यह शीर्षक रवीश कुमार के लेख का है । रवीश कुमार पर मेरे पिछले लेख पर कई प्रतिक्रियाएं मिलीं। कुछ मित्र हैं जो मेरे लेख को अपनी फेसबुक वॉल पर भी डालते हैं । स्वयं रवीश ने भी लंबी चौड़ी प्रतिक्रिया दी । बल्कि कहूं कि एक अच्छा संवाद हुआ हमारा व्हाट्सएप पर । ऐसा संवाद अन्य लोगों से भी होता रहता है । पुण्य प्रसून वाजपेई से भी आज के हालात पर संवाद हुआ था । रवीश ने कई बातें ऐसी कहीं कि जिन पर हर किसी को सोचना चाहिए । जो कुछ उन्होंने व्यक्तिगत कहा उसे तो यहां कहने की आवश्यकता नहीं। पर उन्होंने मौजूदा वक्त में पत्रकार और उसके ‘कमिटमेंट’ में सामने आ रहीं परेशानियों और जटिलताओं के प्रति जो चिंता व्यक्त की है उस पर गौर किया जाना चाहिए । जहां सिस्टम और संसाधन समाप्त प्राय हों तो ऐसे में आपसे कैसी भी उम्मीद बेमानी है । पिछले पांच सात सालों से सतत एक ही भूमिका में पत्रकारिता-रत रहना और आते आते यहां तक पहुंच कर खड़े हो जाना जहां आपसे (केवल आपसे ही) एक तरफ जनता जनार्दन उम्मीद बांधे बैठी हो और दूसरी तरफ संसाधन इतने सीमित कर दिए गए हों जहां कि ‘जैसे आपको किसी कमरे में बंद कर दिया जाए । उस कमरे में एक भी किताब न हो और आपसे रोज कहा जाए कि साहित्य पर छः हजार शब्द लिखें । केवल पन्ना हो और चार कलम ।’ यह पीड़ा है एक ईमानदार और ‘कमिटेड’ पत्रकार की । रवीश कुमार का लेख ‘सिर्फ उम्मीद से पत्रकारिता नहीं होती’ पढ़िए । (जिस मित्र को चाहिए मैं लिंक भेज सकता हूं) ।
दोस्तो, एक तरफ इस अनैतिक होते समाज में जीवट पत्रकार की यह पीड़ा है तो दूसरी ओर अधिसंख्य पत्रकार ऐसे भी हैं जिन्हें आप भांड नहीं तो ‘भड़ासू’ पत्रकार तो कह ही सकते हैं । मैं गोदी मीडिया के एंकरों की बात नहीं कर रहा , यूट्यूब पर चल रही ‘वेबसाइट्स’ पर आने वाले पत्रकारों की बात कर रहा हूं । खबर (जानकारी), टिप्पणी और विश्लेषण तीनों चीजें अलग हैं । कोई भी रवीश की इस बात से सहमत होगा कि यूट्यूब पर आने वाले पत्रकार जानकारी नहीं दे रहे ,महज टिप्पणी कर रहे हैं । टिप्पणी तो कोई भी कर सकता है । ऐसे पत्रकारों से उस दिन से ‘चिढ़’ हो गई है जिस दिन से यूपी चुनाव के नतीजे आते हैं । चिढ़ और नफरत में भेद कीजिए । होना तो यह चाहिए था कि ऐसे पत्रकारों को कुछ समय के लिए घर बैठा दिया जाता । पर नहीं उन्हें अभी तक ‘घसीटा’ जा रहा है । ऊब होने लगी है । इसलिए यह विकल्प हम सबके पास है कि ऐसे लोगों को देख कर अपना मूड खराब करने से बचें। फिर भी इन्हीं में से कई कार्यक्रम ऐसे भी निकल आते हैं जिनमें ताजगी का आलम होता है । कल ही देखा भगत सिंह पर आयी इरफान हबीब की पुस्तक ‘इंकलाब’ पर आशुतोष और आलोक जोशी की बातचीत, या रात को साहित्यिक आनलाइन पत्रिका ताना-बाना । या ‘वायर’ पर आरफा खानम शेरवानी रमजान की खुशमिजाजी में हमें सैर कराने दिल्ली की जामा मस्जिद ले गयीं । हसीन शाम को रोशनाई में नहाती जामा मस्जिद और वहां की चहल-पहल । रोजा खोलते लोग । एक अलग ही खुशनुमा माहौल था । सिसकती हुई पत्रकारिता से बेहतर है यह सब देखा जाए । पर कुछ लोग अभी तक नहीं समझ रहे कि पैनलिस्ट की भीड़ जुटा कर डिबेट का ‘मनोरंजन’ ज्यादा समय तक नहीं चल सकता। जिग्नेश मेवानी के छूटने पर नीलू व्यास ने भीड़ जुटा ली । उसमें किसको क्या कहना था। केवल अपनी भड़ास निकालने के सिवाय। वहीं हुआ । शुरूआत अशोक वानखेड़े से हुई । मरे हुए प्रोग्राम लगते हैं सब। होना यह चाहिए था कि केवल विभूति नारायण राय से लंबी बातचीत होती इस मसले पर ।
