जदयू विधायकों के माथे पर इस बात को लेकर चिंता की लकीरें हैं कि इन सवर्ण वोटरों का क्या होगा, जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें बड़ी संख्या में किया था. इसके अलावा भाजपा के अन्य वोट बैंक भी अब जदयू से दूर रहेंगे. लोकसभा चुनाव में जो तस्वीर उभरी, वह बताती है कि कुल सवर्ण वोटरों में से 70 फ़ीसदी ने एनडीए प्रत्याशियों को वोट दिया. बाक़ी तीस फ़ीसदी वोट ही दूसरे दलों को मिले हैं, जिनमें राजद व जदयू भी शामिल है. लोकसभा चुनाव के इन आंकड़ों से जदयू के दर्जनों विधायक ख़ासकर अगड़ी जाति के विधायक परेशान हैं. यह मानी हुई बात है कि अगर अगड़ी जाति का वोट जदयू के विधायकों को नहीं मिला तो कम-से-कम तीन दर्जन विधायकों का जीतना असंभव है. लगभग इतने ही विधायक कड़ी लड़ाई में फंसे हुए नज़र आएंगे.
बिहार में विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र अभी से ही जातीय गुणा-भाग करने का काम हर दल में शुरू हो गया है. पिछले विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले इस बार सारे समीकरण बदल गए हैं. भाजपा से नाता तोड़ जदयू अब राजद के क़रीब आने की कवायद में जुटा है. लालू प्रसाद ने इस काम के लिए अपने दरवाजे भी खोल रखे हैं. लालू और नीतीश की दोस्ती होगी या नहीं होगी यह तो अभी तय नहीं है, लेकिन यह सच है कि भाजपा और जदयू का साथ छूट चुका है. ऐसे में जदयू विधायकों के माथे पर चिंता की लकीरें हैं कि उन सवर्ण वोटरों का क्या होगा, जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें ब़डी मात्रा में वोट किया था. इसके अलावा भाजपा के अन्य वोट बैंक भी अब जदयू से दूर रहेंगे. उधर, लोकसभा चुनाव में जो तस्वीर उभरी है, वह बताती है कि कुल सवर्ण वोटरों में से 70 फ़ीसदी ने एनडीए के प्रत्याशियों को वोट दिया. बाक़ी तीस फ़ीसदी वोट ही दूसरे दलों को मिले हैं, जिनमें राजद व जदयू भी शामिल हैं. लोकसभा चुनाव के इन आंकड़ों से जदयू के दर्जनों विधायक, ख़ासकर अगड़ी जाति के विधायक, परेशान हैं. यह मानी हुई बात है कि अगर अगड़ी जाति का वोट जदयू के विधायकों को नहीं मिला तो कम-से-कम तीन दर्जन विधायकों का जीतना असंभव है. लगभग इतने ही विधायक कड़ी लड़ाई में फंसे हुए नज़र आएंगे. इसके अलावा इस बार उन्हें कुशवाहा वोटों से भी हाथ धोना पड़ सकता है, क्योंकि उपेंद्र कुशवाहा के मंत्री बन जाने के बाद इस समुदाय ने नए सिरे से सोचना शुरू कर दिया है. जदयू के विधायकों में जो बचैनी है उसकी एक वजह यह भी है कि आगामी चुनाव में इन विधायकों को जीतने की संभावना कम लग रही है. संसदीय चुनाव में जदयू की हुई शर्मनाक हार व भाजपा की हुई शानदार जीत का असर आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव में चंपारण में सबसे अधिक पड़ेगा और जदयू प्रत्याशियों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ी कसरत करनी पड़ेगी.
