हमें ख़ुशी है कि हमारी कोशिशों को क़ुबूलियत हासिल हुई. खास तौर पर नए ख्वाब देखने वाले उन नौजवानों के लिए, जो उर्दू पढ़ना-लिखना न जानने के बावजूद उर्दू के ज़ुल्फों के असीर हैं. आज 2017 में यह हाल है कि हमने तो जश्न का सिर्फ इन्त़ेजाम किया, इसे सेलिब्रेट यही लोग कर रहे हैं, जिनके दिलों में उनके माशूक़ के सिवा कोई और है, तो वो है उर्दू ज़ुबान का इश्क़. इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू ज़ुबान का दामन दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है. नई नस्ल इस ज़ुबान से दूर होती जा रही है. लेकिन यह भी सच है कि नई नस्ल में इस ज़ुबान को सीखने की पूरी इच्छा है. इस इच्छा का अंदाज़ा जश्न में शामिल नौजवानों की बड़ी तादाद से भी हो सकता है.
रेख्ता फाउंडेशन ने हिंदुस्तान का दिल कही जाने वाली दिल्ली के दिल में स्थित इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट (आईजीएनसीए) के प्रांगण में एक बार फिर जश्न-ए-रेख्ता की शानदार मह़िफल सजाई और उर्दू के आशिकों को उर्दू तहज़ीब के अलग-अलग रंगों से एक बार फिर अवगत कराया. 17 फरवरी से 19 फरवरी तक चले इस तीन दिवसीय जश्न की कामयाबी इस बात की दलील है कि रेख्ता फाउंडेशन के संस्थापक संजीव सराफ ने चंद साल पहले जो एक पौधा लगाया था, वो अब तनावर दरख्त का रूप लेकर फल देने को तैयार हो गया है. इस बात का एतराफ किसी और ने नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर शायर, साहित्यकार और ़िफल्मकार गुलज़ार ने की.
उन्होंने कहा कि मीर और ़खुसरो के बाद रेख्ता (यानि उर्दू) के लिए किसी का शुक्रिया अदा करना हो, तो मुझे संजीव सराफ साहब का शुक्रिया अदा करना पड़ेगा. उर्दू की रवायत (परम्परा) को तसलसुल देना और यहां तक क़ायम रखना और उसके लिए मेहनत करना बड़ी बात है. इस साल जश्न-ए-रेख्ता की एक ख़ास बात यह रही कि इसके सारे प्रोग्राम रेख्ता डॉट ऑर्ग पर लाइव स्ट्रीम किए गए, जिसकी वजह से दुनिया भर में मौजूद रेख्ता डॉट ऑर्ग के दर्शकों और पाठकों ने इस जश्न का ग़ायबाना लुत़्फ उठाया.
ताकि उर्दू लिपि ज़िन्दा रहे…
जश्न-ए-रेख्ता का आगाज़ रेख्ता फाउंडेशन के संस्थापक संजीव सराफ और गुलज़ार के साथ सुप्रसिद्ध सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान ने शमा रौशन करके किया. इस अवसर पर रेख्ता डॉट ऑर्ग पर उर्दू लिपि सिखाने वाले प्रोग्राम अमोज़िश का लोकार्पण भी किया गया. इस बात में कोई शक नहीं कि उर्दू की खूबसूरती और सौन्दर्य का दारोमदार बहुत हद तक इसकी लिपि में भी निहित है. ज़ुबान तो सब बोलते हैं, लेकिन अगर लिपि समाप्त हो गई, तो फिर उसके साथ उसकी पहचान भी खत्म हो जाएगी.
इसी बात की तरफ इशारा करते हुए गुलज़ार ने कहा कि 80 से 90 फीसद फिल्मो में जो ज़ुबान बोली जाती है वो उर्दू है. ज़िंदा ज़ुबान वक़्त से साथ-साथ बदलती रहती है. अब हम 19वीं सदी या 18वीं सदी की उर्दू नहीं बोलते हैं, बल्कि आज की उर्दू बोलते हैं. लेकिन एक चीज़ जिसकी कमी महसूस हो रही है, वो इसकी लिपि है. उर्दू लिपि कहीं सिमटती जा रही है, छोटी होती जा रही है, उसे संभालना बहुत ज़रूरी है.