संतोष भारतीय के साथ अभय कुमार दुबे संतोष जी के उठाये मुद्दों या प्रश्नों पर विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । वहां महज टिप्पणी नहीं होती । मंथन होता है । वे हमेशा कहते हैं यदि मैं गलत हूं तो बताया जाए । उस विश्लेषण में उनकी टिप्पणियां मार्के की होती हैं । इस बार उन्होंने मोदी जी के बहुरूप को व्याख्यायित किया । मोदी ने कहां कहां से सीख ली, कहां खुद में परिवर्तन किया । उनके कार्यक्रम का समय छोटा पड़ता है , क्योंकि बीच बीच में संतोष जी की भी टिप्पणियों के साथ सवाल होते हैं । एक बार अभय जी से उनकी दिनचर्या और खान-पान पर भी सवाल किया जाए । उनका माथा और सपाट सिर में कितनी मेधा है और उसके आधार का स्रोत क्या है यह कौतूहल भी शांत होना चाहिए । अभय जी जैसे और भी कई हैं जो बोलते हैं तो सुनते जाने की इच्छा होती है। साहित्यकार और आलोचक अशोक वाजपेई बहुत अच्छे वक्ता हैं । उन्हें जब भी मंच पर सुनिए तो नामवर सिंह की याद दिलाते हैं । सतत , प्रवाह पूर्ण । आजकल वे ताना-बाना कार्यक्रम में अपनी बात संक्षेप में कहते हैं ।
आजकल चर्चाओं का सबसे ‘सस्ता’ विषय है कांग्रेस । कोई भी ‘इल्लू पिल्लू’ कांग्रेस पर खूब बोल सकता है । अभय दुबे ने तो कहा है कि कांग्रेस पर अनंतकाल तक चर्चा की जा सकती है । रशीद किदवई ने कांग्रेस पर चर्चा करते हुए कहा कि लोग भी उदासीन हो गये हैं । कितनी भी महंगाई हो ।अब चर्चा का विषय तो भारत की जनता और उसकी ‘साईकी’ होनी चाहिए । लोगों की उदासीनता का कारण क्या है, यह चर्चा का विषय होना चाहिए । जिस प्रजा को सत्तर सालों में हम नागरिक नहीं बना पाए , उसको यों ही कोसना आजकल खूब हो रहा है । हर किसी की जुबान पर है ‘जनता ही ऐसी है’ । वह क्यों ऐसी है यह भी अनंत काल की चर्चा समझिए। न हो तो प्रबुद्ध जन इस पर सीरीज चलाएं । उसमें मार्कंडेय काटजू की बात भी जोड़ लें कि हिंदुस्तान की नब्बे परसेंट जनता मूर्ख है । मोदी इसी जनता के भगवान हैं ।
आशुतोष के लिए इंटरव्यू अच्छे लगते हैं । सच कहा जाए तो मोदी ने सबसे विषय छीन कर उन्हें अपनी लाइन दे दी है । हर रोज मोदी और उनकी सरकार का कोई निर्णय चर्चा का विषय बनता है । जिस पर आप भौंकते रहिए हाथी की चाल वैसी की वैसी रहेगी ।
अभी भी पृष्ठभूमि में ऐसा कुछ नजर नहीं आता कि मोदी के खिलाफ व्यूह रचना जैसा कुछ विशेष चल रहा हो । दिखता तो कहीं कुछ नहीं । बौद्धिक समाज अपने ‘ब्राह्मणत्य’ से नीचे नहीं उतरना चाहता । सड़कें सूनी हैं । सारे राजनीतिक दल स्वयं में गुत्थमगुत्था हैं । आम आदमी पार्टी की फुर्तीली चाल और जल्दबाजी देख कर डर लगने लगा है । बहरहाल , भारत की कुंडली में मोदी का सितारा है ।
अंत में रवीश कुमार से एक ही निवेदन है कि अपनी सारी ईमानदार मेहनत के बरक्स एक बार एकांत में इस पर जरूर सोचें कि आपकी प्रस्तुति ग्रासरूट लेवल के व्यक्ति में कितनी समझाइश पैदा कर रही है । वह निर्धन है, अनपढ़ है, गंवार है, भोला है और किसी के भी बहकावे में आ जाने के लिए तैयार बैठा है । आपके दर्शक और श्रोता पढ़े लिखे फेसबुकिया हैं । नौजवान व्हाट्सएप मैसेजेस पर तमाम समझाइश के बाद भी लगा है । इसलिए कृपया उसे ‘टच’ करते हुए मुद्दे उठाएं और प्रस्तुतिकरण को सरल और हौले हौले करें । उम्मीद से पत्रकारिता नहीं होती , लेकिन बे- उम्मीद भी नहीं हुआ जा सकता न ।
सिर्फ उम्मीद से पत्रकारिता नहीं चलती …..
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