बाढ़, सूखा या बारिश के दिनों में सारे देश में होने वाले जल भराव को लेकर क्या कोई राजनीतिक सहमति नहीं बन सकती. हम जब उत्तर भारत के लोग किसी समस्या की बात करते हैं, तो उसे सारे देश की समस्या बताते हैं, जैसे मैं अपनी इस बातचीत में बता रहा हूं, पर हमारे उत्तर भारत के अखबारों में हम यह खबरें नहीं पढ़ते कि दक्षिण भारत के शहरों में भी जल भराव जैसी समस्याएं हैं.
बारिश क्या आई, देश के लिए आफत लेकर आ गई. हर शहर परेशान हो गया है. सिर्फ एक घंटे की बारिश और ट्रैफिक जाम. कई जगहों पर मैनहोल के अन्दर बच्चों के गिरने और मैनहोल में बह जाने कारण मौत की खबरें दिल को दहला गईं. यह पिछले 65 सालों से हो रहा है. तीन महीने बारिश का मौसम उत्तर भारत के सभी शहरों के लिए प्रलय जैसा मौसम बन जाता है. यह हर साल होता है. तीन महीने बीतते ही पुराने दुखों को लोग भूल जाते हैं और आने वाले दुखों के लिए अपने आपको तैयार करने लगते हैं. शोर-शराबा होता है, लेकिन जिन अधिकारियों के ऊपर या जिन संस्थाओं के ऊपर पानी निकासी की व्यवस्था को ठीक करने का जिम्मा है, वे लोग बिल्कुल भी नहीं चेतते हैं.
इसी तरह हर साल बाढ़ आती है, हर साल सूखा पड़ता है, हर साल सर्दी से लोगों की मौतें होती हैं. ये सारी विपदायें प्रति वर्ष का निश्चित कैलेंडर बन गई हैं, पर न केंद्र की सरकार न राज्य की सरकार, न कोई राजनीतिक दल इस पूरी स्थिति का सामना करने के लिए अपने को तैयार करता है. होता दरअसल, बिल्कुल उल्टा है. पहले से यह तय हो जाता है कि इस बार बाढ़ में कितने पैसे का बजट देना है और उसमें से कितना पैसा लोगों की जेब में पहुंच जाना है. कितना पैसा सूखा राहत में जाना है. कितना पैसा जानवरों के चारे में जाना है. उस पैसे का किस विभाग के जरिए बंटवारा होगा इसका एक निश्चित नक्शा बना हुआ है और प्रतिवर्ष बारिश के मौसम में जल भराव, सड़कों का टूटना औैर मैनहोल की सफाई के नाम पर पिछले साल से ज्यादा पैसा अगले साल लेने की योजना पहले से बन जाती है और उस पैसे में भी बंदरबांट हो जाती है. लोग वहीं के वहीं खड़े दिखाई देते हैं.
क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकर सख्त कदम नहीं उठा सकते कि जिन संस्थाओं के ऊपर इनका हल निकालने की जिम्मेदारी है, अगर वो संस्थाएं हल नहीं निकालती हैं, तो उन संस्थाओं के मुखिया की जिम्मेदारी तय कर उनके लिए किसी सज़ा का प्रावधान किया जाए. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह अलोकतंत्रिक बात है. मैं कहता हूं यह अलोकतंत्रिक नहीं, पूर्ण लोकतांत्रिक बात है. जब देश के लोग एक अच्छी व्यवस्था बनाने और चलाने के लिए सरकार चुनते हैं, तो पूरे विश्वास से चुनते हैं और उनका यह मौलिक अधिकार है कि उन्हें उन सुविधाओं का भरपूर फायदा मिले और उन समस्याओं से छुटकारा मिले, जो समस्याएं प्रतिवर्ष उन्हें तथाकथित दैवीय आपदा के रूप में मिलती हैं, क्योंकि आजकल एक बड़ा समुदाय यह कहने लगा है कि बाढ़, सूखा, ज्यादा बारिश का होना यह दैवीय है, नहीं, यह दैवीय नहीं है. मानवीय लालच के ये बड़े-बड़े उदाहरण हैं, जो योजना बनाकर किस तरह पैसे को खाना है और कितना पैसा राजनीतिज्ञों की जेब में जाएगा, कितना पैसा ब्यूरोक्रेट्स की जेब में जाएगा और कितना पैसा छोटे कर्मचारियों की जेब में जाएगा, यह सब गणित के हिसाब से तय होता है और उसके ऊपर ईमानदारी से अमल होता है. बस ठगे से रह जाते हैं वो लोग, जो लोग वोट देते हैं, जो लोग इन समस्याओं से छुटकारा पाने की आशा में सरकार का मुंह देखते हैं और सरकार अपनी जिम्मेदारी से बेपरवाह अपने भीतर फैले इस महाजाल को बजाए रोकने के बढ़ाती जा रही है.
