चुनाव परिणामों के बाद मीडिया को अपनी पीठ ख़ुद खुजाने या शर्मिंदगी को छिपाने के लिए नए बहानों की तलाश रहती है. अब राज्यवार विश्लेषण होंगे, उन पर तरह-तरह की टिप्पणियां आएंगी. रोचक समीकरणों और उलटफेरों की तलाश में लगे मीडिया को झारखंड के लोकसभा परिणामों में शायद सबसे बड़ी बात यही नज़र आए कि यहां से राज्य के सभी पूर्व मुख्यमंत्री लोकसभा के चुनाव जीत गए हैं. यहां से राज्य के सभी पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा और शिबू सोरेन चुनाव में सफल रहे. यह अजीब बात है कि देश के सबसे युवा राज्य की कमान संभाल चुके इन नेताओं में से एक भी राज्य की स्तर की राजनीति में जमे रहने का भरोसा नहीं दिखाया. इन परिणामों पर ध्यान दें तो इसकी वजह भी समझी जा सकती है. दरअसल झारखंड के परिणामोंमें कोई तयशुदा लहर नहीं नज़र आई. स्थानीय मुद्दों ने जीत-हार के समीकरण तय किए. हालांकि इन चुनाव परिणामों से इतना तो साफ हो ही गया है कि राज्य की जनता ने यूपीए की आपसी सिरफुटौव्वल के खिलाफ फैसला दिया है. इसके साथ ही इन परिणामों ने जल्द ही संभव विधानसभा चुनावों के लिए ज़मीन भी तैयार कर दी है.
दरअसल पिछले पांच सालों में झारखंड में कोई भी सरकार आपसी लड़ाई से अछूती नहीं रही है. चुनाव परिणाम इसी आपसी लड़ाई से तंग आई जनता का फैसला है. झारखंड की जनता तीखे फैसले देती है. 2004 के लोकसभा चुनाव में उसने उस सरकार के ख़िला़फ वोट किया था जो झारखंड राज्य बनाने का श्रेय लेती थी. राज्य के पहले मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी को छोड़कर एनडीए का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत पाया था. यह हार केंद्र सरकार की नीतियों और भाजपा की अंदरूनी लड़ाई का परिणाम थी. इस बार भी मामला कुछ ऐसा ही है.
इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में मुक़ाबला लगभग बराबरी पर छूटा. इसकेबाद से राज्य में तीन अलग-अलग व्यक्ति, चार अलग बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं और फिलहाल वहां राष्ट्रपति का शासन है. इन पांच सालों में कभी कोई स्थायी सरकार नहीं बन पाई. पहले शिबू को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश हुई फिर मधु कोड़ा अर्जुन मुंडा की सरकार गिरा देश के पहले निर्दलीय मुख्यमंत्री बने. फिर 22 ज़ुलाई को केंद्र सरकार बचाने का ईनाम देने के लिए शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जो नौटंकी हुई, उससे यूपीए में फूट पड़ गई. लगता है इसी के साथ जनता के सब्र का प्याला भी छलक गया. इस बार का फैसला इसी गुस्से को दिखाता है. इस बार भाजपा को उसका फायदा हुआ है और वह शून्य से आठ सीटों पर पहुंच गई है. वहीं यूपीए तेरह से तीन पर आ गया. एनडीए से अलग हुए लेकिन एक-दूसरे के करीब माने जाने वाले बाबूलाल मरांडी और इंदर सिंह नामधारी भी जीत गए. संकेत साफ हैं. पिछले पांच साल से लूट-खसोट और सत्ता के खेल में जुटे बाज़ीगरों को जनता ने नकार दिया.
इस चुनाव में सभी कद्दावर नेताओं की जीत ने यह भी दिखा दिया कि झारखंड राजनीति में अभी भी मुद्दे व्यक्तियों से पीछे का ही स्थान रखते हैं. साथ ही इस चुनाव ने कई पुराने धुरंधरों को भी नई सांस दी है. यह चुनाव बाबूलाल मरांडी के लिए सबसे महत्वपूर्ण थे. भाजपा से अलग होने के बाद अपनी राजनीतिक हैसियत बचाए रखने के लिए उनका यह चुनाव जीतना बेहद अहम था. हालांकि बाबूलाल को केंद्र में एनडीए की सरकार न बन पाने का अफसोस होगा. एक अल्पमत एनडीए सरकार की सूरत में वह महत्वपूर्ण होते और मंत्रीपद का दावा भी ठोक सकते थे. खैर फिलहाल उनका यह सपना अधूरा ही लगता है लेकिन उनकी जीत ने राज्य में उनके कद में इजाफा ही किया है और अब विधानसभा चुनाव में वह बेहतर स्थिति में दिखेंगे और भाजपा में उनकी वापसी की सूरत में भी उनका रुतबा बड़ा ही रहेगा. चारों पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा मंत्री सुबोधकांत सहाय, झारखंड विधानसभा के पहले अध्यक्ष रहे नामधारी और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिंहा और कड़िया मुंडा भी जीतने वालों में रहे. यह नतीजा इस ओर भी संकेत करता है कि झारखंड में इन पांच सालों में उभरे नए नेताओें पर जनता का कोई भरोसा नहीं है.
परिणामों पर एक बड़ा अंतर मतदाताओं के ध्रुवीकरण से भी आया है. जहां पिछली बार सदान विकास परिषद ने अपने उम्मीदवार खड़े कर भाजपा के वोटों की सेंधमारी की थी, वहीं इस बार आदिवासी छात्र संघ और झारखंड पार्टी जैसे संगठनों ने यूपीए के आदिवासी वोट बैंक को बांट कर रख दिया. लोहरदगा और खूंटी जैसे इलाकों में यही प्रभाव यूपीए की हार का कारण बना. झारखंड के आदिवासियों का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले नेताओं से लोगों का मोहभंग हुआ है जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना प़ड़ा. सबसे ज़्यादा नुकसान गुरुजी यानी शिबू को हुआ. मुख्यमंत्री की होड़ के कारण यूपीए के घटक तो अलग हुए ही कुछ अपने लोग भी ख़िला़फ हो गए.
साफ है झारखंड के चुनाव परिणामों में राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय कारण भारी रहे. अब देखना यह है कि जनता के इस फैसले के बाद भी राज्य की राजनीति में कोई बदलाव आता है या नहीं. दिलचस्प यह देखना भी होगा कि आख़िरकार लोकसभा में पहुंचे चारों मुख्यमंत्री केंद्र की राजनीति में रमेंगे या फिर मौका देखते ही राज्य सरकार की कुर्सियों का रुख़ करेंगे. इन नेताओं को जनता ने भी संकेत दे दिए हैं कि जनता किसी भी ऐसी सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगी जो विकास के मुद्दों को छोड़ कर भ्रष्टाचार और आपसी खींचतान में लगी रहे. ज़रूरी है कि राजनीतिक दल यह संकेत समझें वरना हार ही हाथ लगेगी.
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