मगध में बदल गए सारे समीकरण
मगध प्रमंडल के पांच ज़िलों के 26 विधानसभा क्षेत्रों में से सर्वाधिक 16 पर जदयू क़ाबिज़ है. आठ पर भाजपा तथा राजद और निर्दलीय का एक-एक पर क़ब्ज़ा है. यह स्थिति तब की है, जब भाजपा के साथ जदयू था. मगध की जनता ने भी एनडीए के लिए संयुक्त रूप से जदयू-भाजपा को मत देकर 26 में से 24 विधानसभा क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा दिलाया था. लेकिन पिछले एक साल में राजनीतिक उठा-पटक ने बिहार के साथ-साथ मगध प्रमंडल के भी सारे राजनीतिक समीकरण को भी बिगाड़ दिया. लोकसभा चुनाव में नमो की लहर ने सारे समीकरण को ध्वस्त कर दिया. लेकिन विधानसभा चुनाव में यह स्थिति तो नहीं रहेगी. अगर अगड़ी जाति के मतों में बिखराव हुआ तो सर्वाधिक नुकसान जदयू को होगा. लोकसभा चुनाव में तो एक तरह से कहें तो अगड़ी जातियों के वोटरों का ध्रुवीकरण का प्रभाव मगध पर भी पड़ा और जदयू, राजद, कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया. 2010 के विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा के एनडीए गठबंधन में सबसे अधिक लाभ भी जदयू को ही मिला था. मगध प्रमंडल के 26 विधानसभा क्षेत्रों में से जदयू ने 18 सीतों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें 16 पर उसकी जीत हुई थी और 2 विधानसभा क्षेत्रों, बेलागंज और ओबरा, में जदयू के प्रत्याशी हार गए थे. जबकि भाजपा ने सभी आठ सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन अब बदलते राजनीतिक हालात में जदयू के वोट बैंक की राजनीति में गड़बड़झाला हो गया है. अगड़ी जाति का वोट पिछले चुनाव में एनडीए के साथ था. इसका लाभ भाजपा के साथ-साथ जदयू को भी मिला था, लेकिन आज स्थिति बदल गई है. अगले साल आने वाले विधानसभा चुनाव में बिहार के बदलते राजनीतिक समीकरण का असर सबसे अधिक जदयू पर पड़ेगा. मगध में जो स्थिति नज़र आ रही है, उसमें अगड़ी जाति का वोट आज की स्थिति में पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन 70 प्रतिशत भाजपा के साथ ज़रूर रहेगा. ऐसे में स्थानीय स्थिति और जातीय समीकरण का असर भी विधानसभा चुनाव में पड़ेगा. अगड़ी जाति के वोट बैंक में कुछ भी बिखराव हुआ, तो जदयू के सुरक्षित विधानसभा क्षेत्रों पर कम और सामान्य विधानसभा क्षेत्रों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ेगा. इनमें प्रभावित होने वाले विधानसभा क्षेत्रों और विधायकां के नाम हैं- कुर्था के सत्यदेव सिंह, जहानाबाद के अभिराम शर्मा, घोषी के राहुल कुमार, गोह के रणविजय सिंह, नबीनगर के विरेन्द्र कुमार सिंह, कुटुंबा के ललन राम, रफीगंज के अशोक कुमार सिंह, बाराचट्टी की ज्योति देवी, टिकारी के अनिल कुमार, अतरी के कृष्णनन्दन यादव, वारसलीगंज के प्रदीप कुमार. ऐसे ही टिकारी के विधायक अनिल कुमार जदयू के बाग़ी खेमें मंें आकर आने वाले विधानसभा चुनाव में दल-बदल करने का संकेत दे रहे हैं. अन्य जदयू विधयकों की क्या रणनीति रहेगी, यह तो समय बताएगा लेकिन इतना तय है कि अगड़ी जाति के वोट बैंक को नज़रअंदाज़ करना जदयू के लिए सबसे ख़तरनाक साबित होगा.
चम्पारण में लग सकता है बड़ा झटका
चम्पारण में 21 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिसमेें आठ विधानसभा क्षेत्रों, वाल्मीकिनगर, बगहा, नौतन नरकटिया, पिपरा, मधुबन, गोविन्दगंज व कल्याणपुर पर जदयू का क़ब्ज़ा है. यहां से क्रमश: राजेश सिंह, प्रभात रंजन सिंह, मनोरमा प्रसाद, श्यामबिहारी प्रसाद, अवधेश कुशवाहा, शिवजी राय, मीना द्विवेदी व रजिया खातुन विधायक हैं.