क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकर सख्त कदम नहीं उठा सकते कि जिन संस्थाओं के ऊपर इनका हल निकालने की जिम्मेदारी है, अगर वो संस्थाएं हल नहीं निकालती हैं, तो उन संस्थाओं के मुखिया की जिम्मेदारी तय कर उनके लिए किसी सज़ा का प्रावधान किया जाए. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह अलोकतंत्रिक बात है. मैं कहता हूं यह अलोकतंत्रिक नहीं, पूर्ण लोकतांत्रिक बात है.
बाढ़, सूखा या बारिश के दिनों में सारे देश में होने वाले जल भराव को लेकर क्या कोई राजनीतिक सहमति नहीं बन सकती. हम जब उत्तर भारत के लोग किसी समस्या की बात करते हैं, तो उसे सारे देश की समस्या बताते हैं, जैसे मैं अपनी इस बातचीत में बता रहा हूं, पर हमारे उत्तर भारत के अखबारों में हम यह खबरें नहीं पढ़ते कि दक्षिण भारत के शहरों में भी जल भराव जैसी समस्याएं हैं. हम यह भी नहीं पढ़ते कि दक्षिण भारत में किस तरह सूखा पड़ता है, किस तरह वहां बाढ़ का मुक़ाबला होता है, बल्कि जब कभी वहां चक्रवात, तूफान, समुद्री तटों के ऊपर विनाश जैसी खबरें आती हैं, तो हमें यह देखकर हर्ष होता है कि वहां का प्रशासन उनका मुक़ाबला बहुत मुस्तैदी से करता है.
वैसा मुक़ाबला उत्तर भारत में क्यों नहीं हो सकता, क्यों उत्तर भारत में आमतौर पर यह राय बनी है कि दक्षिण भारतीय अधिकारी ज्यादा ईमानदारी से काम करते हैं? क्या उत्तर भारत में भ्रष्टाचार के साथ अक्षमता का भी रोग है? क्या हिंदी भाषी या गैर हिंदी भाषी उत्तर भारतीय प्रदेशों के लोग इस कलंक के साथ अपना जीवन गुजारने में गर्व महसूस कर रहे हैं कि वो अक्षम हैं, भ्रष्टाचारी हैं? क्यों आमतौर पर उत्तर भारत के लोग दक्षिण भारतीय अधिकारियों पर ज्यादा विश्वास करते हैं? उन्हें ज्यादा क्षमतावान मानते हैं. यह सवाल हैं और यह सवाल एप्रोच के हैं, यह सवाल नजरिए के हैं, यह सवाल कार्यक्षमता के हैं, यह सवाल कार्य कुशलता के हैं.
सवाल शायद दक्षिण या उत्तर का नहीं है, सवाल पूरी सरकार की एप्रोच का है. दक्षिण में सरकारें लोगों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं. उत्तर में शायद लोगों के प्रति कम संवेदनशील होती हैं. पर समस्या तो है और इस समस्या का निदान अगर फौरन नहीं तलाशा गया, तो हम यह मान लेंगे कि जैसे होली, दिवाली, ईद-बकरीद आती है, उसी तरह से बाढ़, सूखा, बारिश के दिनों में जल भराव जैसी समस्याएं सालाना राष्ट्रीय त्यौहारों में होती दिखाई देने लगेंगी. हम सिर्फ अनुरोध कर सकते हैं कि लोगों को उस क्षमता तक निराश मत कीजिए कि वो अपने को इतना निःसहाय मानने लगें कि देश में व्याप्त बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, बीमारी जैसी समस्याओं के साथ बाढ़, सूखा में होने वाली लूट और नागरिक सुविधाओं के लिए जिम्मेदार संस्थाओं की अमानवीयता, असंवेदनशीलता लोगों को अपना भाग्य लगने लगे.