आप जनता की भावनाओं का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए नहीं कर सकते. लोगों को बांटकर वोट हासिल करने की कोशिश एक क्षुद्र सोच है, जो कि लंबे समय तक काम नहीं कर सकती. मैं मानता हूं कि देश का युवा अब जागेगा और यह तय करेगा कि केवल वही लोग चुने जाएं, जो ज़िम्मेदार हों.
मुज़फ़्फ़रनगर दंगे कई मायनों में अलग हैं. भारत में वर्षों से छोटे-बड़े स्तर पर सांप्रदायिक टकराव होते रहे हैं. कई बार इन टकरावों ने बड़ा घृणित रूप अख्तियार कर लिया है. जैसे अहमदाबाद, जमशेदपुर व कुछ अन्य जगहों पर, लेकिन मुज़फ़्फ़रनगर दंगा इन सबसे अलग है. सबसे पहले, तो यह कोई हिंदू-मुस्लिम के बीच का मसला नहीं है. यह टकराव जाटों और मुसलमानों के बीच का है, जोकि पिछले कई दशकों से मुज़फ़्फ़रनगर के गांवों में साथ-साथ रह रहे हैं. उनके बीच पहले किसी तरह का कोई विवाद या मन-मुटाव नहीं हुआ. दूसरे, अहमदाबाद, जमशेदपुर या मुंबई जैसे शहरों में हुए दंगों से अगर तुलना करें, यहां पर स्थिति एकदम अलग है, क्योंकि इन दंगों में लोगों को सुरक्षा की तलाश में गांवों से बाहर शहर की ओर भागना पड़ा. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.
ऐसा क्यों हुआ? मैं किसी भी जांच के लिए मना नहीं कर रहा हूं, लेकिन यह तो एकदम स्पष्ट है कि इन दंगों के पीछे राजनीतिक दलों का ही हाथ है. आम धारणा है कि हमेशा की तरह भारतीय जनता पार्टी ने असामाजिक तत्वों को मुस्लिमों पर निशाना साधने के लिए उकसाया है. साथ ही धारणा यह भी है कि उत्तर प्रदेश में यहां की सरकार मुस्लिमों को सुरक्षा में देने में असफल रही है. यह स्थिति बड़ी ही दुखद है. हम सभी प्रशासनिक गतिविधियों से वाकिफ़ हैं. कहीं पर भी अगर दंगे हों और प्रशासन सजग हो तो वह दो घंटे से ज़्यादा नहीं चल सकते. और वह भी तब, जबकि दंगा बड़े पैमाने पर हो. यह दंगा कोई बड़ा दंगा नहीं था, फिर भी हज़ारों लोगों को अपने गांव छोड़कर और ज़रूरत का समान सिर पर लादकर शहर की ओर भागना प़डा. हमेशा की तरह एक बार फिर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया ग़ैर-ज़िम्मेदाराना ही रही.
अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दंगाग्रस्त इलाक़ों का दौरा न करते, तो विरोधी कहते कि वे तो उन इलाक़ों में गए ही नहीं. अब जबकि उन्होंने उन इलाक़ों का दौरा किया, तो भारतीय जनता पार्टी इसे सांप्रदायिक पर्यटन की संज्ञा दे रही है. क्या मुसलमानों को समाज से अलग कर दिया जाए? या बीजेपी यह कहना चाहती है कि मुसलमान प्रताड़ित होते रहें, उन्हें मौत के घाट उतारा जाए और कोई उनके पास न जाए. क्या देश के प्रधानमंत्री को वहां जाकर हालात का जायज़ा नहीं लेना चाहिए? वास्तव में बीजेपी अब अपना असली रंग दिखा रही है. नरेंद्र मोदी को पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना, जोकि खुद ही अपने को हिंदू राष्ट्रवादी कहते हैं, यह भी समूचे देश के लिए शुभ संकेत नहीं है, लेकिन जब कोई मुश्किल में पड़े मुसलमानों से मिलने के लिए जाता है, तो आप उसे सांप्रदायिक पर्यटन कहते हैं. इस पूरे प्रकरण में भारतीय जनता पार्टी एक ख़राब छवि के तौर पर उभर कर आई है. उत्तर प्रदेश के एक विधायक संगीत सोम, जिनके ख़िलाफ़ भड़ाकाऊ भाषण देने के कारण एफ़आईआर दर्ज हुई है, वह टीवी पर कहते हैं कि मैंने जीवन में कभी किसी को नहीं उकसाया. आप चाहें, तो मेरे भाषणों की जांच कर सकते हैं. मैंने कभी कोई उत्तेजक वक्तव्य नहीं दिया. उनकी बात सही हो सकती है, क्योंकि बीजेपी अब थो़डी अलग नीतियों पर चल रही है. अपने भाषणों में वे कोई ऐसी बात नहीं कहते, जिस पर आपको कोई आपत्ति हो, लेकिन कार्यशैली अलग है. वे ऐसे तत्वों को बढ़ावा देते हैं, जो हिंदू-मुस्लिमों को विभाजित करे. जो आक्रामक हो और मुसलमानों को प्रताड़ित करे. वे मुसलामन विरोधी तस्वीरों और पोस्टर के वितरण को बढ़ावा दे रहे हैं. यह कहना बहुत आसान है कि आप मेरे भाषणों पर गौर करिए, उन्हें रिकॉर्ड करवा लीजिए, मैं ऐसा कुछ नहीं कहता जोकि किसी के लिए अपमानजनक हो, लेकिन साथ ही वे ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं, जो अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाने वाली होती हैं. मैं उस जिलाधिकारी की बात पर हैरान हूं. एक अधिकारी टीवी पर बातचीत के दौरान कहता है कि आज़म ख़ान ने हमें आज्ञा नहीं दी, नहीं तो हम ज़रूर कार्रवाई करते. यह कोई तरीक़ा हुआ? ऐसे अधिकारी को सरकारी सर्विस नहीं करनी चाहिए. हां, यह बात सही है कि कई बार राजनीतिक दबाव होता है, लेकिन किसी नागरिक का जीवन उस दबाव से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है. ऐसे अधिकारी जोकि सरकारी दबाव नहीं झेल सकते, वे अधिकारी ऐसे संवेदनशील इलाक़ों में काम नहीं कर सकते.
