जॉर्ज फर्नांडी़ज ने शानदार ज़िंदगी जी. जी तो वह आज भी रहे हैं, लेकिन वह शानदार ज़िंदगी नहीं है. विवाद उनके साथ हमेशा जुड़े रहे, क्योंकि वह संघर्षशील और गतिमान व्यक्ति हैं, पर उन विवादों ने जॉर्ज फर्नांडी़ज के क़द को बड़ा बनाया. विवाद उनके साथ आज भी जुड़ा है, पर यह उनके क़द को बड़ा नहीं बना रहा, बल्किउनसे जुड़े लोगों के क़द को छोटा बना रहा है. जॉर्ज आज बीमार हैं, बहुत ही बीमार. वह अल्ज़ाइमर नाम की बीमारी से ग्रसित हैं. इस बीमारी में धीरे-धीरे व्यक्ति अपनी याददाश्त खोने लगता है. इस बीमारी के छ: चरण होते हैं. छठे चरण में व्यक्ति खाना-पीना तक भूल जाता है. इस बीमारी का सातवां चरण नहीं है. जॉर्ज छठे चरण की गिरफ्त में हैं. वह विवादों से अनजान हैं. उन्हें लेकर उठ रही चिंताओं का उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा, क्योंकि उनके मस्तिष्क ने उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिया है. यह विडंबना है कि जिस मस्तिष्क ने उन्हें देशव्यापी ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहचान दी, वही मस्तिष्क अब धीरे-धीरे निष्क्रिय होने लगा है.
जॉर्ज के साथ विवाद इसलिए नहीं जुड़ते थे कि वह उन्हें ज़बरदस्ती जोड़ना चाहते थे, बल्कि इसलिए जुड़ते थे, क्योंकि जॉर्ज सचमुच कुछ चीजें बदलना चाहते थे. आपातकाल में जॉर्ज भूमिगत रहे और उन पर इल्ज़ाम लगा कि वह डायनामाइट के ज़रिए रेल लाइनों को उड़ाना चाहते थे. यह केस बड़ौदा डायनामाइट कांड के नाम से मशहूर हुआ. आपातकाल के बाद जॉर्ज जेल में रहते हुए चुनाव जीते और मोरारजी मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री बने.
तब जॉर्ज की उम्र तैंतीस साल थी, जब अपने मस्तिष्क और जुझारू व्यक्तित्व के सहारे सन् 63 में उन्होंने सारी मुंबई को ठप कर दिया था. बसें, टैक्सियां, रेलें, सब रुक गई थीं. मुंबई कामगारों की यूनियनों के वह सबसे प्यारे नेता बन गए थे. उन दिनों मुंबई के बेताज बादशाह एस के पाटिल थे, उनकी मर्ज़ी के बिना राजनीति में पत्ता नहीं हिलता था. इन एस के पाटिल को सन् 67 के आम चुनाव में जॉर्ज ने हरा दिया. इस जीत ने जॉर्ज को पूरे देश का हीरो बना दिया. अपने गुरु डॉ. राम मनोहर लोहिया की तरह जॉर्ज भी इंदिरा गांधी के घनघोर आलोचक ही नहीं, प्रखर विरोधी थे. उन्होंने हर उस व्यक्ति का साथ दिया, जो इंदिरा गांधी के विरोध में आवाज़ उठाता था. जयप्रकाश आंदोलन में तो वह शामिल थे ही, पर उस दौरान तीन दिनों की मशहूर रेल हड़ताल के वह मुख्य नेता थे. तीन दिनों तक रेलें नहीं चलीं, क्योंकि रेल कर्मचारियों ने अपने नेता जॉर्ज फर्नांडी़ज का सौ प्रतिशत साथ दिया था.
जॉर्ज के साथ विवाद इसलिए नहीं जुड़ते थे कि वह उन्हें ज़बरदस्ती जोड़ना चाहते थे, बल्कि इसलिए जुड़ते थे, क्योंकि जॉर्ज सचमुच कुछ चीजें बदलना चाहते थे. आपातकाल में जॉर्ज भूमिगत रहे और उन पर इल्ज़ाम लगा कि वह डायनामाइट के ज़रिए रेल लाइनों को उड़ाना चाहते थे. यह केस बड़ौदा डायनामाइट कांड के नाम से मशहूर हुआ. आपातकाल के बाद जॉर्ज जेल में रहते हुए चुनाव जीते और मोरारजी मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री बने. जॉर्ज के पहले फैसलों में आईबीएम और कोका कोला को भारत से हटाना था. जॉर्ज ने उन्हें सफलतापूर्वक भारतीय अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया. भारतीय जनसंघ से जनता पार्टी में शामिल हुए अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ वह दोहरी सदस्यता की बहस में उलझे तथा उसे अपने साथियों के साथ इतनी दूर ले गए कि जनता पार्टी टूट गई. उनका कहना था कि संघ का सदस्य रहना दोहरी सदस्यता है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता. दूसरी बार जॉर्ज वी पी सिंह मंत्रिमंडल में रेल मंत्री बने.