इनमें वाल्मीकिनगर विधानसभा क्षेत्र की अलग पहचान रही है और थारू समाज के सर्वाधिक मतदाता यहां हैं. यहां थारू करीब 80 हज़ार, कोइरी 50 हज़ार, वैश्य 35 हज़ार, यादव 30 हज़ार, मुस्लिम 25 हज़ार, राजपूत 20 हज़ार के साथ-साथ अन्य जातियों के मतदाता भी हैं. कभी जदयू के लिए वोट बैंक साबित होने वाला थारू समाज अभी पूरी तरह से भाजपा के साथ है और इस बार के लोकसभा चुनाव में जदयू को पूरी तरह से नकार चुका है. वर्ष 2010 के चुनाव में भाजपा-जदयू ने साथ चुनाव ल़डा था. उस वक्त जदयू प्रत्याशी राजेश सिंह को 42,289 वोट मिले थे, जिसमें थारू समाज के लोगों ने जदयू को अधिक वोट दिया था. उस चुनाव में राजद प्रत्याशी मुकेश कुमार कुशवाहा को 27,618 व बसपा प्रत्याशी धर्मेंद्र प्रताप सिंह को 20 हज़ार 866 वोट मिले थे. वहीं बगहा विधानसभा क्षेत्र पर अगर नज़र डालते हैं तो यहां सबसे अधिक ब्राह्मण मतदाता हैं. दूसरा स्थान यादव व तीसरा स्थान कोइरी व वैश्य समाज का है. वर्ष 2010 के चुनाव में जदयू विधायक प्रभात रंजन सिंह को 67510 वोट मिले थे, जबकि राजद के रामप्रसाद यादव को 18425 व बसपा प्रत्याशी मो. कमरान को 18341 वोट प्राप्त हुए थे. नौतन विधानसभा क्षेत्र में करीब 40 हज़ार कोइरी, 30 हज़ार मुस्लिम, 30 हज़ार यादव, 25 हज़ार मल्लाह, 25 हज़ार ब्राह्मण मतदाता हैं. वर्तमान जदयू विधायक मनोरमा प्रसाद को वर्ष 2010 के चुनाव में 40894 वोट मिले थे, जबकि राजद के नारायण प्रसाद को 18130 वोट मिले थे. बसपा के अमर यादव को 8521 व सीपीआई के गुल्लू चौधरी को 15 हज़ार 467 वोट प्राप्त हुए थे. इसी तरह नरकटिया विधानसभा क्षेत्र मुस्लिम बहुल क्षेत्र है और यहां करीब 60 हज़ार मुस्लिम मतदाता हैं. दूसरे स्थान पर यादव व तीसरे स्थान पर वैश्य हैं. साल 2010 के चुनाव में जदयू के श्यामबिहारी प्रसाद को 31 हज़ार 549, लोजपा के यासमिन साबिर अली को 23 हज़ार 861 व डॉ. शमीम अहमद को 14 हज़ार 217 वोट मिले थे. पिपरा विधान सभा क्षेत्र पर अगर नज़र डालते हैं, तो यहां कोइरी मतदाताओं की संख्या अधिक है. दूसरे स्थान पर यादव व तीसरे स्थान पर मुस्लिम मतदाता हैं.
यहां वैश्य मतदाताओं की संख्या भी अच्छी खासी है. साल 2010 के चुनाव में जदयू के अवधेश कुशवाहा को 40 हज़ार 99 व राजद के सुबोध यादव को 28212 वोट मिले थे. वहीं मधुबन विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में सबसे अधिक 60 हज़ार, राजपूत, 40 हज़ार यादव, 35 हज़ार कोइरी, 25 हज़ार मुस्लिम व करीब 20 हज़ार वैश्य मतदाता हैं. साल 2010 के चुनाव में जदयू के शिवजी राय को 40 हज़ार 478, राजद के राणा रंधीर सिंह को 30 हज़ार 356 व कांग्रेस के राजेश कुमार रौशन उर्फ बब्लू देव को 15 हज़ार 248 वोट मिले थे. वहीं गोविन्दगंज विधानसभा क्षेत्र में करीब 60 हज़ार ब्राह्मण, 40 हज़ार भूमिहार, क़रीब 25 हज़ार राजपूत व 20 हज़ार मुस्लिम मतदाता हैं. साल 2010 के चुनाव में जदयू की मीना द्विवेदी को 33 हज़ार 859, लोजपा के राजू तिवारी को 25 हज़ार 454 व कांग्रेस के जयप्रकाश पाण्डेय को 13 हज़ार 17 वोट मिले थे. इसी तरह कल्याणपुर विधानसभा क्षेत्र में करीब 50 हज़ार भूमिहार, 30 हजार ब्राह्मण, 25 हज़ार मुस्लिम व 20 हज़ार यादव मतदाता हैं. इस तरह अधिकांश सीटों पर काफी कम वोटों के अन्तर से जदयू की जीत हुई थी और प्रत्याशियों को कड़ा संघर्ष भी करना पड़ा था. लेकिन, इस बार के चुनाव में जब भाजपा अलग है तो फिर चुनाव का रुख कैसा होगा, सहज अनुमान लगाया जा सकता है. वैसे जानकार बताते हैं कि चम्पारण में जदयू पूरी तरह से खोखली हो गई है और लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं में जोश नहीं रह गया है. वहीं भाजपा कार्यकर्ताओं में काफी जोश है और वे इस विधानसभा चुनाव को अपनी पक्ष में करने में जुट गए हैं.