जहां तक मेरी जानकारी है, मुज़फ़्फ़रनगर ऐसे दंगे का कभी भी गवाह नहीं रहा और वो भी खासकर गांवों में. मैं नहीं जानता कि प्रधानमंत्री इस दिशा में क्या क़दम उठाएंगे, लेकिन यह सबसे ज़रूरी समय है कि वे संबंधित लोगों, उत्तर प्रदेश प्रशासन के साथ-साथ एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर भाजपा से भी बात करें. आप इस देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? क्या आप चाहते हैं कि अगला चुनाव हिंदू-मुस्लिम के आधार पर लड़ा जाए. बीजेपी आख़िर क्या चाहती है?
मुझे लगता है कि अब जब आगामी लोकसभा चुनावों को तक़रीबन सात महीने बचे हैं, तब माहौल बद से बदतर होता जाएगा. मेरा मानना है कि तीसरे मोर्चे के नेताओं, जैसे-नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक को अब आगे आना होगा और एक मज़बूत फ्रंट बनाना होगा, जहां सांप्रदायिक ताक़तों का बोलबाला न हो. दुर्भाग्य से कांग्रेस को इस चुनाव में बहुमत नहीं मिलने वाला, क्योंकि यह सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी हुई है. बावजूद इसके, कोई ग़ैर-सांप्रदायिक सरकार सत्ता में आ सकती है, अगर आख़िरी व़क्त तक इस दिशा में प्रयास किए जाएं. तीसरे मोर्चे की सरकार ही संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को स्थापित कर सकती है. लोग इस पर गौर नहीं करते कि भले ही राजनीतिक दल अलग-अलग हों, लेकिन संविधान तो एक ही है. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी संविधान का अनुपालन किया था और उन्होंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की थी कि देश में मुस्लिम सुरक्षित रहें.
बेशक गोधरा कांड हुआ और प्रधानमंत्री व भाजपा नरेंद्र मोदी को हटाने में विफल रही. वास्तव में तब आडवाणी जी ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने मोदी को बचाया था. आज वे आडवाणी जी के ही विरोध में खड़े हो गए. सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि आप एक सरकार को अंध-राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं चला सकते. देश को सिद्धांतों पर चलना चाहिए और सिद्धांतों पर चलने का फल एक दिन में नहीं मिल सकता. हर कोई जल्दी में दिख रहा है और चुनावी माहौल इतना ख़राब होता जा रहा है कि यह काफ़ी दुखद स्थिति होगी, अगर देश जलने लगता है. सभी को बुद्धिमानी के साथ काम करना होगा. अगर मोदी प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है, लेकिन यह एक लोकतांत्रिक देश है और सबको अपनी सीमाओं में रहना चाहिए. आप जनता की भावनाओं का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए नहीं कर सकते. लोगों को बांटकर वोट हासिल करने की कोशिश एक क्षुद्र सोच है, जो कि लंबे समय तक काम नहीं कर सकती.
लोगों का मानना है कि देश की 60 से 70 प्रतिशत आबादी 40 वर्ष से कम आयु के लोगों की है. देश में युवाओं की संख्या बढ़ रही है. मैं मानता हूं कि देश का युवा अब जागेगा और यह तय करेगा कि केवल वही लोग चुने जाएं, जो ज़िम्मेदार हों. ग़ैर-ज़िम्मेदार लोग, जो अंध-राष्ट्रीयता में विश्वास करते हैं और संप्रदायों में बंटवारा करना चाहते हों, उन्हें नहीं चुनना चाहिए.