उर्दू की लिपि बहुत खूबसूरत है. मेरी यही ख्वाहिश है कि उदूर्र् लिपि ज़िंदा रहे. रेख्ता डॉट ऑर्ग की पेशकश अमोज़िश का ज़िक्र करते हुए और पांच साल पहले खुद उर्दू लिपि सीखने की वजह बताते हुए संजीव सराफ का कहना था, हम जानते हैं कि ज़ुबान को उसके रस्मुलख़त (लिपि) से अलग करना जिस्म को रूह से अलग करना है.
उनका यह भी कहना था कि ज़ुबान की ख़ूबसूरती और उसकी मौसिक़ी (संगीत) को पूरी तरह समझने के लिए लिपि का जानना ज़रूरी है. रेख्ता पर अमोज़िश की शुरुआत की वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि उर्दू से मोहब्बत करने वाले ऐसे बहुत से लोग हैं, जो उर्दू लिपि सीखना चाहते हैं, लेकिन संसाधन की कमी की वजह से वे ऐसा नहीं कर पाते.
जश्न-ए-रेख्ता क्यों?
जश्न-ए-रेख्ता मनाने का मक़सद ज़ाहिर करते हुए संजीव सराफ ने कहा कि जश्न-ए-रेख्ता-2015 मुख्तलिफ क़ौमों, मज़ाहिब और तबक़ों के लोगों को जोड़ने और दिलों के दरमियां मोहब्बत का पुल बनाने के अमल के लिए बरपा किया गया था. हमें ख़ुशी है कि हमारी कोशिशों को क़ुबूलियत हासिल हुई. खास तौर पर नए ख्वाब देखने वाले उन नौजवानों के लिए, जो उर्दू पढ़ना-लिखना न जानने के बावजूद उर्दू की ज़ुल्फों के असीर हैं और आज 2017 में यह हाल है कि हमने तो जश्न का सिर्फ इन्तेज़ाम किया.
इसे सेलिब्रेट यही लोग कर रहे हैं, जिनके दिलों में उनके माशूक़ के सिवा कोई और है, तो वो है उर्दू ज़ुबान का इश्क़. इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू ज़ुबान का दामन दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है. नई नस्ल इस ज़ुबान से दूर होती जा रही है. लेकिन यह भी सच है कि नई नस्ल में इस ज़ुबान को सीखने की पूरी इच्छा है. इस इच्छा का अंदाज़ा जश्न में शामिल नौजवानों की बड़ी तादाद से भी हो सकता है.
रेख्ता डॉट ऑर्ग
हालांकि जश्न-ए-रेख्ता मनाने के संदर्भ में जो बातें संजीव सराफ ने कहीं, वो बिलकुल दुरुस्त हैं, लेकिन इस संदर्भ में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो है रेख्ता फाउंडेशन की कामयाबी, खास तौर पर रेख्ता डॉट ऑर्ग की कामयाबी. रेख्ता ने एक ऐसी शुरुआत की, जिसे उर्दू के नाम पर चलने वाली किसी बड़ी सरकारी संस्था या यूनिवर्सिटी को करना चाहिए था.
बहरहाल, रेख्ता डॉट ऑर्ग की कामयाबी का स़फर लगातार जारी है. इसकी सामग्री में दिन प्रतिदिन इजा़फा होता जा रहा है. पिछले साल इस वेबसाईट पर शायरों की तादाद 1,700 थी, जो अब बढ़कर 2,300 हो गई है. नज्मो, ग़ज़लों, ऑडियो और विडियो की तादाद में भी लगातार इज़ाफा हुआ है.
इ-बुक सेक्शन में अब किताबों की संख्या 23,000 से ऊपर पहुंच गई है. सबसे बड़ी बात यह है कि इतने बड़े ज़खीरे से फायदा उठाने के लिए किसी तरह का कोई शुल्क नहीं लगाया गया है. उर्दू लिपि नहीं जानने वाले लोगों के लिए उर्दू के साथ-साथ रोमन और देवनागरी लिपि में ग़ज़लों और नज्मों का एहतमाम किया गया है.
