लोग गुजरात और दिल्ली पालिका चुनाव से आजिज़ आ चुके हैं । ये चुनाव नहीं दंगल है और वह भी जंगल का दंगल कहिए । आचारसंहिता की कोई भी मर्यादा आपको नजर आती हो तो देखिए। जहां नरेंद्र मोदी रहेंगे वहां क्या होगा । ढेरों उदाहरण हैं । बिहार में बोली लगाने वाले दृश्य को याद कीजिए फिर प. बंगाल में ‘दीदी ओ दीदी ‘ वाले गरिमाहीन मुहावरे को। नांदेड़ की सभा में पुलवामा पर नयी पीढ़ी से झोली में वोट डालने की अपील याद कीजिए या फिर किसी भी चुनावी सभा में रो देने वाली मुद्रा को। तो जहां नायक ऐसा होगा वहां बाकी की कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं । वही हो रहा है केजरीवाल ‘टिट फार टिट’ बन कर मैदान में खड़े हैं । संविधान, लोकतंत्र और आचारसंहिता की धज्जियां उड़ें तो उड़ें । नयी पीढ़ी के दिमागों में अंकित हो रहा है कि चुनाव ऐसे ही होते हैं । आप और हम इन दृश्यों और माहौल से आजिज आ सकते हैं । इसलिए वह टटोलिए जहां ऐसी फूहड़ता न मिले ।
इस बार की ताजगी आपको एक बार फिर ‘अभय दुबे शो’ में देखने को मिलेगी । ‘लाउड इंडिया टीवी’ के इस शो में अभय जी ने पिछली बार से आगे एक बार फिर प्रो. रजनी कोठारी को याद किया । सीएसडीएस, लोकायन, धीरू भाई शेठ इन सबका स्रोत प्रो कोठारी ही हैं । प्रो कोठारी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर और रोशनी इस कार्यक्रम में अभय जी ने डाली । इंदिरा गांधी और प्रो कोठारी के बीच की अंतरंगता और फिर दूरी की बात रोचक प्रतीत हुई । उनके एक अन्य लेख का अंतिम हिस्सा अभय दुबे ने पढ़ा जो मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर लिखा गया था । यह समझना बहुत जरूरी है । हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिकता के लिए इसे समझना इसलिए भी जरूरी है कि मुसलमानों की यह साम्प्रदायिकता हिंदू साम्प्रदायिकता को उकसाने वाली ज्यादा साबित होती रही है । हिंदू बहुलता का वर्चस्व और घमंड किसी भी दूसरी साम्प्रदायिकता को लेशमात्र भी बर्दाश्त नहीं कर सकता । इस कार्यक्रम को देखा जाए तो सीएसडीएस को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है । कम से कम उन लोगों के लिए बहुत जरूरी है जो अक्सर सीएसडीएस के सर्वे आदि के पक्षधर रहे हैं और उन्हें तार्किक मानते रहे हैं। कल का कार्यक्रम देख कर एक सुझाव देना चाहता हूं कि यदि अभय जी हर सप्ताह आधे कार्यक्रम में किसी गुजरे हुए महत्वपूर्ण शख्स के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपनी टिप्पणी करें तो नये लोगों के लिए बड़ा लाभप्रद रहेगा उदाहरण के तौर पर प्रभाष जोशी के साथ अभय जी ने जनसत्ता में काम किया है । नयी पीढ़ी नहीं जानती प्रभाष जी के बारे में । ऐसे ही वे तमाम शख्स जिनको अभय जी जानते रहे हैं । संतोष भारतीय जी से आग्रह है कि वे इस संबंध में अभय जी से विचार विमर्श करें । यदि ऐसा हुआ तो पत्रकारिता में आने वाली भावी पीढ़ी के लिए लाभप्रद होगा ।
