित है, न कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप.
उनका मुख्य तर्क हैं कि कथित बागी विधायकों द्वारा राज्यसभा निर्वाचन में निर्दलीय प्रत्याशियों के पक्ष में मत दिया जाना स्वेच्छा से दल छोड़ने के समान है. यह उनकी व्यक्तिगत धारणा अथवा वरिष्ठ नेताओं के दबाव में लिया गया ़फैसला हो सकता है, किंतु क़ानून एवं सुप्रीम कोर्ट के अद्यतन न्याय-निर्णय के आलोक में उनकी धारणा अथवा पहल पूरी तरह से ग़ैर संवैधानिक एवं ग़ैर क़ानूनी है. विशेषकर तब, जबकि निर्वाची पदाधिकारी ने निर्वाचन तिथि के दो दिन पूर्व 17 जून, 2014 को ही भारत के चुनाव आयोग द्वारा जारी प्रेस नोट सभी दलों को उपलब्ध कराते हुए अवगत करा दिया था कि राज्यसभा निर्वाचन में पार्टी के उम्मीदवार को मत देने के मामले में दसवीं सूची के प्रावधान लागू नहीं होते हैं.
इस प्रेस नोट में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुलदीप नैयर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में दिए गए न्याय-निर्णय का हवाला भी दिया गया था (एआईआर-2006-एससी 3127). इसके बावजूद संसदीय कार्य मंत्री श्रवण कुमार द्वारा विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष याचिका दायर करना और उस याचिका को अध्यक्ष द्वारा स्वीकार कर लेना अत्यंत आश्चर्यजनक है. इस मामले में प्रासंगिक निर्वाचन के निर्वाची पदाधिकारी की भूमिका तो और भी आश्चर्यजनक एवं विरोधाभासी है. एक तरफ़ तो उन्होंने आयोग द्वारा जारी प्रेस नोट जारी किया, जिसके अनुसार कथित बागी विधायकों द्वारा निर्दलीय प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करना दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के दायरे में नहीं आता. वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने बिहार विधानसभा के सचिव की हैसियत से कथित बागी विधायकों के विरुद्ध कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया.
अब इस संदर्भ में कुछ अन्य प्रासंगिक तथ्यों से अवगत करा देना अत्यंत आवश्यक है. उपर्युक्त संबंध में लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष शिवराज पाटिल द्वारा देश के विधानसभा अध्यक्षों एवं विधान परिषद के सभापतियों के सम्मेलन में दिए गए वक्तव्य में कहा था कि दसवीं अनुसूची के तहत राजनीतिक दलों के विधायिका से बाहर से संबंधित मामलों को नहीं देखा जाना चाहिए.
जनता दल के बंटवारे के संबंध में 1993 में ़फैसला देते हुए लोकसभा अध्यक्ष ने जो कहा था, उससे स्पष्ट है कि पार्टियों के मामले में उनके सदस्यों की दल विरोधी गतिविधियों के संबंध में पार्टी के सक्षम अधिकारियों को कार्रवाई करनी है और समुचित दंड भी उन्हें ही देना है, किंतु जनता दल (यू) के अधिकारियों ने दल के संविधान के प्रावधानों का इस्तेमाल न करके मामले को ग़ैर संवैधानिक तरीके से दसवीं अनुसूची की तरफ़ मोड़ दिया, जो किसी भी हालत में मान्य नहीं हो सकता है. प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि जनता दल (यू) के संविधान के मुताबिक पार्टी को निष्कासन तक का कठोरतम दंड देने का अधिकार है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत क़ानून के समक्ष समान अधिकार सभी नागरिकों का बुनियादी अधिकार है. वैसी स्थिति में कथित रूप से 18 बागी विधायकों के लिए अलग-अलग समय याचिका दायर करना और अलग-अलग मामलों में किसी के ख़िलाफ़ अधिक सजा की मांग करना, किसी के ख़िलाफ़ याचिका दायर न करना विशुद्ध रूप से उक्त बुनियादी अधिकार का उल्लंघन है, क्योंकि विधायक भी तो अंतत: नागरिक ही हैं.
जुर्म से ज़्यादा सजा पर बवाल
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