तिरहुत में बहाना होना जदयू को पसीना
तिरहुत प्रमंडल के सीताम़ढी, शिवहर और मुज़फ्फरपुर ज़िले में संपन्न लोकसभा चुनाव ने इस बात का संकेत लगभग साफ दे दिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में जदयू की राह आसान नहीं होगी. जदयू-भाजपा का पुरानी गठबंधन दरकने के बाद हुए पहले चुनाव के नतीजा ने यह भी साफ कर दिया है कि अकेले जदयू चुनावी समर में कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं है. अब तक जाति व पार्टी के नाम पर मतदान करने वाले मतदाताओं ने अपनी मंशा में बदलाव करना शुरू कर दिया है.
राजद शासन काल में जंगल राज का हंगामा ख़डा कर सत्ता पाने वाली जदयू को अब महादलित व अल्पसंख्यक कार्ड का खेल महंगा प़डने लगा है. आलम है कि न तो अल्पसंख्यक पूर्णत: जदयू के साथ है और न ही महादलित का ही भरपूर समर्थन मिलता नज़र आ रहा है. रही बात सवर्ण की तो राजद से नाराज़ सवर्णों ने नीतीश कुमार को भरपूर समर्थन देकर सत्ता में लाने का काम किया था, लेकिन नीतीश कुमार सवर्णों की अपेक्षा पर खरे नहीं उतर सके. नतीजा है कि अब सवर्ण जदयू को पचा पाने की स्थिति में नहीं हैं. यही कारण है कि संपन्न लोकसभा चुनाव में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव व तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तूफानी चुनावी सभाओं के बाद भी कोई भी विधायक अपने क्षेत्र में मतदाताओं को जदयू के पक्ष में एकजुट करने में सफल नहीं हो सका. सीताम़ढी के कुल 8 विधानसभा क्षेत्रों में से 4 पर जदयू का क़ब्ज़ा है. उनमें सूबे के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री शाहिद अली खान सुरसंड, वर्तमान गन्ना विकास मंत्री डॉ. रंजू गीता बाजपट्टी, बिहार विरासत विकास समिति की सभापति गुड्डी देवी रून्नीसैदपुर एवं सुनीता सिंह चौहान बेलसंड से विधायक हैं. शिवहर से अल्पसंख्यक विधायक सरफुद्दीन जदयू का कमान संभाल रखे हैं. मुज़फ्फरपुर ज़िले में कुल 11 विधानसभा क्षेत्र है. जिनमें भाजपा 4 सीट पर है. इनमें पारू से अशोक कुमार सिंह, मुज़फ्फरपुर नगर सुरेश शर्मा, गायघाट वीणा देवी, औराई राम सूरत राय, जदयू के बोचहां से रमई राम, सकरा सुरेश चंचल, कुढनी से मनोज कुशवाहा, साहेबगंज से राजू कुमार सिंह राजू, मीनापुर से दिनेश कुशवाहा, कांटी ई. अजीत कुमार हैं. वहीं, बरूराज से राजद के ब्रज किशोर सिंह शामिल है. चर्चाओं पर यकीन करें तो लोकसभा चुनाव के बाद सूबे में आयी राजनीतिक भूचाल ने लोगों की सोच को बदल दिया है. लोकसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद से नीतीश कुमार का इस्तीफ़ा और फिर राज्यसभा की सीट को लेकर जदयू के विधायकों में मचे विद्रोह ने पार्टी की छवि को आम लोगों के बीच बहुत हद तक प्रभावित किया है. अगर अगड़ी जातियों के वोट पिछली बार की तरह जदयू के उम्मीदवारों को नहीं मिलते हैं, तो फिर तिरहुत में जदयू को नाको चने चबाना पड़ सकता है.
जदयू के दर्जनों विधायकों पर हार का ख़तरा
Adv from Sponsors