जॉर्ज ने जिन अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी का जनता पार्टी में विरोध किया था, उन्हीं के साथ वह मंत्री बने. निशस्त्रीकरण के घनघोर समर्थक जॉर्ज ने पोखरण में परमाणु बम विस्फोट का ज़ोरदार समर्थन किया. उन्होंने खुलेआम चीन को भारत का शत्रु नंबर एक कहा. जॉर्ज रक्षा मंत्री रहते हुए जब अमेरिका गए तो उनकी जामा तलाशी हुई तथा दूसरी बार ब्राज़ील जाते हुए दो हज़ार तीन में इसी तरह उनकी तलाशी अमेरिकंस ने ली. दरअसल दो हज़ार में दो बार डलास एयरपोर्ट पर उनकी तलाशी ली गई. बाद में स्ट्रोब टालबोट ने जॉर्ज से सार्वजनिक माफी भी मांगी. जॉर्ज ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम का खुला समर्थन किया. इसी के साथ जॉर्ज ने चीन के खिला़फ तिब्बती शरणार्थियों का, जो चीन के खिला़फ लड़ रहे हैं तथा बर्मा के विद्रोहियों का भी समर्थन किया.
जॉर्ज ऑपरेशन वेस्ट एंड में भी फंसे. जॉर्ज को मंत्रिमंडल से इस्ती़फा तक देना पड़ा. जॉर्ज के खिला़फ दस अक्टूबर दो हज़ार छ: को सीबीआई ने बराक मिसाइल स्कैंडल में एक एफआईआर दर्ज की. उनके साथ सीबीआई ने उनकी साथी जया जेटली और भूतपूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल सुशील कुमार को भी अनियमितता के लिए अभियुक्त बनाया. हालांकि जॉर्ज ने कहा कि तब के रक्षा सलाहकार डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम की सलाह के बाद ही बराक मिसाइल खरीदने की अनुमति दी गई थी. जॉर्ज की ज़िंदगी विवादों और कहानियों की किताब है. वह इस मामले में दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी मां और भाइयों के अलावा उन्हें पत्नी और बेटे का प्यार नहीं मिला. तीस साल तक वह लैला कबीर से अलग रहे. इन तीस सालों में जॉर्ज का परिवार जया जेटली और उनके कामरेड रहे. लेकिन अब जब जॉर्ज को अल्ज़ाइमर की बीमारी हो गई तो उनका तीस साल का परिवार उनसे अलग हो गया और उनकी क़ानूनी पत्नी अपने बेटे के साथ अमेरिका से लौट आईं और जॉर्ज को अपने क़ब्ज़े में ले लिया.
जॉर्ज ने सारी ज़िंदगी अपने साथियों के सामने अपनी पत्नी लैला कबीर के स्वभाव, उनकी आदतों और अपने प्रति उनके असंवेदन व्यवहार का रोना रोया. इसके गवाह उनके सारे दोस्त और कार्यकर्ता हैं. बस जॉर्ज एक ही हिम्मत नहीं कर पाए, अपनी पत्नी से तलाक लेने की हिम्मत. अगर वह तलाक ले लेते तो आज उनका तीस साल का परिवार उनके साथ होता. अब वह अपनी तीस साल से अलग रही क़ानूनी पत्नी के हाथों में हैं. उन्हें उनके सरकारी मकान से, जहां जॉर्ज ने कई दशक गुज़ारे, अलग एक अंजान मकान में रखा जा रहा है. अल्ज़ाइमर के डॉक्टरों का कहना है कि इसके मरीज़ों को उनकी पहचान वाली जगहों और पहचान वाले व्यक्तियों से दूर नहीं करना चाहिए. लेकिन आज जॉर्ज सबसे दूर हैं. देश के सभी राजनेताओं को जॉर्ज के जीवन से सीख लेनी चाहिए. एक बेरहम सच्चाई है कि जब आपका शरीर या मस्तिष्क काम करना बंद कर दे तो आप दूसरों के क़ैदी बन जाते हैं. आज जॉर्ज की कोई मदद नहीं कर पा रहा, वैसे ही बहुत से लोगों की स्थिति से हम अनजान हैं, जिन्होंने देश की अच्छी हालत के लिए संघर्ष किया, जब उनकी हालत खराब होती है तो देश के लोग उनका साथ नहीं देते.
कलम लिखते हुए कांप जाती है, पर लिखना पड़ता है कि जो हीरो की तरह जिए, उन्हें हीरो की तरह ही जाना चाहिए. जॉर्ज एक हीरो की तरह हमेशा जिए, आज उनकी हालत पर लोग संवेदना प्रकट कर रहे हैं. जॉर्ज अगर ज़रा भी सामान्य हालत में होते तो ऐसी संवेदनाओं का विरोध करते. जॉर्ज को अब न परेशान करना चाहिए और न ही उनकी हालत पर दु:ख मनाना चाहिए. जॉर्ज से हमें कहना चाहिए कि जॉर्ज आप जाइए, हमारे मन में आप हमेशा हीरो की तरह ज़िंदा रहेंगे, क्योंकि आप जैसा कोई और दूसरा है ही नहीं.