भारत में रोज़गार हमेशा से एक बड़ी समस्या रही है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, यहां हर साल एक करोड़ से ज्यादा नए लोग देश के कार्यबल (वर्क फोर्स) से जुड़ते हैं. ज़ाहिर है इनके लिए रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराना कोई आसान काम नहीं है. देश में रोज़गार उपलब्ध कराने का मसला हर पार्टी और सरकार का मुख्य मुद्दा रहा है. 2014 के आम चुनाव में भी रोज़गार मौजूदा सरकार का मुख्य मुद्दा था. अपने चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोगों को, खास तौर पर युवाओं को, यह यकीन दिलाया था कि यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो उनके लिए रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे और हर किसी को अपने ही क्षेत्र में रोज़गार के अवसर मिल सकेंगे. जनता ने उनके वादों पर भरोसा करते हुए पूर्ण बहुमत देकर उनकी सरकार तो बना दी, लेकिन देश का प्रधान बनते ही वे उन वादों को भूल गए. रोज़गार और बेरोजगारी के संबंध में भारत सरकार की संस्थान लेबर ब्यूरो द्वारा कराए गए सर्वे के आंकड़े काफी निराशाजनक हैं. लेबर ब्यूरो के ताज़ा सर्वे के मुताबिक भारत की बेरोज़गारी दर पिछले पांच साल के अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है और 2009-10 के बाद इसमें लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है. बेरोजगारी में वृद्धि के ये रुझान सरकार के लिए चिंता की बात है क्योंकि इसकी वजह से मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रम कहीं न कहीं सवालों के घेरे में आ जाते हैं.
लेबर ब्यूरो के पांचवीं वार्षिक रोज़गार-बेरोज़गारी सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, देश में वर्ष 2015-16 में बेरोजगारी दर 5 प्रतिशत तक पहुंच गई है. यह बेरोजगारी दर वर्ष 2009-10 के बाद सर्वाधिक है. वर्ष 2009-10 में बेरोजगारी दर 9.3 प्रतिशत तक थी, जो 2011-12 में घट कर 3.8 प्रतिशत रह गई थी. मौजूदा सर्वे में एक चिंताजनक रुझान यह भी है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में बेरोजगारी दर में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है. सर्वे के मुताबिक, पुरुषों में बेरोजगारी दर 4 प्रतिशत है, जबकि महिलाओं में 8.7 प्रतिशत है. इसमें एक दिलचस्प बात यह है कि शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की बेरोजगारी दर कम है. ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं की बेरोज़गारी दर 7.8 प्रतिशत है, जबकि शहरी क्षेत्र में यह 12.1 प्रतिशत है. कुल मिला कर देखा जाए तो पिछले दो वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ी है, जबकि शहरी क्षत्रों में इसमें थोड़ा सुधार हुआ है. वर्ष 2013-14 में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 4.7 प्रतिशत थी जो 2015-16 में बढ़कर 5.1 प्रतिशत हो गई है. वहीं शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 2013-14 में 5.5 प्रतिशत थी, जो घटकर 2015-16 में 4.7 प्रतिशत हो गई है.
इस सर्वे में देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल किया गया है, जिसके तहत तकरीबन डेढ़ लाख से अधिक परिवारों से इसका सैंपल लिया गया है. ज़ाहिर है यह बहुत बड़ा सैंपल नहीं है, लेकिन इस सैंपल से जो नतीजे निकले हैं, वे बेरोजगारी से संबंधित दूसरे सूचकांकों के नतीजों के ही अनुरूप हैं. अब एक नज़र देश के विकास दर पर डालते हैं और यह देखने की कोशिश करते हैं कि क्या विकास दर में वृद्धि का संबंध रोज़गार से है या दोनों चीज़ें अलग-अलग हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015-16 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जबकि 2014-15 की पहली तिमाही में विकास दर 7.9 प्रतिशत थी. लेकिन रोज़गार बेरोजगारी सर्वे के आंकड़े यह साबित करते हैं कि इस विकास दर का सीधा फायदा गरीबों को नहीं हो रहा है. महिलाएं तो खास तौर पर इसमें पीछे हैं. अब यहां यह सवाल उठता है कि क्या सरकार अपना ध्यान केवल विकास पर केंद्रित कर बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर सकती है? अगर इस सर्वे के नतीजों को देखा जाए तो इसका जवाब नकारात्मक होगा.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में अपने संबोधन में मनरेगा को कांग्रेस की विफलता का स्मारक करार दिया था. लेकिन इस सर्वे के मुताबिक मनरेगा और प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम, स्वर्ण जयंती रोज़गार योजना जैसे कार्यक्रमों की वजह से 24 प्रतिशत परिवारों को फायदा हुआ है. वहीं पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मणिपुर और मिजोरम में मनरेगा से लाभान्वित होने वाले परिवारों की संख्या 70 प्रतिशत है. इन आंकड़ों से ज़ाहिर है कि इन कार्यक्रमों को केवल राजनीतिक विरोध करने के लिए ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता है.