आमतौर पर सिनेमा को आज भी अच्छी नजर से नहीं देखा जाता । मुझे सिनेमा में रुचि है तो अक्सर मुझे इस ताने का शिकार होना पड़ता है कि क्या बुढ़ौती में पिक्चरें देखते रहते हैं । और यह ऐरे गेरे लोग नहीं अच्छे पढ़ें लिखे विद्वान तक बोलते हैं । लेकिन जिनकी रुचि सिनेमा में है वे जरूर यूट्यूब पर ‘सत्य हिंदी’ का कार्यक्रम ‘सिनेमा संवाद’ देखते होंगे । इस बार का विषय काफी रोचक था ‘स्टार बड़ा या कहानी’ । ऐसे ही कुछ था । चर्चा रोचक थी । यह तो साफ है कि कहानी और कहानी का ट्रीटमेंट जितना अच्छा होगा फिल्म उतनी ही जानदार होगी । स्टार रहे न रहे । इधर रिलीज हो रही कई फिल्में ऐसी हैं जिनमें स्टार नहीं हैं लेकिन फिल्मों ने नाम कमाया है । ‘भेड़िया’ फिल्म कितनी ही अच्छी हो लेकिन वरुण धवन को पसंद न करने वाले नहीं देखेंगे । तर्क है कि एक फिल्म नहीं है देखी तो क्या हुआ । बिना स्टारों वाली ‘चुप’ फिल्म को दस में से आठ स्टार मिल सकते हैं । अजय ब्रह्मात्मज और भेड़िया फिल्म के कहानीकार इस कार्यक्रम में मौजूद थे दोनों ने जो कहा अपनी अपनी जगह रोचक था । एक कार्यक्रम अमिताभ को इस विषय पर करना चाहिए कि समाज के लिए दरअसल सिनेमा क्यों अनिवार्य है देखना । आखिर कौन सी वह दृष्टि मिलेगी समाज को जिससे वह फिलहाल वंचित है ।
मुकेश कुमार ने ‘ताना बाना’ का पचासवां अंक प्रस्तुत किया , उन्हें बधाई । मुख्य विषय उर्दू की बढ़ती लोकप्रियता पर था । मजेदार लगा । कार्यक्रम आधा ही देखना हुआ ।
दरअसल हर रविवार हमें राजनीति में बढ़ती फूहड़ता से कुछ अलग तो ले ही जाता है । सोशल मीडिया में जहां भी देखिए सब जगह राजनीति का वाहियतपन छाया हुआ है । चर्चाओं में रोचकता इसलिए घटती जा रही है कि फालतू की बातों को एक एक घंटे का विषय बना कर एक ही पक्ष के लोगों को बैठाया जाता है । इधर के पत्रकारों में कोई दक्षता नहीं दिखती । कुछ तो ऐसे हैं जो यूंही बिना तैयारी के बोलने चले आते हैं । एंकर भी ज्यादा होमवर्क करते नहीं दिखते । इसलिए हम कुछ नये की तलाश में रहते हैं । काफी समय पहले लोग कहा करते थे कि अब राजनीति बहुत गंदी हो गई है । अब तो ऐसे लोगों का क्या हाल होगा आप समझ सकते हैं लेकिन मोदी ने आकर जिस राजनीति को शुरु किया उसने देश का पूरा मिज़ाज ही बदल डाला। लेकिन फिर भी आर पार की लड़ाई कहीं नहीं दिखती । वजह, कि पूरे देश में संभ्रम का माहौल बना हुआ है । मोदी के तथाकथित अच्छे की धुंध है तो देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का छिन्न भिन्न होता ताना बाना भी इसी मोदी सरकार की उपज है । इसीलिए इस सरकार से नफ़रत भी चौतरफा है । इस वातावरण में द्वंद्व ही द्वंद्व है जिधर देखिए । गुजरात और दिल्ली में भाजपा और आप का चुनावी दंगल जंगल का सा बन गया है । हम निरपेक्ष रह कर भी नहीं रह सकते हैं । क्या इसी को महाभारत की नियति कहते हैं ।
रवीश कुमार के चाहने वाले टकटकी लगाए हैं एनडीटीवी में क्या होता है । यह भी अजीब सा राग है भई । गजब है सब कुछ ।