इस वेबसाइट की एक खास बात यह भी है कि उर्दू के मुश्किल शब्दों का अर्थ महज़ एक क्लिक में मालूम हो जाता है. बहरहाल, इस वेबसाइट पर वे नादिर और दुर्लभ किताबें भी दस्तयाब हैं, जो वर्षों पहले आउट ऑ़फ प्रिंट हो चुकी थीं. उर्दू में शोध करने वाले शोधकर्ताओं के लिए भी यह बड़ी लाइब्रेरी की तरह है. रेख्ता ने प्रकाशन की दुनिया में भी अपना क़दम रखा है और उर्दू शायरी के तीन संग्रह प्रकाशित किया है.
संजीव सराफ ने अपने संबोधन में, इस जश्न में शामिल सभी मेहमानों का शुक्रिया अदा किया और पिछले एक वर्ष के दौरान दुनिया से रु़खसत हो चुके उर्दू अदीबों और शायरों, जिनमें बानो क़ुदसिया, सलमा सिद्दीक़ी, पैग़म अ़फाक़ी, बेकल उत्साही के नाम शामिल थे, को ़िखराज-ए-अक़ीदत पेश किया. पहले दिन की मह़िफल का समापन संगीत की मह़िफल रंग-ए-मौसिक़ी से हुआ, जिसमें आमान अली बंगश और अयान अली बंगश ने अपने सरोद वादन से माहौल को संगीतमय कर दिया.
जश्न-ए-रेख्ता के दूसरे दिन के प्रोग्रामों में भी उर्दू का जादू सर चढ़ के बोला. दीवान-ए-आम, दीवान-ए-ख़ास, बज़्म-ए-रवां और कुंजे सु़खन के सभी प्रोग्रामों में भरपूर जोश-ओ-़खरोश देखने को मिला. सूरतगर ख्वाबो के प्रोग्राम में मशहूर फिल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी ने गुलज़ार से बातचीत की, जिसमें गुलज़ार ने उर्दू के आवामी रंग पर भरपूर रौशनी डाली. ‘थिएटर के भोले रंग’ शीर्षक से उर्दू ड्रामों पर बहस हुई साथ ही नज़ीर अकबराबादी और आगरा बाज़ार पर ड्रामा पेश किया गया.
इस प्रोग्राम में नादिरा बब्बर, सलीम आऱिफ और सौरभ शुक्ला आदि ने भी शिरकत की. प्रेमचंद की लेखनी पर अब्दुल बिस्मिल्लाह, अली अहमद फातमी, आलोक राय, मैनेजर पाण्डेय और तारिक़ छत्तारी ने शिरकत की. ‘दिल्ली जो एक शहर था’ शीर्षक से मशहूर इतिहासकार इऱफान हबीब ने दिल्ली की तारी़ख के साथ-साथ उर्दू की भी तारी़ख पर भी रौशनी डाली. इसके अलावा कई दूसरे प्रोग्राम हुए, मज़ाहिया शायरी की मजलिस सजी, बच्चों ने अपने प्रोग्राम पेश किए, किताबों का एक छोटा से मेला भी लगा. दीवान-ए-ज़ायक़ा में लोगों ने अलग-अलग पकवानों का भी लुत़्फ लिया. इसके अलावा मुशायरा का एहतमाम किया गया, मौसिक़ी की मजलिस भी सजी, और फिल्म की स्क्रीनिंग भी हुई.
जश्न-ए-रेख्ता का एक मक़सद उर्दू और हिंदी को करीब लाना भी है. लिहाज़ा साहित्य से संबंधित अलग-अलग विषयों की चर्चा में उर्दू शायरों, अदीबों के साथ-साथ हिंदी से जुड़े लोग भी शामिल हुए. तीसरे दिन के प्रोग्राम की शुरुआत फरीदून शहरयार और हिंदी कवि और गीतकार प्रसून जोशी की गुफ्तगू से हुई. हिंदी कवि और राजनेता कुमार विश्वास ने विशेष रूप से उर्दू शायर जॉन एलिया को याद किया. दारैन शाहीदी और पूनम गिरधानी ने अपनी दास्तान-गोई से सबको मन्त्र मुग्ध कर दिया.