सरकार के लिए चिंता की बात यह भी है कि सर्वे में बताया गया है कि देश में स्व-रोजगार करने वालों और वेतनमान पर नौकरी करने वालों की संख्या घटी है, जबकि अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) पर काम करने वालों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है. सर्वे के अनुसार स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त युवाओं को उनकी शिक्षा और कौशल के अनुरूप नौकरी नहीं मिलना भी बेरोजगारी बढ़ने की एक प्रमुख वजह है. अखिल भारतीय स्तर पर 58.3 स्नातक और 62.4 प्रतिशत स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों ने कहा कि उनकी योग्यता के लिहाज़ से उनके लिए नौकरी उपलब्ध नहीं है. ये आंकड़े जहां मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और कौशल विकास पर सवाल उठाते हैं, वहीं देश की शिक्षा व्यवस्था को भी कठघरे में खड़े करते हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के समर्थकों द्वारा यह प्रचारित किया जाता है कि निजीकरण ही देश की सभी समस्यों से निजात दिला सकता है. उसमें शिक्षा भी शामिल था. शिक्षा का भी निजीकरण किया गया, लेकिन उसका नतीजा सबके सामने है. इसी साल जनवरी में प्रकाशित एस्पाइरिंग माइंडस नेशनल एम्प्लायोब्लिटी रिपोर्ट के मुताबिक प्राइवेट कॉलेजों से पास होने वाले 80 फीसद इंजीनियर किसी काम के नहीं हैं यानी उन्हें नौकरी पर नहीं रखा जा सकता है.
बहरहाल, देश में आर्थिक विकास का दर पिछले कई वर्षों के मुकाबले अपने उच्चतम स्तर पर रहा है. भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. मोदी सरकार इसे अपनी कामयाबी के तौर पर पेश कर रही है, लेकिन लेबर ब्यूरो द्वारा जारी रोज़गार-बेरोजगारी के आंकड़े यह साबित करते हैं कि इस विकास में गरीबों और बेरोजगारों को उनका हिस्सा नहीं मिल रहा है. यही नहीं, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भुखमरी सूचकांक) में भी भारत सरकार के लिए बुरी खबर है. इस सूचकांक में 118 देशों की सूची में भारत अभी भी 97 वें पर है. इस सूची में भारत के कई पड़ोसी देश जैसे नेपाल (72वें), म्यांमार (75वें), श्रीलंका (84वें) और बांग्लादेश (90वें) की स्थिति काफी बेहतर है. पड़ोसी देशों में केवल पाकिस्तान ही है, जो भारत से नीचे 107 वें पायदान पर है. लिहाज़ा यह कहा जा सकता है कि सात प्रतिशत के ऊपर का विकास दर और दुनिया की सबसे तेज़ गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का कोई अर्थ नहीं है, जबतक देश 125 करोड़ की आबादी को रोज़गार के लिए दर-दर भटकना पड़े और उसके बाद भी उसकी एक बड़ी संख्या को भूखे रहना पड़े. ऐसे में सरकार को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.
बेरोजगारी दर प्रतिशत में
क्षेत्र पुरुष महिला ट्रांसजेंडर व्यक्ति
ग्रामीण 4.2 7.8 2.1 5.1
शहरी 3.3 12.1 10.3 4.9
कुल 4.0 8.7 4.3 5.0