‘उर्दू सुरों का बहार’ शीर्षक से पेश हुए एक कार्यक्रम में मशहूर अभिनेता अन्नू कपूर से बातचीत की अभिनेता और फिल्म लेखक रूमी जा़फरी ने, जिसमें सिनेमा और उर्दू अदब के हवाले से बहस की गई. इस कार्यक्रम में कुछ कलाकारों ने अपने गीत भी पेश किए. ‘उर्दू का अदालती लेहजा’ शीर्षक से इस बार एक ़खास प्रोग्राम पेश किया गया, जिसमें रिटायर्ड जस्टिस टी एस ठाकुर, रिटायर्ड जस्टिस आ़फताब आलम, राजनेता सलमान ़खुर्शीद और प्रो. ताहिर महमूद ने अदालतों में उर्दू शायरी के इस्तेमाल की दिलचस्प कहानियां बयान की.
फौज़िया अर्शी की ग़ज़लों के एलबम का लोकार्पण
तीसरे दिन के कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण आकर्षण ग़ज़ल गायिकी का भी रहा. इस प्रोग्राम में पूर्व केंद्रीय मंत्री कमल मोरारका और सुप्रसिद्ध समाज सेविका भारती मोरारका ने ़फौज़िया अर्शी की ग़ज़लों के एलबम ‘ग़ज़ल बाई ग्रेट मास्टर्स’ का लोकापर्ण किया. यूं तो कमल मोरारका किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, लेकिन प्रोग्राम की मुनासबत से उनके बारे में भी कुछ कहना ज़रूरी हो जाता है. एक तरफ जहां वे देश के सर्वश्रेष्ठ 10 उद्योगपतियों में से एक हैं, वहीं पूर्व में केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं. वे देश के बेहतरीन वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर्स में से एक हैं, साथ ही आर्ट क्रिटिक भी हैं.
उनके बारे में अगर गुलज़ार साहब के शब्दों में कहें, तो बेशक वे भी उर्दू के आशिक़ों में से एक हैं और बड़ी ख़ामोशी के साथ इस ज़ुबान की ़िखदमत कर रहे हैं. इस प्रोग्राम में ़िफल्मकार, संगीतकार और ख़ूबसूरत आवाज़ की धनी ़फौज़िया अर्शी ने उर्दू के अज़ीम शायरों मीर तक़ी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, बहादुर शाह ज़फर और फैज़ अहमद फैज़ का कलाम गुनगुना कर कार्यक्रम में मौजूद ग़ज़ल गायिकी के शैदाइयों का दिल जीत लिया. यहां पेश की गई ग़ज़लें जिनमें ‘हस्ती अपनी हुबाब की सी है (मीर तक़ी मीर)’, ‘बे़खुदी बे सबब नहीं (मिर्ज़ा ग़ालिब)’, ‘इश्क में ज़ालिम तेरे (बहादुर शाह ज़फर)’, और ‘नहीं निगाह में मंज़िल (फैज़ अहमद फैज़)’ शामिल हैं, के अलावा ‘बात मेरी कभी सुनी ही नहीं (दाग़ देहलवी)’ फौज़िया अर्शी के एलबम ‘ग़ज़ल बाई ग्रेट मास्टर्स’ की ज़ीनत बनी हैं.
दरअसल, जश्न-ए-रेख्ता की कामयाबी की सबसे बड़ी दलील यह रही कि इसमें नौजवानों, स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इससे ज़ाहिर होता है कि इस ज़ुबान के चाहने वालों की एक नई नस्ल तैयार हो गई है. रेख्ता ने उनके ज़ौक़ का सामान भी मुहैया करा दिया है. जिस स़फर पर संजीव सराफ तन्हा रवाना हुए थे, उसने अब एक कारवां का रूप ले लिया है. मजरूह सुल्तानपुरी ने शायद उन्हीं जैसे लोगों के लिए यह शेर कही थी:
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया.